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Tokyo Olympics 2020: भारत ने टोक्यो में दिखाया दम, शानदार रहा प्रदर्शन

Tokyo Olympics 2020: मुक्केबाजी, भारोत्तोलन, बैडमिन्टन, कुश्ती, भाला फेंक आदि स्पर्धाओं में खिलाड़ियों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Dharmendra Singh
Published on: 5 Aug 2021 10:45 PM IST (Updated on: 5 Aug 2021 10:56 PM IST)
Tokyo Olympics 2020
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टोक्यो ओलंपिक (फोटो: सोशल मीडिया)

Tokyo Olympics 2020: टोक्यो ओलिंपिक में भारत का सफर बढ़िया रहा है। मुक्केबाजी, भारोत्तोलन, बैडमिन्टन, कुश्ती, भाला फेंक आदि स्पर्धाओं में खिलाड़ियों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, लेकिन सबसे उल्लेखनीय हॉकी टीमें रही हैं। भारतीय पुरुष और महिला हॉकी टीमों ने कमाल का प्रदर्शन किया। महिला टीम तो पहली बार सेमीफाइनल तक पहुंच गयी जबकि पुरुष टीम ने तो 41 साल बाद ओलंपिक में ऐतिहासिक जीत हासिल करते हुए कांस्य पदक जीता। सिडनी ओलंपिक 2000 के बाद से यह पहला ऐसा अवसर है, जब हॉकी के दोनों वर्गों में एशिया से कोई देश सेमीफाइनल में पहुंचा हो।

भारत ने बीते वर्षों में खासकर हॉकी में बहुत बढ़िया काम किया है और इसके लिए विशेष तौर पर ओडिशा राज्य का योगदान रहा है जिसने न सिर्फ हॉकी टीमों को प्रायोजित किया बल्कि उनको बेहतरीन ट्रेनिंग व अन्य तरह की सुविधाएं प्रदान कीं। ओलिंपिक के इतिहास में अब तक भारत ने 9 स्वर्ण, 8 रजत और 15 कांस्य पदक जीते हैं और सबसे बढ़िया प्रदर्शन 2012 में रहा था जब भारत के खाते में कुल 6 पदक आये जिनमें से 2 रजत और 4 कांस्य पदक थे।


खेलों पर खर्चा
भारत में बीते कुछ वर्षों से खेलों पर ध्यान दिया जा रहा है वरना पहले कभी खेलों को प्रोमोट करने की गंभीर कोशिशें नहीं हुईं हैं। खेलों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट का ही बोलबाला है। भारत ने लगभग सभी ओलिंपिक खेलों में भाग लिया है लेकिन पदकों की दौड़ में हमेशा बहुत पीछे रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह खेलों पर ध्यान न दिया जाना, खेलों-खिलाड़ियों के लिए सुविधाओं की कमी और बहुत कम फंडिंग तथा खेलों पर राजनीति का हावी होना रहा है। अन्य देशों से तुलना करें तो 2012 के ओलिंपिक खेलों में ब्रिटेन द्वारा जीते गए एक–एक पदक की लागत 45 लाख पौंड आई थी।
-हर साल अमेरिका की ओलिंपिक कमेटी 40 से ज्यादा राष्ट्रीय खेल संघों को 5 करोड़ डालर से ज्यादा देती हैं। यदि किसी खेल में पदक नहीं जीता जाता है तो सम्बंधित खेल संघ की फंडिंग घटा दी जाती है।
- चीन ओलिंपिक खेलों में झंडे गाड़े रहता है लेकिन इसके पीछे सरकार की गंभीर मदद का हाथ है। 2016 के खेल प्रशासन को सरकार से 65 करोड़ डालर से ज्यादा की फंडिंग मिली थी जो 2011 की तुलना में 45 फीसदी ज्यादा थी।
- ऑस्ट्रेलिया भी खेलों पर बहुत ध्यान देता है और ओलिंपिक खेलों में उसका प्रदर्शन हर बार अच्छा रहता आया है। 2016 में ऑस्ट्रेलिया सरकार ने अपने खेल संघों के लिए 27 करोड़ 20 लाख डालर बजट दिया था।
- इन सब देशों की तुलना में भारत काफी पीछे है। खेलों पर तो वर्ष 2020-21 के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में कटौती ही कर दी गयी थी जबकि ये ओलिंपिक खेलों का वर्ष था। 2020-2021 के बजट में खेलों के लिए 2596.14 करोड़ दिए गए जबकि पिछले साल 2775.90 करोड़ की फंडिंग थी यानी 230.78 करोड़ रुपये कम कर दिए गए।
-वर्ष 2016 में सरकार का महत्वाकांक्षी 'खेलो इंडिया' प्रोग्राम लांच हुआ था लें लेकिन 2021 उनकी फंडिंग भी कम कर दी गयी। इस साल खेलो इंडिया के लिए 657.71 करोड़ रुपये दिए गए जबकि 2020 के बजट में 890.92 करोड़ था।

ओलिंपिक ट्रेनिंग पर भारत का खर्च

टोक्यो ओलिंपिक में भारतीय दल की तैयारी के लिए सरकार ने एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया था, कई भारतीय एथलीटों को ट्रेनिंग के लिए विदेशों में भेजा गया था। ओलिंपिक समेत अन्य इंटरनेशनल इवेंट्स में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की तैयारियों पर होने वाला खर्चा राष्ट्रीय खेल संघों को मिलने वाली सरकारी सहायता से उठाया जाता है। जिन खिलाड़ियों को पदक मिलने की संभावना है उनको 'टारगेट पोडियम स्कीम' (टॉप्स) के तहत तैयार किया जाता है। ये स्कीम राष्ट्रीय खेल विकास फण्ड के तहत चलाई जा रही है। 'टॉप्स' के लिए सरकार ने 54.26 करोड़ रुपये की फंडिंग की है। जबकि 2018-19 से अब तक खेल महासंघों को 711.46 करोड़ रुपये दिए गये हैं।

खेल महासंघों पर नेताओं का कब्जा

भारत में खेल महासंघों पर नियंत्रण की राजनीति दशकों पुरानी है। तमाम खेल मंत्रियों ने खेलों को नेताओं, अफसरों और माफियाओं के कब्जे से मुक्त कराने की कोशिशें कीं लेकिन महासंघों की सफाई न हो सकी। अदालतों के फैसले आये लेकिन कोई बदलाव नहीं आ सका है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खेल महासंघों की सफाई का लक्ष्य रखा था लेकिन कोई बदलाव आना अभी बाकी है। भारत के खेल महासंघों में 47 फीसदी अध्यक्ष राजनेता हैं। बाकी या तो खेलों के बिजनेस से जुड़े हैं या फिर ऐसे हैं जिनका कभी खेलों से कोई वास्ता नहीं रहा है।


हॉकी में कमाल का प्रदर्शन

भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने 1980 के बाद ओलंपिक में एक बार फिर कमाल का प्रदर्शन किया है। जर्मनी की ताकतवर टीम को 5-4 से हराकर भारतीय टीम ने कांस्य पदक पर कब्जा कर लिया। ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम ने आखिरी बार 1980 में गोल्ड मेडल जीता था मगर उसके बाद टीम का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा था। इस तरह भारतीय टीम ने 41 साल का सूखा खत्म करते हुए ओलंपिक खेल में मेडल जीतने में कामयाबी हासिल की है। भारतीय खिलाड़ियों के जोरदार खेल ने उस स्वर्णिम दौर की भी यादें ताजा कर दी हैं जब पूरी दुनिया के लोग भारतीय हॉकी टीम के शानदार प्रदर्शन के मुरीद थे। जानकारों का मानना है कि भारतीय टीम के इस शानदार प्रदर्शन के बाद अब आने वाले दिनों में एक बार फिर भारत के बुलंदी पर पहुंचने की आस जगी है।

49 साल बाद सेमीफाइनल तक पहुंचा भारत

टोक्यो ओलंपिक के दौरान भारतीय पुरुष हॉकी टीम का प्रदर्शन शानदार रहा है और भारतीय टीम 49 साल बाद ओलंपिक के सेमीफाइनल राउंड में पहुंचने में कामयाब हुई। 1972 के म्यूनिख ओलंपिक के बाद भारतीय हॉकी टीम पहली बार सेमीफाइनल दौर में पहुंचने में सफल हुई। इसके पहले भारत ने आखिरी बार 1980 के मास्को ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता था। लेकिन मास्को ओलंपिक में राउंड रॉबिन आधार पर मुकाबला आयोजित किया गया था। उस ओलंपिक के दौरान भारत ने छह टीमों के पूल में दूसरे स्थान पर रहने के बाद फाइनल का टिकट हासिल किया था और आखिरकार वासुदेवन भास्करन की अगुवाई में भारतीय टीम आखिरी बार गोल्ड मेडल जीतने में कामयाब हुई थी। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक के दौरान भारतीय टीम पांचवें स्थान पर रही थी।


स्वर्णिम इतिहास

1956 के ओलंपिक खेल में गोल्ड मेडल जीतने के बाद भारत की हॉकी टीम ने 1960 के ओलंपिक खेलों के दौरान सिल्वर मेडल जीता था। बाद के दिनों में भारत 1964 और 1980 के ओलंपिक खेलों में भी गोल्ड मेडल जीतने में कामयाब रहा जबकि 1968 और 1972 के ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम को कांस्य पदक हासिल हुआ था। भारतीय हॉकी टीम ने अपना आखिरी गोल्ड मेडल 1980 के मास्को ओलंपिक खेलों में जीता था। उस समय भारतीय टीम में वाराणसी के रहने वाले मोहम्मद शाहिद कमाल के खिलाड़ी थे जिन्होंने अपने खेल से दुनिया के अन्य देशों की टीमों को चौंका दिया था।

फिर बुलंदी पर पहुंचने की आस

1980 के बाद मौजूदा टोक्यो ओलंपिक के दौरान भारतीय हॉकी टीम ने एक बार फिर पदक जीता है। भारतीय पुरुष हॉकी टीम के कांस्य पदक जीतने पर पूरे देश में जश्न का माहौल दिख रहा है और सोशल मीडिया पर भारतीय टीम की जीत की खूब चर्चा हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भारतीय हॉकी टीम को इस जीत के लिए बधाई दी है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ये ऐतिहासिक दिन है और ये दिन हर भारतीय के जेहन में हमेशा मौजूद रहेगा। उन्होंने कहा कि भारत को अपनी हॉकी टीम पर गर्व है।
माना जा रहा है कि इस जीत के बाद भारतीय हॉकी टीम एक बार फिर और मजबूत बनकर उभरेगी और आगे और कामयाबी हासिल करेगी। जानकारों के मुताबिक इस जीत से भारतीय खिलाड़ियों का हौसला बुलंद हुआ है और इसका असर आगे के टूर्नामेंटों में भी दिखाई देगा।

टोक्यो में किन राज्यों के एथलीट

टोक्यो ओलिंपिक में भारत ने खिलाडियों का सबसे बड़ा दल भेजा है जिसमें 70 पुरुष व 55 महिला खिलाड़ी हैं। भारत के दल में जहाँ हरियाणा के 31 खिलाड़ी हैं, वहीं पंजाब के 16, तमिलनाडु के 12, केरल के 8, यूपी के 8, महाराष्ट्र के 7, कर्नाटक के 5, ओडीशा के 5, मणिपुर के 5, दिल्ली के 4, राजस्थान के 4, बंगाल, मध्यप्रदेश, और झारखण्ड के तीन-तीन, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश और गुजरात के दो-दो तथा असम, उत्तराखंड, हिमाचल, मिजोरम और सिक्किम के एक-एक खिलाड़ी हैं।


ओडिशा और नवीन पटनायक का साथ
उम्मीद जग गई है कि भारतीय हॉकी अतीत के अपने गौरव को फिर हासिल कर लेगी। इस उम्मीद के पीछे पीछे एक ही शख्‍स का हाथ है-ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक। ओडिशा में नवीन पटनायक की सरकार ने जब 2018 में हॉकी इंडिया के साथ पुरुष और महिला दोनों राष्ट्रीय टीमों को प्रायोजित करने के लिए पांच साल का करार किया था तब आलोचक हैरान रह गए थे। उनका सवाल था कि बार-बार प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने वाला यह गरीब राज्य क्या इस खेल के लिए सरकारी खजाने पर 100 करोड़ रुपये का खर्च वहन कर पाएगा। ठीक तीन साल बाद, ओडिशा सरकार ने सभी राष्ट्रीय और स्थानीय दैनिक अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन देकर घोषणा की- इस उल्लेखनीय यात्रा में हॉकी इंडिया के साथ भागीदारी करके ओडिशा को गर्व है। गर्व होता भी क्यों न, मौका ही ऐसा था। राष्ट्रीय पुरुष और महिला हॉकी टीमें तोक्यो ओलिंपिक में सेमीफाइनल में पहुंच गई थीं। नवीन पटनायक ने आलोचकों को माकूल जवाब देते हुए कहा है कि - खेल में निवेश युवाओं में निवेश है। उन्होंने कहा कि 'खेल में निवेश, युवाओ में निवेश' इस मंत्र ने ओडिशा का ध्यान हॉकी पर केंद्रित करवाया, जो एक तरह से जनजातीय आबादी के लिए जीवन जीने का तरीका है। पटनायक ने कहा, सुंदरगढ़ जिले के बच्चे हाथों में हॉकी स्टिक पकड़कर चलना सीखते हैं। उन्होंने कहा कि पांच साल तक प्रायोजक बनने का करार ओडिशा का राष्ट्र को तोहफा है। उन्होंने पांच सालों में प्रायोजन राशि को भी बढ़ाकर 150 करोड़ कर दिया है। टोक्यो ओलंपिक में खेल रही भारतीय हॉकी टीम की जर्सी पर ओडिशा लिखा हुआ है। वजह ये है कि जब राष्ट्रीय खेल को आयोजक की तलाश थी, तब नवीन पटनायक ही थे जो सामने आए। 2018 से ओडिशा भारतीय हाकी टीम की प्रायोजक है। उस वक्त सहारा कंपनी वित्तीय संकट से गुजर रही थी। बुरी स्थिति में पहुँच चुकी भारतीय हॉकी को नवीन पटनायक ने ही सहारा दिया था। उस वक्त टीम को स्पॉन्सर करने वाला कोई नहीं था। ओडीशा सरकार पिछले तीन वर्षों से पुरुष और महिला टीम को स्पॉन्सर कर रही है। 2018 में ओडिशा ने हॉकी वर्ल्ड कप की मेजबानी भी की थी। ओडिशा हर साल टीम को 20 करोड़ रुपये देता है। ओडिशा देश में किसी राष्ट्रीय टीम को स्पॉन्सर करने वाला इकलौता राज्य है।

गज़ब की शख्सियत

नवीन पटनायक भारतीय राज्य ओडिशा के 14 वें मुख्यमंत्री हैं। इनका जन्म 16 अक्टूबर 1946 को कटक में हुआ था। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा देहरादून के वेल्हम बॉयज़ स्कूल से पूरी की है जिसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज से कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपने पिताबीजू पटनायक के निधन के बाद नवीन पटनायक ने 1997 में राजनीति प्रवेश करने फैसला किया। 1998 में उन्होंने अपने पिता के नाम पर पार्टी बनाई और उसका नाम बीजू जनता दल रखा। उन्हें पहली बार मार्च 2000 में ओडिशा के मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया।
नवीन पटनायक करीब 21 साल से ओडिशा के मुख्यमंत्री हैं। विवादों और छिछली ओछी राजनीती से कोसों दूर। अपना कोई प्रचार नहीं। कहने को वे पेशेवर राजनेता हैं लेकिन उनकी राजनीति देश के बाकी परंपरागत नेताओं से एकदम विपरीत है। उन्हें यदाकदा ही कैमरे के सामने देखा जाता है। नवीन पटनायक एक रिटायर्ड व्यक्ति की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। इन सबके बीच जब चुनाव आता है तो राज्य की जनता आंख मूंदकर उन पर विश्वास जताती है। देश में इतने बड़े-बड़े मुद्दे होकर चले जाते हैं, लेकिन सौम्य नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले नवीन पटनायक का नाम कहीं नहीं उछलता। ओडीशा ने कोरोना महामारी पर बखूबी कंट्रोल किया है। लेकिन राज्य सरकार ने अपनी तारीफों के पुल नहीं बांधे। सब काम चुपचाप किया।
बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं होगा कि नवीन पटनायक दून स्कूल में पढ़ाई के समय गोलकीपर के रूप में हॉकी खेलते थे। नवीन पटनायक एक लेखक, कलाप्रेमी और चतुर राजनीतिज्ञ हैं। वे ऊपर से भले ही शांत दिखते हों लेकिन विरोधियों, पार्टी के बागियों के साथ ही कुदरती और सियासी तूफानों से निपटने का हुनर उन्हें बखूबी आता है और यही उनकी सफलता की कुंजी भी है।

भारत में हॉकी
भारतीय हॉकी की कहानी शुरू होती है वर्ष 1928 से जब फील्ड हॉकी को ओलंपिक आधिकारिक तौर पर पहली बार एम्स्टर्डम ओलंपिक 1928 में खिलाया गया, प्रारंभ में केवल 9 टीमों ने ही हिस्सा लिया था। तब भारत ने ब्रिटिश इंडिया के तौर पर खेल में भाग लिया था, जिसके कप्तान थे जयपाल सिंह मुंडा। इसी टीम में एक 23 वर्षीय ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सैनिक भी थे, जो बाद में हॉकी के सबसे प्रसिद्ध खिलाड़ी, 'हॉकी विज़र्ड' , मेजर ध्यानचंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। भारत ने इस ओलंपिक में 29 गोल अर्जित किए, जिसमें से अकेले ध्यानचंद ने 14 गोल किए।
इसी ओलंपिक से भारतीय हॉकी का पदार्पण हुआ। भारत ने 1928 से 1956 तक लगातार 6 ओलंपिक स्वर्ण पदक हॉकी में जीते, जिसे आज भी कोई तोड़ नहीं पाया है। भारत के विजय रथ पर लगाम लगी 1960 में, जब पाकिस्तान ने उसे 1-0 से हराया। लेकिन इसका प्रतिशोध भारत ने बड़ी शान से 1964 में लिया। भारतीय हॉकी को आंतरिक राजनीति की नजर लग गयी। 1960 के शुरुआत से नौकरशाही खेल प्रशासन में दखल देने लग गई थी। इसके साथ साथ गुटबाजी को अधिक महत्व दिया जाने लगा, और योग्यता को कम। इसका असर तब दिखा, जब पृथिपाल सिंह को गुरबक्श सिंह के स्थान पर कप्तान बनाया गया, और फिर गुरबक्श के विरोध करने पर दोनों को संयुक्त कप्तान बनाया गया। इतना ही नहीं, जिस व्यक्ति के कारण भारत ने अपना सातवां ओलंपिक गोल्ड मेडल जीता था, उस प्रख्यात गोलकीपर, और 1966 एशियाई खेल के विजेता टीम के कप्तान, शंकर लक्ष्मण शेखावत को टीम में शामिल ही नहीं किया गया।
भारतीय खेल में प्रशासन की लापरवाही इस हद तक व्याप्त थी कि जो कार्बन फाइबर आधारित हॉकी स्टिक भारतीय खिलाड़ियों को 1990 के प्रारंभ में ही मिलने चाहिए थे, वे उन्हें 2000 के प्रारंभ तक नहीं मिले। इस कारण से भारतीय टीम के प्रदर्शन का स्तर गिरा, और एक समय पर पुरुष टीम की रैंक 13 वें स्थान पर पहुँच चुकी थी। बैंकॉक एशियाई खेल 1998 में भारत ने धनराज पिल्लई के नेतृत्व में 32 वर्ष बाद स्वर्ण पदक जीता, लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हे सिर्फ इसलिए टीम से हटा दिया गया, क्योंकि उन्होंने खिलाड़ियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग की।
हॉकी फेडरेशन में भ्रष्टाचार के दुष्परिणाम 2008 में स्पष्ट तौर पर सामने आए। तब पहली बार पुरुष टीम बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालिफ़ाई करने में असफल रही थी। इंडियन हॉकी फेडरेशन से जुड़ा एक स्टिंग ऑपरेशन वीडियो भी सामने आया, जिसमें फेडरेशन के उपाध्यक्ष, के ज्योतिकुमारन रंगे हाथों घूस लेते हुए पकड़े गए थे। फलस्वरूप 2010 में एक नए संगठन का गठन हुआ, हॉकी इंडिया का। लेकिन हॉकी इंडिया भी प्रारंभ में कोई विशेष कमाल नहीं दिखा पाया। वर्ष 2014 हॉकी की ओर ध्यान आकर्षित हुआ ओडिशा सरकार का और उसके बाद से भारतीय हॉकी के दिन बदल गए जिसका नतीजा आज हमारे सामने है।




Dharmendra Singh

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