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इस शक्तिपीठ में त्रेतायुग से जल रही है लौ, देवी का है नेपाल से भी संबंध
जयपुरः तुलसीपुर क्षेत्र में स्थित 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ देवीपाटन का अपना एक अलग ही स्थान है। मान्यताओं और पौराणिक कथाओं के आधार पर इस शक्तिपीठ का संबंध देवी सती, भगवान शंकर, गोरक्षनाथ के पीठाधीश्वर गोरखनाथ जी महाराज सहित दान वीर कर्ण से है। यह शक्तिपीठ सभी धर्म जातियों की आस्था का केन्द्र है। यहां देश विदेश से तमाम श्रद्धालु माता के दर्शन को आतें हैं। ऐसी मान्यता है कि माता के दरबार में मांगी गर्इ हर मन्नत पूर्ण होती है।
पौराणिक मान्यताएं
मान्यताओं के अनुसार देवी सती ने पिता दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर के हुए अपमान के कारण यज्ञ कुण्ड में अपने शरीर को समर्पित कर दिया था। इससे भगवान शिव इतने क्रोधित हुए कि देवी सती के शव को लेकर तांडव करने लगे। तांडव देखकर सभी देवताओं सहित तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवताओं के आग्रह पर भगवान विष्णु ने भगवान शंकर के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को छिन्न भिन्न कर दिया। देवी सती के शरीर के अंगो का भाग जहां जहां गिरा वहां वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुर्इ। मान्यताओं के अनुसार तुलसीपुर क्षेत्र में ही देवी सती का वाम स्कन्द पट के साथ गिरा था, इसीलिए इसका नाम पाटन पड़ा और यहां विराजमान देवी को मां पाटेश्वरी के नाम से जाना जाता है।
मां पाटेश्वरी का नेपाल से है रिश्ता
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मां पाटेश्वरी के परम भक्त और सिद्ध महात्मा श्री रतननाथ हुआ करते थे। जो अपनी सिद्ध शक्तियों की सहायता से एक ही समय में नेपाल राष्ट्र के दांग चौखड़ा और देवीपाटन में विराजमान मां पाटेश्वरी की एक साथ पूजा किया करते थे। उनकी तपस्या और पूजा से प्रसन्न होकर मां पाटेश्वरी ने उन्हें वरदान दिया कि मेरे साथ अब आपकी भी पूजा होगी। अब आपकों आने की आवश्यकता नहीं है, अब आपकी सवारी आएगी। नेपाल राष्ट्र से भारत के देवीपाटन तक आने के लिए रतननाथ की सवारी चैत्र नवरात्रि में द्वितीया के दिन देवीपाटन के लिए प्रस्थान करती है, जो पंचमी के दिन देवीपाटन पहुंचकर अपना स्थान ग्रहण करती है।
पहले दिन कलश स्थापना के साथ मां के इस रुप की पूजा, करें मंंत्र जाप
त्रेता युग से जल रहा है अखंड धूना
शक्तिपीठ के गर्भ गृह में एक अखंड धूना भी प्रज्जवलित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार गोरखनाथ जी महाराज ने त्रेता युग में मां पाटेश्वरी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी और एक अखंड धूना प्रज्जवलित किया था। जो त्रेता युग से आज तक जल रहा है। इस गर्भ गृह में सिर पर बिना कपड़ा रखे प्रवेश वर्जित रहता है।
दानवीर कर्ण ने किया था स्नान
मंदिर के उत्तर की तरफ एक विशाल सूर्यकुण्ड है। ऐसी मान्यता है कि महाभारत के समय में कर्ण ने यहीं पर स्नान किया था और सूर्य का अर्घ दिया था। इसीलिए इस कुण्ड को सूर्य कुण्ड के नाम से जाना जाता है। मां पाटेश्वरी को प्रसन्न करने के लिए उनके द्वार पर नर्तकी का नृत्य और गायन भी अपना एक अलग महत्व रखता है। मां पाटेश्वरी के दरबार में दर्जनों नर्तकी बिना किसी स्थायी लाभ के स्वेछा से पौराणिक गायन व नृत्य करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इन नर्तकियों के ऐसा करने से मां प्रसन्न होती हैं।
लगता है मेला
देश के 51 शक्तिपीठों में एक विश्वविख्यात मां पाटेश्वरी देवी मंदिर में नवरात्रि के प्रथम दिन से एक मास तक लगने वाले विशाल मेले की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। यहां सर्कस, झूला, थिएटर, बुक स्टाल सहित अनेक दुकानें लगती हैं। मंदिर के महंथ कहते हैं कि वर्षों पुरानी परंपरा है, इसीलिए मां के दरबार में मेले का आयोजन होता है। जहां लाखों लोग दर्शन को आते हैं। मेले के दौरान प्रशासन का भरपूर सहयोग मिलता है।