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धरती की सबसे ऊंची साझी बस्ती से देखा एवरेस्ट का शर्मीला चेहरा, फहराई पताकाएं
Govind Pant Raju
लखनऊ: तू रख हौसला वो मंजर भी आएगा,
प्यासे के पास चलकर समंदर भी आएगा...
थक हार के ना रुकना ऐ मंजिल के मुसाफिर,
मंजिल भी मिलेगी, मिलने का मजा भी आएगा...
मंजिल ज्यादा दूर नहीं थी और एवरेस्ट से फासले सिमटते जा रहे थे। इससे पहले की कापियों में दोस्तों आप भी मेरी रोमांचक यात्राओं का मजा ले चुके हैं। तो चलिए ले चलते हैं आपको आगे के सफर पर...
एवलांच के अनुभव के थोड़ी देर बाद हम उस रिज पर पहुंच गए, जहां से एवरेस्ट बेस कैम्प का विहंगम दृश्य हमारे सामने था। अब हम एवरेस्ट के इतने करीब आ गए थे कि उसका शर्मीला चेहरा हम आंखों में आंखें डाल कर पढ़ सकते थे। एवरेस्ट से नीचे उतरी बर्फ की जमी हुई नदी खुम्भू ग्लेशियर के रूप में हमारे सामने थी और उस पर चमक रहे थे एवरेस्ट आरोहण के लिए आए अलग देशों के, अलग-अलग भाषाओं वाले, अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं वाले आरोहियों के तम्बुओं की साझी बस्ती। पीले, नीले, गुलाबी और लाल आदि तरह तरह के रंगों के अलग-अलग आकार प्रकार के छोटे-बड़े दर्जनों टेंट हमें आधार शिविर के डेढ़ किलोमीटर से ज्यादा लंबे इलाके में जहां-तहां बिखरे हुए दिखाई दे रहे थे। ज्यादातर टेंट छोटे-छोटे समूहों के रूप में दिखाई दे रहे थे।
( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )
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एवरेस्ट बेस कैम्प में हर टीम अपने सभी सदस्यों के साथ साथ रहने के लिए पूरी टीम के टेंट एक ही जगह पर लगाने का प्रयास करती हैं क्योंकि खुम्भू ग्लेशियर की पथरीली और हिम दरारों से भरी सतह बहुत उबड़ खाबड़ है। इसलिए टीम के 20-30 टेंट भी एक साथ नहीं लग पाते, इस कारण पूरी टीम के टेंट एक समूह में होते हुए भी एक साथ नहीं होते। पूरे एवरेस्ट बेस कैम्प क्षेत्र में जिसे जहां पर थोड़ी सी भी जगह मिल जाती है। वो अपने लायसन ऑफिसर की सलाह से वहीं पर अपने टेंट लगा लेता है। आम तौर पर किचन टेंट आरोहियों के टेंट से थोड़ा हट कर लगाया जाता है। इसी तरह टायलेट टेंट भी काफी दूर लगता है। प्रायः अलग-अलग देशों की टीम के टेंट समूहों की पहचान उनके बाहर लगे झण्डों से हो जाती है।
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कुछ देर मंत्रमुग्ध होकर हमने नीचे उतरना शुरू कर दिया। यहां से नीचे उतरते ही हम बेस कैम्प के इलाके में पहुंच गए थे और वहां पर हमें ढीली चट्टानों और बड़े-बड़े अस्थिर पत्थरों के बीच चलना था। कहीं-कहीं एकदम ठोस फिसलन भरी बर्फ भी पावों के नीचे आ जाती थी। पूरे इलाके में क्रेवास बिखरी हुई थीं। इस कारण हमें बहुत ही सावधानी के साथ चलना पड़ रहा था। करीब आधे घंटे बाद हम एवरेस्ट बेस कैम्प के उस स्थान तक पहुंच चुके थे। जिसे एवरेस्ट बेस कैम्प का प्रतीक माना जाता है। यह स्थान थोड़ी ऊंचाई पर था और यहां पर एक बड़े शिलाखण्ड के साथ बहुत से छोटे-छोटे पत्थर जमा थे।
आगे की स्लाइड में जानिए किस तरह पर्वतारोही करते हैं पूजा
बीसियों बौद्ध ध्वजाओं के अलावा कई अन्य तरह के झण्डे, प्रतीक चिन्ह और रंगीन पताकाएं वहां पर फहरा रहीं थीं। एवरेस्ट आरोहण के लिए जाने वाली हर टीम के सदस्य यहां पर झण्डियां चढ़ा कर, अपनी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर प्रार्थना करते हैं। शेरपा लोग भी यहां पर अनिवार्य रूप से धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। एवरेस्ट की धूसर, भूरी, सिलेटी बर्फ के महासमुद्र में खुम्भू की तीखी हवाओं से फहराती बौद्ध पताकाएं अपने चटख रंगों के कारण इस वीराने में एक अलग ही तरह की स्फूर्ति का संचार करती रहती हैं।
आगे की स्लाइड में जानिए किस तरह मेरी टीम ने किया प्रसाद का इंतजाम
हमने भी यहां पर प्रार्थना की। एवरेस्ट के इलाके में शांति की नींद सोए तमाम पर्वतारोहियों, शेरपाओं व अन्य लोगों की स्मृति में कुछ देर मौन रखा और फिर एवरेस्ट के प्रति आभार प्रकट किया कि उसने हमें यह शानदार मौका दिया। राजेन्द्र की दीदी ने हमें दिल्ली से चलते वक्त ड्राई फ्रूट्स का एक बैग दिया था। उसी को हमने अब तक बचा के रखा था और वही हमारा प्रसाद था। थोड़ा सा प्रसाद वहां पर छोड़ कर हमने वहां मौजूद विभिन्न देशों के लगभग 30 अन्य पर्वतारोहियों को भी वो प्रसाद बांटा। हिमालय की उस ऊंचाई में कई देशों के नागरिकों ने उस प्रसाद का स्वाद चख कर हमारे आनन्द को द्विगुणित कर दिया।
आगे की स्लाइड में जानिए किस तरह जाहिर की हम लोगों ने अपनी खुशी
यहां आकर अरूण सिंघल पर ऊंचाई को हल्का सा असर दिखने लगा था क्योंकि उसका व्यवहार अचानक उत्तेजनापूर्ण हो गया था। मन तो मेरा भी कर रहा था कि जोर-जोर से चीख कर अपना उल्लास प्रकट करूं और एवरेस्ट का आभार करूं लेकिन पर्वतारोहण के नियमों और एवरेस्ट की असीम शांति ने मुझे अनुशासन में बांधे रखा और मैंने आंखें बंद कर पूरी शांति के साथ खुद को एवरेस्ट की असीम शांति के साथ एकाकार कर लेना ज्यादा उचित समझा। काफी देर बाद मैं इस आत्म साक्षात्कार से उठा और एवरेस्ट की धरती को नमन किया, चूमा और दोनों हथेलियों को बर्फ पर रख कर स्पर्श का आनन्द लेने लगा।
आगे की स्लाइड में जानिए और क्या देखा हमने उस ऊंचाई पर
एवरेस्ट बेस कैम्प में हमने कुछ अन्य दलों के सदस्यों से बातचीत करने का प्रयास किया। आसपास के इलाके में काफी देर घूमते रहे। ताशी वहां मौजूद भारतीय सेना के अभियान दल के लोगों से मिलना चाहता था। मगर वे लोग भी नहीं मिल पाए। हम वहां बने हेली पैड तक भी गए। ग्लेशियर के बीच में जरा सी ऊंची जगह पर कुछ पत्थरों को बिछा कर बना यह छोटा सा हैलीपैड एवरेस्ट इलाके में आपातकालीन स्थिति में बचाव या मदद के लिए आने वाले हेलिकॉप्टरों के काम आता है। बहुत से आरोही अब वापसी की यात्रा के लिए भी हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल करने लगे हैं। हम खुम्भू ग्लेशियर के कुछ खतरनाक इलाकों पर भी गए। हम और ऊपर तक चढ़ना चाहते थे मगर एवरेस्ट की गोद से उठे काले बादल काफी नीचे उतर आए थे। इसलिए हमने और ऊपर चढ़ने का इरादा छोड़ दिया।
आगे की स्लाइड में जानिए क्या लिया हमने वहां से स्मृति चिन्ह
बादलों के कारण बेस कैम्प क्षेत्र में मौसम एकाएक ठण्डा हो गया था और हमें अपने सारे गर्म आवरण एक साथ इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था। कांपते हाथों से हमने ग्लेशियर से कुछ बहुत छोटे-छोटे पत्थर उठाए। एवरेस्ट की चट्टानों के ये छोटे-छोटे टुकड़े हमारे लिए एवरेस्ट की स्मृतियों के चिन्ह भी थे और अपने अभियान की यादों के प्रतीक भी। हम खुद अपने ध्वज, अपने और अपने परिजनों के नाम लिखी पताकाएं वहां पर छोड़ रहे थे। गौमुख और अंटार्कटिका का एक एक छोटा सा पत्थर भी मैने वहां पर छोड़ दिया जिन्हे मैं खास तौर पर इसी लिए लाया था। एवरेस्ट हमारी स्मृतियों में और तस्वीरों में हमारे साथ जा रहा था और हम अपनी उपस्थिति का अहसास वहां पर छोड़ रहे थे।
गोविंद पंत राजू