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गणगौर: राजस्थानी परंपरा को समेटे सुहागिनों का अनूठा लोकपर्व

suman
Published on: 11 March 2018 9:41 AM IST
गणगौर: राजस्थानी परंपरा को समेटे सुहागिनों का अनूठा लोकपर्व
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जयपुर:राजस्थान में बहुत से त्योहार मनाए जाते है, जो वहां की संस्कृति को परिलक्षित करते है। नवरात्रि के तीसरे दिन यानी की चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता यानि की मां पार्वती की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता और भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है।

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क्यों मनाते हैं?

ये पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाता है, इसे गौरी तृतीया भी कहते हैं। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से कुंवारी और सुहागिनें हर दिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी में जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन शाम के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। इस व्रत के करने से सुहागिनों का सुहाग अखण्ड रहता है।

होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से 16 दिवसीय गणगौर पूजा का पर्व शुरू होता है। इस पर्व के दिनों में कुंआरी और विवाहित महिलाएं, नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं और वे चैत्र शुक्ल द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं।

चैत्र शुक्ल तृतीया का दिन गणगौर पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व विशेष तौर पर केवल सुहागिन महिलाओं के लिए ही होता है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वतीजी को और पार्वतीजी ने समस्त स्त्री-समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। इस दिन सुहागिनें दोपहर तक व्रत रखती हैं। ‍स्त्रियां नाच-गाकर, पूजा-पाठ कर हर्षोल्लास से यह त्योहार मनाती हैं। कुंआरी कन्याएं भी सुयोग्य वर पाने के लिए गणगौर माता का पूजन करती है। इस वर्ष गणगौर का पर्व 20 मार्च 2018 को मनाया जाएगा यानी चैत्र शुक्ल नवरात्रि की तृतीया तिथि को सोलहवें दिन गणगौर पर्व के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन महिलाएं अपने सुहाग की लंबी उम्र के लिए सोलह श्रृंगार कर गणगौर पर्व मनाएंगी। यह व्रत विवाहित महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है और कुंआरी कन्याओं को मनपसंद जीवनसाथी मिलता है।

कैसे मनाते हैं?

चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को सुबह स्नान करके गीले वस्त्रों में ही रहकर घर के किसी पवित्र स्थान पर लकड़ी की बनी टोकरी में जवारे बोना चाहिए। इस दिन से विसर्जन तक व्रती को एक समय भोजन (एकासना ) करना चाहिए। इन जवारों को ही देवी गौरी और शिव या ईशर का रूप माना जाता है।इस दौरान सुहागिनें 16 श्रृंगार की सामग्री को चंदन, धूप, नैवेद्यादि से विधिपूर्वक पूजन कर गौरी को अर्पण करती है। इसके बाद गौरी जी को भोग लगाया जाता है। फिर कथा सुनकर चढ़ाए हुए सिंदूर से विवाहित स्त्रियां मांग भरती है।

गणगौर कथा

प्राचीन समय में पार्वती ने भगवान शिव को पति ( वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान मांगने को कहा- पार्वती ने उन्हें वर रूप में पाने की इच्छा जाहिर की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और उनसे शादी हो गई। बस उसी दिन से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है ।

सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी उम्र के लिए पूजा करती हैं। गणगौर की पूजा चैत्र मास में की जाती है। स्त्रियां 16 दिन तक सुबह जल्दी उठकर बाग-बगीचे में जाती हैं दूब और फूल लेकर आती हैं । उस दूब से दूध के छीटें मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती हैं। थाली में दही, पानी, सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है। जहां पूजा की जाती उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहां विसर्जित की जाती है उस स्थान को ससुराल माना जाता है ।

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पहला गणगौर मायके में

राजस्थान में गणगौर में मैदे का गुना बनता है। इसे ही चढ़ाया जाता है। नवविवाहित लड़िकयां पहली बार गणगौर मायके में मनाती है। फिर इसी गुने और सास के बायने के साथ ससुराल विदा हो जाती हैं। राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर। मतलब कि सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर 4 महीने का विराम लग जाता है।



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