TRENDING TAGS :
गले पर खंजर और तीन दिन की प्यास, ऐसी नमाज ना हुई फिर कर्बला के बाद
लखनऊ : मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है। इस महीने के साथ इस्लामिक इतिहास की दो बड़ी घटनाएं जुड़ी हैं। आज हम इन्हीं दोनों घटनाओं के बारे में बात करेंगे।
ये भी देखें : एक ही पंडाल पर गणेश पूजा और मुहर्रम मना रहे हिंदू-मुस्लिम, पेश की गंगा यमुना तहजीब की मिसाल
मुहर्रम का इतना महत्व क्यों है
इस्लामी वर्ष यानी हिजरी सन का पहला महीना है मुहर्रम। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस मास में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, यानी हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के कौल (कथन) व अमल (कर्म) से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। ऐसे ही हजरत मुहम्मद ने एक बार मुहर्रम का जिक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा। इसे जिन चार पवित्र महीनों में रखा गया है, उनमें से दो महीने मुहर्रम से पहले आते हैं। यह दो मास हैं जीकादा व जिलहिज्ज।
एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। इस्लामी यानी हिजरी सन का पहला महीना मुहर्रम है।
इत्तिफाक की बात है कि आज मुहर्रम का यह पहलू आमजन की नजरों से ओझल है और इस माह में अल्लाह की इबादत करनी चाहिए। जबकि पैगंबरे-इस्लाम ने इस माह में खूब रोजे रखे और अपने साथियों का ध्यान भी इस तरफ आकर्षित किया। इस बारे में कई प्रामाणिक हदीसें मौजूद हैं।
मुहर्रम की 9 तारीख को जाने वाली इबादतों का भी बड़ा सवाब बताया गया है। हजरत मुहम्मद के साथी इब्ने अब्बास के मुताबिक हजरत मुहम्मद ने कहा कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख का रोजा रखा। उसके दो साल के गुनाह माफ हो जाते हैं। तथा मुहर्रम के एक रोजे का सवाब (फल) 30 रोजों के बराबर मिलता है। गोया यह कि मुहर्रम के महीने में खूब रोजे रखे जाने चाहिए। यह रोजे अनिवार्य यानी जरूरी नहीं हैं, लेकिन मुहर्रम के रोजों का बहुत सवाब है।
अलबत्ता यह जरूर कहा जाता है कि इस दिन अल्लाह के नबी हजरत नूह (अ.) की किश्ती को किनारा मिला था।
ये भी देखें : वीडियो-‘क्या हक अदा करेगा ज़माना हुसैन का’: लखनऊ में मुहर्रम जुलूस, खास अंदाज
मुहर्रम और आशुरा
मुहर्रम महीने के 10वें दिन को 'आशुरा' कहते है। आशुरा के दिन हजरत रसूल के नवासे हजरत इमाम हुसैन को और उनके परिवार को कर्बला में शहीद कर दिया गया था।
इस बार मुहर्रम 11 सितंबर से 9 अक्टूबर तक है। जैसा कि हमने ऊपर बताया कि 10वें दिन का खास महत्व है। इसी दिन इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने शहादत दी थी।
अब जानिए कर्बला के बारे में
कर्बला इराक की राजधानी बगदाद से 120 किमी दूर है। कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का,मदीना के बाद सबसे पवित्र स्थान है यहां इमाम हुसैन की कब्र है।
अब जानिए हुसैन के बारे में
सुन्नियों के चौथे खलीफा और शियाओं के पहले इमाम हजरत अली के बेटे थे हुसैन। हुसैन पैगंबर मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के बेटे थे। वो जब 6- 7 वर्ष के थे तभी उनके सिर से मां का साया उठ गया।
इस्लामिक इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है कि कर्बला का युद्ध दो शहजादों का युद्ध नहीं बल्कि न्याय और अन्याय का युद्ध था। इसमें एक तरफ हुसैन थे। दूसरी तरफ यजीद था। हुसैन चाहते थे, वो दीन-ए-इस्लाम चले। जो उनके नाना ने चलाया था। लेकिन खलीफा यजीद चाहता था कि सबकुछ उसके मुताबिक हो।
यजीद ने हुसैन से कहा, उन्हें संधि कर लर्नि चाहिए और मेरा साथ देना चाहिए। लेकिन हुसैन ने उसकी बात नहीं मानी। उन्होंने कहा हक की बात करूंगा। कुरान में जो लिखा है उसकी बात करूंगा। अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब उसके पैगंबर हैं। इसके बाद यजीद हुसैन को अपना दुश्मन मानने लगा।
ये भी देखें : मोहर्रम स्पेशल: 300 साल पुरानी सोने-चांदी की ताजिया, हिंदू धर्म के लोगों के लिए बना श्रद्धा का केंद्र
कर्बला की जंग, जो आज भी दिल दहला देती है
हुसैन जब कर्बला पहुंचे थे, उस समय उनके काफिले में औरतें, बच्चे और बूढ़े थे। हुसैन का काफिला 2 मोहर्रम को कर्बला पहुंचा। 7 मोहर्रम को यजीद ने नदी पर पहरा लगवा दिया और हुसैन के काफिले के लिए पानी बंद कर दिया। हुसैन को समझ आ चुका था यजीद अब किसी भी हद से गुजरने को तैयार है।
9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने अपने खेमे में सभी को बुलाया और कहा, ‘मैं किसी के साथियों को अपने साथियो से अधिक वफादार और बेहतर नहीं समझता। कल के दिन (10 मोहर्रम को) हमारा दुश्मनों से मुकाबला है। मैं तुम सब को खुशी-खुशी इजाजत देता हूं कि तुम यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी। अंधेरा इसलिए कर दिया है ताकि तुम बिना मेरा सामना किए चले जाओ। ये सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं। जो मुझे छोड़ कर जाएगा उसे कुछ नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने रौशनी बुझा दी। कुछ देर बाद जब उन्होंने रौशनी की तो सभी साथ मौजूद थे कोई भी उन्हें छोड़ कर नहीं गया।
इसके बाद 10 मोहर्रम की सुबह हुई। अजान दी गई तो हुसैन ने सभी को नमाज पढ़ाई। यजीद की फ़ौज ने तीरों की बारिश कर दी। आकाश तीरों से काला पड़ गया। उनके साथी ढाल बन तीरों का सामना कर रहे थे। सारे तीरों को अपने जिस्म पर रोक लिया, हुसैन ने नमाज़ पूरी की।
दिन ढलने तक हुसैन के 72 साथी शहीद हो चुके थे। इनमें हुसैन और उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम शामिल थे।
ये भी देखें :देखें वीडियो और तस्वीरें: आ गया माह-ए-मोहर्रम, गमजदा हुए अकीदतमंद, निकला जुलूस
हुसैन और अली असगर की दर्दनाक शहादत
यजीद की फौज दरिया पर पहरा दे रही थी। हुसैन के खेमें में बच्चों और औरतों का प्यास से बुरा हाल था। सभी को पानी की तलब थी। प्यास की वजह से छह महीने का अली बेहोश हो गया। हुसैन ने अली को गोद में उठाया और दरिया की तरफ चल पड़े जहां फ़ौज पहरा दे रही थी।
हुसैन ने फौज से कहा कि तुम्हारी नजर में हुसैन गुनाहगार है इस मासूम ने क्या बिगाड़ा है। इसको अगर दो बूंद पानी मिल जाए तो इसकी जान बच जाए। यजीद ने हुर्मला को हुक्म दिया कि देखता क्या है? हुसैन के बच्चे को ख़त्म कर दे। हुर्मला ने कमान को संभाला. तीन धार का तीर कमान से निकला और हुसैन की गोद में अली असगर की गर्दन पर लगा। तीर गर्दन से पार होकर हुसैन के बाजू में लगा। अली ने हुसैन की गोद में दम तोड़ दिया।
जब 71 शहीद हो गए तो यजीद ने शिम्र को हुसैन की गर्दन चाक करने का आदेश दिया। कहा जाता है कि जिस खंजर से हुसैन के सिर को जिस्म से जुदा किया, वो कुंद का था। शिम्र ने उनकी गर्दन पर खंजर चलाया तो हुसैन का सिर सजदे में था।
इसके बाद जो औरतें और बच्चे बचे यजीद ने उन्हें जेल में डलवा दिया। मुस्लिम मानते हैं कि यजीद ने अपनी सत्ता को कायम करने के लिए हुसैन पर जुल्म किए थे। इन्हीं की याद में शिया मुस्लिम मोहर्रम में मातम करते हैं और अश्क बहाते हैं। मातमी जुलूस निकाल खुद को जख्मी कर दुनिया को उन ज़ुल्मों को याद दिलाते हैं जो हुसैन और उनके परिवार से झेले थे।
ताज़िया का जुलूस
12वीं शताब्दी में गुलाम वंश के पहले शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली में इस मौके पर ताजिए निकाले जाते रहे हैं। इस दिन शिया मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताजिया निकालते हैं। भारत के कई शहरों में मोहर्रम में शिया मुसलमान मातम मनाते हैं लेकिन लखनऊ इसका मुख्य केंद्र रहता है।