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अगर यहां करेंगे पूर्वजों का श्राद्ध तो पितृ-मातृ ऋण से हो जाएंगे मुक्त, क्या जानते हैं आप?
लखनऊ: जिन लोगों की मृत्यु सामान्य तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृ पक्ष की त्रयोदशी और अमावस्या को किया जाता है। जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है।
सुहागिनों का श्राद्ध नवमी को
सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा अथवा आश्विन में कृष्ण पक्ष की अमावस्या को किया जाता है। नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है।
इस तरह पूर्वजों के ऋण से होगी मुक्ति
पितरों के श्राद्ध के लिए 'गया' को सर्वोत्तम माना गया है, इसे "तीर्थों का प्राण" तथा ‘पांचवा धाम’ भी कहते हैं। माता के श्राद्ध के लिए काठियावाड़ में 'सिद्धपुर' को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को 'मातृगया' के नाम से भी जाना जाता है। गया में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से और सिद्धपुर में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
ब्राह्मण को भोजन कराएं
श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण के पैर धोकर आदर सहित आसन पर बैठाना चाहिए। तर्जनी से चंदन-तिलक लगाना चाहिए। श्राद्धकर्म में अधिक से अधिक तीन ब्राह्मण पर्याप्त माने गये हैं। श्राद्ध के लिए बने पकवान तैयार होने पर एक थाली में पांच जगह थोड़े-थोड़े सभी पकवान परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन, तिल ले कर पंचबलि (गाय, कुत्ता, कौआ, देवता, पिपीलिका) के लिए संकल्प करना चाहिए।
पंचबलि निकालकर कौआ के निमित्त निकाला गया। अन्न कौआ को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को और अन्य सभी अन्न गाय को देना चाहिए। उसके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के बाद उन्हें अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दक्षिणा आदि देकर तिलक कर चरणस्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मणों के प्रस्थान उपरांत परिवार सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए।
श्राद्ध के लिए शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता तथा तीन पीढि़यों से विख्यात ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए। योग्य ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण की जगह किसी अन्य को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्ध भोक्ता को भी प्रथम निमंत्रण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण को मौन धारण कर भोजन करना चाहिए तथा हाथ के संकेत द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए।
इन ब्राह्मण को ना करें शामिल
विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
संध्याकाल में ना करें श्राद्ध
श्राद्धकर्ता को हर दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नान के बाद तर्पण करना चाहिए। श्राद्धकर्म में दौहित्र (पुत्री का पुत्र), कुतप, काले तिल एवं कुश अत्यन्त पवित्र माने गये है। संध्या और रात्रि के समय श्राद्ध नहीं करना चाहिए, किंतु ग्रहण काल में रात्रि को भी श्राद्ध किया जा सकता है। गया, गंगा, प्रयाग, कुरुक्षेत्र तथा अन्य प्रमुख तीर्थों में श्राद्ध करने से पितर सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्धकर्म से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा प्रसन्न एवं तृप्त पितरों के आर्शीवाद से हमें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।