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जानें क्यों इस मंदिर में बंद आंखों से कराया जाता है देवी का स्नान?
सहारनपुर: देवी दुर्गा के सभी रूपों की पूर्जा अर्चना की जाती है। देश के अलग-अलग भागों में उनके अलग-अलग स्वरुपों का पूजन होता है। सहारनपुर जनपद मुख्यालय से 46 किलोमीटर दूर स्थित देवबंद नगर। यहां देवी मां के बाला सुंदरी रूप की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि मां गौरी (सती) का यहां पर गुप्तांग गिरा था, इसलिए यहां पर शक्तिपीठ की स्थापना हुई और देवी दुर्गा मां बाला सुंदरी देवी कहलाई। देश को कोने-कोने से भक्त मां के दरबार में आते है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राज दक्ष ने यज्ञ कराया तो सती और उनके पति भगवान शकंर को आमंत्रित नहीं किया। देवाधिदेव शंकर के इस अपमान से लज्जित होकर गौरा देवी इस यज्ञ के दौरान सती हो गई थी और भगवान शंकर उनके पार्थिव शरीर को ही गोद में उठा कर तीनों लोकों का भ्रमण कर रहे थे। तब भगवान विष्णु ने भगवान शंकर का मां गौरी से ध्यान हटाने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से मां गौरी के पार्थिव शरीर के टुकड़े कर दिया था। उस वक्त जहां-जहां मां सती के पार्थिव शरीर के अंग गिरे, वहां-वहां पर शक्ति पीठों की स्थापना हुई। इसी तरह देवबंद में मां गौरी का गुप्तांग गिरा था।
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आती है आंधी, होती है बरसात
देवी दुर्गा के त्रिपुर मां बाला सुंदरी के विराजमान होने के प्रमाण इसी बात से मिलते हैं कि जब मां देवी यहां स्थित मंदिर में प्रवेश करती है तो तेज आंधी आती है और बहुत बारिश होती है। हिंदू शक सम्बत् के अनुसार चैत्र माह की चतुर्दर्शी पर यहां हर साल आयोजित होने वाले मेले में पहले दिन मौसम अचानक अपना रंग बदलता है। तेज आंधी चलने लगती है और बारिश होती है। कहा जाता है कि तेज आंधी का चलना और बारिश आना देवी दुर्गा के अपने मंदिर में प्रवेश करने का प्रतीक है। यह आंधी और बारिश केवल देवबंद क्षेत्र में ही आती है।
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पांडव पुत्रों ने ली थी शरण
अज्ञातवास के दौरान पांडव पुत्रों ने यहां वनों में शरण ली थी और देवी की पूजा-अर्चना की थी। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार देवताओं की पुकार पर मां भगवती ने यहां पर राक्षसों का वध किया था। तभी घने जंगलों के बीच मां त्रिपुर बाला सुंदरी शक्ति पीठ की स्थापना हुई थी। यहां देवता वनों में विहार करते थे, तभी से इस शहर का नाम देववृंद हुआ और आज लोग देवबंद के नाम से जानते है।
मां बाला सुंदरी देवी के पार्श्व में मां काली और मां शाकुंभरी देवी का मंदिर है। यहां पर बलि चढ़ाए जाने की प्रथा आज भी कायम है। वर्तमान समय में श्रद्धालु बकरे की बलि देते हैं।