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Japanese in FIFA WC 2022: जापानी बहुत कुछ सिखा गए, क्या हम सीखेंगे!

Japanese: रील में जापान के लोग मैच देखने के बाद पूरा स्टेडियम साफ करते दिख रहे हैं। हैरानी तो तब और बढ़ गयी जब पता चला कि इस मैच में जापान नहीं खेल रहा था।

Anurag Shukla
Written By Anurag Shukla
Published on: 30 Nov 2022 1:58 PM IST
The Japanese have learned a lot, shall we learn
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जापानी बहुत कुछ सिखा गए, क्या हम सीखेंगे: Photo- Social Media

Japanese: दुनिया के सबसे बड़े खेल आयोजनों में एक फुटबाल का विश्व कप कतर (Qatar Country) में हो रहा है। यहां गोल हो रहे हैं, रिकार्ड बन रहे हैं। लेकिन हाल में ही एक रील ने खेलों से इतर इस आयोजन को शोहरत दी है। इस रील में जापान के लोग मैच देखने के बाद पूरा स्टेडियम साफ करते दिख रहे हैं। हैरानी तो तब और बढ़ गयी जब पता चला कि इस मैच में जापान नहीं खेल रहा था। इसी रील में कुछ जापानी भद्रजन कहते दिख रहे हैं कि वो सफाई इसलिए कर रह हैं क्योंकि 'वी रिस्पेक्ट द प्लेस' (हम इस स्थान की इज्जत करते हैं)। ये रील अब लाखों बार देखी जा चुकी है। भारत में भी सोशल मीडिया पर करोड़ों लोगों ने इसे देखा है, सराहा है। हम इससे अभिभूत भी हैं।

अब ये सोशल मीडिया कि क्लिप सिर्फ एक मनोरंजन का साधन नहीं कुछ सवाल भी उठा रही है। अपना तो देश खराब है.....इस देश का कुछ नहीं हो सकता.....विदेश में देखो क्या हाल है......इन सारी बातों को हम अकसर बोल देते हैं। अपने देश प्रदेश में फैली गंदगी बदहाल बिजली करप्शन और बिगडते हालात को हम सबने कभी ना कभी कोसा होगा....पर क्या यही एक नज़रिया है। कभी इस नजरिये से देखा है कि हम क्या कर रहे हैं। पालीथीन क्यों नदियों में फेंकते हैं... पालीथीन इधर उधर बिना सोचे फेंक देते हैं ये सोचे बिना कि नालियों को चोक करने के लिये ये पालीथीन सबसे बडे कारण है...इनसे ही जल भराव होता। जल भराव होने से हम सरकारों को कोसते हैं पर पालीथीन ना फेंकने की छोटी सी जिम्मेदारी नहीं उठा सकते।

हम अपना दोष कभी नहीं देते

हम कुछ इंच के लिये अपने घर को बढवा कर या फिर दुकान की चीजों को दुकान के बाहर रखकर अतिक्रमण करते हैं और जाम होने पर सरकार को कोसते हैं....सबसे पहले काम कराने के लिये पैसे देते हैं फिर भ्रष्टाचार को कोसते हैं....... एक कदम बढकर कूडाघऱ पर कूडा फेकने या फिर कूडेदान तक कूडा फेकने की जहमत नहीं करते और फिर गंदगी को रोते हैं। पानी और बिजली बर्बाद करते हैं फिर इनकी कमी पर जगमगाते विदेश को देखकर ललचाते हैं।

हम बिजली पानी सड़क सबके लिए सिर्फ सरकार, सिर्फ सरकार की रट लगाते हैं। क्यों देश सरकार नहीं लोग चलाते है। बल्कि देश चलाते नहीं देश बनाते है। देश सिर्फ भुगोल, एटलस और सरहदों से नहीं बनता है। देश बनता है लोगों से। लोगों की भावनाओँ से। राष्ट्रभक्ति से। राष्ट्रभक्ति अवसरों की मोहताज नहीं होती। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, या किसी क्रिकेट मैच का जश्न मनाते समय सिर्फ तिरंगा फहराने, कार के डंडों पर डैशबोर्ड पर तिरंगा लगाने की बानगी भी नहीं है।

सिर्फ अवसर तक सीमित नहीं है। देशभक्ति भावना है, सतत है, अविरल है। देश पहले है हम बाद में। लेकिन हमारे साथ समस्या ये भी है कि सबसे पहले हम। मंदिर में पूजा करने से लेकर पिक्चर के टिकट तक लाइन तोडने के लिए हम पैसे देने से हिचकना भी भूल गये हैं। फिर कहते हैं सिस्टम खराब है।

बात यह भी नहीं कि लोग ही खराब है सिस्टम परफेक्ट। पर परफेक्ट तो कोई भी सिस्टम नहीं है। जिस अमरीका के सिस्टम को ज्यादातर हम आदर्श बताते नहीं थकते वहां पर भ्रष्टाचार, हत्या बलात्कार, भ्रष्ट नेता, शिक्षा व्यवस्था की व्यापक गड़बडियां और रंगभेद जैसी समस्या है तो ब्रिटेन में संप्रदायवाद, पंथवाद, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी से जूझ रहा है। दरअसल वैश्विक व्यवस्था में समाज के साथ अब समस्याएं भी सरहदों की पाबंद नहीं है। रामराज्य तो कहीं नहीं हो सकता पर उनकी दुहाई देने वाले हम अपने अंदर कितना राम ला पाते हैं। राम बनने के लिए भगवान बनना जरुरी नहीं रामत्व का तत्व ही पर्याप्त है। ईमानदारी, गलत ना करना ना बर्दाश्त करना जैसे तत्व ही रामत्व की तरफ बढने वाले कदम हैं।

मौलिक अधिकारों के लिए मौलिक कर्तव्यों को भी निभाना जरुरी

हमने हमेशा मौलिक अधिकारों की बात जरुर की पर मौलिक कर्तव्यों को शतप्रतिशत मानना इसलिए जरुरी नहीं समझा क्योंकि उनके पालन ना करने से हमें सजा नहीं हो सकती। नागरिकों के मौलिक कर्तव्य 1976 में सरकार द्वारा गठित स्वर्णसिंह समिति की सिफारिशों पर, 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़े गए थे। मूल रूप से संख्या में दस, मौलिक कर्तव्यों की संख्या 2002 में 86वें संशोधन द्वारा ग्यारह तक बढ़ाई गई थी।

अन्य मौलिक कर्तव्य नागरिकों को कर्तव्यबद्ध करते हैं कि संविधान सहित भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों का समेमान करें, इसकी विरासत को संजोएं, इसकी मिश्रित संस्कृति का संरक्षण करें तथा इसकी सुरक्षा में सहायता दें। राष्ट्रीय स्मारकों पर लिखे हमारे आपके नाम, प्यार का इजहार, आने की तारीख का गोदना इस बात की गवाही दे रहा है कि हम अपनी विरासत के प्रति कितने सजग हैं। विदेशो में जाकर उनकी विरासत से अभिभूत क्या हमने कभी सोचा कि इस तरह की शिल्पकारी से हम क्या करने जा रहे है।

इसी तरह हमने पानी की किल्लत को कोसा तो बहुत है पर क्या कभी सड़क पर बहते हुए नल को दो मिनट रुककर बंद करने की कोशिश की। लाइट की कमी को हम हमेशा हाय तौबा करते हैं पर पूरे घर की लाइट जलाने को लेकर हमारे तर्क होते हैं कि हम बिजली का बिल चुका रहे है। जरुर चुका रहे हैं पर क्या ये बिजली सिर्फ हमारी है देश की नहीं। क्या अगर साल भर में हमने कुछ हजार यूनिट बचा लिए तो ये देश प्रदेश की बिजली के लिए हमारा योगदान नहीं होगा।

हमारा देश की भावना के साथ करना होगा काम

दरअसल उपभोक्तावाद और पैसे से सबकुछ खरीदने की ताकत ने गांव के कुएं को मारा, तालाबों को सुखा दिया यानी सार्वजनिक और सामाजिक दायित्व का दायरा अपार्टमेंट के अपने फ्लैट तक सीमित कर दिया। यहां पर इस तर्क का कदापि मतलब नहीं कि क्या अच्छा था क्या होना चाहिए पर सवाल यह है कि कब मैं और मेरी से बढकर हम, हमारा देश की भावना की तरफ चलेंगे।

देश में स्वच्छता को लेकर लोग जागरूक हुए हैं। लेकिन अभी भी बहुत से लोग स्वच्छता को किसी सरकार, पार्टी प्रयोजित मानते हैं। जापानी लोगों ने जो कतर में किया उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)



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Shashi kant gautam

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