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रामनाम की सवारी आसान, पर उतरायी कठिन

Dr. Yogesh mishr
Published on: 27 Nov 2018 1:43 PM IST
अयोध्या एक बार फिर अपना इतिहास दोहरा रही है। एक बार फिर 90 के दशक और 1992 की यादें ताजा कर दी गई हैं। जब-जब अयोध्या में बाहर के लोग आते हैं। तब-तब अयोध्या और फैजाबाद में रहने वाले लोग अटकलों और आशंकाओं से बेचैन हो जाते हैं। हालांकि इस बार जब शिवसेना से उद्धव ठाकरे और विश्व हिन्दू परिषद दोनों आमने-सामने थे तब अटकल और आशंकाओं को कोई जगह नहीं मिल पाई। लेकिन राम मंदिर निर्माण का सवाल एक बार फिर सुर्खियों में आ गया। राम मंदिर आस्था का विषय नहीं है। राम मंदिर भारतीय संस्कृति की पहचान नहीं है। यह राजनीतिक दलों के नुमाइंदे साफ तौर पर समझते और समझाते हैं। हालांकि देश की जनता के लिए ऐसा नहीं है। पर राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए राम मंदिर सियासी एजेंडा है। हालांकि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अयोध्या कभी नहीं आए। फिर भी शिवसैनिकों से विवादित ढांचा ढहाए जाने का श्रेय लूटा। ठाकरे परिवार का पहला कोई नुमांइदा अयोध्या उतरा। वह भी इस तैयारी के साथ कि -‘‘हर हिन्दू की यही पुकार, पहले मंदिर फिर सरकार।’’ इस तरह के होर्डिंग और पोस्टरों से अयोध्या पटी पड़ी थी।
उद्धव ठाकरे ने कहा कि वे कुंभकर्ण को सोने से जगाने आये हैं। पहले कुंभकर्ण छह माह सोते, छह माह जागते थे। अब तो साढ़े चार साल से सोये हैं। सीना चैड़ा होने से काम नहीं चलता। सीने में मर्द का दिल और हिम्मत होनी चाहिए। मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लेकर आना चाहिए। शिवसेना उसका समर्थन करेगी। यह जमीन नहीं जमीर का मुददा है। उद्धव का यह रुख तब है जब भाजपा ने उसे महाराष्ट्र में ‘बिग ब्रदर्स’ के ओहदे से बेदखल कर दिया है। केन्द्र और महाराष्ट्र दोनों सरकार में वह भाजपा के साथ हैं पर हैसियत कोई नहीं। यही नहीं जब शिवसेना पर माइनस हिन्दुत्व के पॉलिटिक्स की तोहमत लगने लगी। महाराष्ट्र के कोंकण की 65 सीटें हिन्दुत्व के चेहरे के बिना नहीं जीती जा सकती। गैर मराठी हिन्दुओं और मराठी हिन्दुओं में भी मोदी हिन्दुत्व का बड़ा चेहरा हो गये। बाला साहब ठाकरे के जाने के बाद हिन्दुत्व के किसी मूवमेंट्स से शिवसेना का कोई रिश्ता नहीं रहा। मंदिर आंदोलन को हथियाने और इस मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने के सिवाय शिवसेना के पास भाजपा से निपटने का कोई औजार नहीं बचा था।
शिवसेना यह समझ चुकी है कि अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में मोदी ने देश-दुनिया का भ्रमण किया पर अयोध्या नहीं आये। उनके किसी एजेंडे में भी अयोध्या नहीं रही। हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर और बनारस के बाद सबसे ज्यादा यात्राएं अयोध्या की हैं।

उन्होंने अयोध्या में दीपोत्सव भी शुरू किया। इस पर्व को गिनीज बुक ऑफ रिकार्डस में जगह मिली। अयोध्या के विकास के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया। फैजाबाद का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। जब उद्धव ठाकरे परिवार के साथ अयोध्या दर्शन-पूजन में जुटे थे उसी बीच योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में भगवान श्रीराम की 221 मीटर ऊंची प्रतिमा लगाने का एलान कर दिया। 50 मीटर इसका पैडस्टल और 20 मीटर ऊंचा छत्र होगा। पैडस्टल में अत्याधुनिक म्यूजिम के साथ अयोध्या का इतिहास, इक्ष्वाकु वंश के इतिहास में राजा मनु से लेकर श्रीराम जन्मभूमि का इतिहास होगा।
यही नहीं, उद्धव ठाकरे के अभियान को पलीता लगाने के लिए विहिप की ओर से भी धर्मसभा का आयोजन अयोध्या, नागपुर, टाटा नगर, और बेंगलुरू में किया गया था। लेकिन अयोध्या और नागपुर को छोड़ किसी का जिक्र नहीं हुआ। हालांकि अयोध्या में रामभद्राचार्य ने यह एलान किया कि 11 दिसम्बर के बाद सरकार राम मंदिर बनाने की दिशा में बड़ा एलान करेगी। तब तक आचार संहिता लागू है। गौरतलब है कि जब शिवसेना और भाजपा के एजेंडा में राम मंदिर आया है तब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव भी चल रहे हैं। शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने वाराणसी में धर्म संसद का उसी समय आयोजन कर दिया। 90 के दशक में देश की राजनीति की धारा में बदल देने वाली अयोध्या हिन्दुत्व के सियासी क्षितिज पर आ गई। यह दिखने लगा कि अयोध्या की चैखट से सत्ता की राह एक फिर निकलने वाली है। इसी एहसास का नतीजा यह रहा कि एकबारगी यह लगने लगा कि मंदिर निर्माण का मुददा मीडिया ने गोद ले लिया है। मीडिया के हिन्दूकरण के दृश्य दिखे। अयोध्या से यह स्वर तो उभरा कि केन्द्र सरकार को दोबारा सत्ता में आने के लिए मंदिर निर्माण की दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे। क्योंकि अयोध्या में जो कुछ हुआ वह मोदी को संकट में डालने वाला है। विहिप और संघ ने जो कुछ किया उससे भी यही संदेश गया। क्योंकि मंदिर निर्माण उनका स्वर था।
संघ प्रमुख मोहन भागवत भी कह रहे हैं कि मोदी सरकार को मंदिर निर्माण के लिए कदम उठाना चाहिए, पर क्या कदम उठाना चाहिए यह नहीं बता रहे हैं। सत्ता में आने के बाद भाजपा ने संस्कृति से जुड़े मुददे संघ को दे दिये। बाकी मुद्दे सरकार और संगठन के पास हैं। रामदेव भी अध्यादेश की वकालत कर रहे हैं। श्री श्री रविशंकर अदालत के बाहर मुददा सुलझाने में लगे हुए हैं।
तारीख पर तारीख, हर स्वर में मंदिर निर्माण का उद्घोष, हर ओर मंदिर के नायक बनने और दूसरे को खलनायक बनाने की तेज कवायद यह बता रही है कि धर्म की सियासत एक ऐसी पीढ़ी सामने लाकर खड़ी की जा रही है जो संचार और टेक्नोलॉजी में माहिर हैं। पर यह भी सच्चाई है कि भूमंडलीकरण प्रक्रिया में युवा तकनीकी और आर्थिक तौर पर विकसित हुआ है, पर संस्कृति के मामले में अभी वह परिपक्व नहीं हुआ है। इसी से उसके अतीत से जुड़ाव का फायदा उठाने की कोशिश संघ और विहिप के मार्फत भाजपा कर रही है तो उद्धव ठाकरे खुद फ्रंट पर आये हैं।
स्वामी स्वरूपानंद ने कांग्रेस के लिए विहिप और संघ का काम करना शुरू किया है। साधु संत हर मंच पर दिख रहे हैं। मंदिर का ताला खुलवाने और शिलान्यास करने वाली कांग्रेस इसका श्रेय लेने को तैयार नहीं हैं। मंदिर निर्माण के तीन ही रास्ते हैं। पहला, बातचीत से। दूसरा, अदालती फैसले से। तीसरा, अध्यादेश लाकर। सुन्नी पक्ष से कोई बात नहीं कर रहा। अदालती रूख लोगों में भरोसा नहीं जगने दे रहा है क्योंकि यह देश का सबसे पुराना दिवानी मामला है। अध्यादेश लाने के बाद मंदिर निर्माण कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ा इश्यू हो जायेगा। ऐसे में यह सवाल है कि क्या मोदी कल्याण सिंह की तरह सजा झेलने, सरकार कुर्बान करने को तैयार हैं। अयोध्या भले ही बीजेपी की प्राण-वायु हो, लेकिन इस आंदोलन के बाद भी बीजेपी स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर सकी थी। आडवाणी दो सीटों से 181 तक पहुंचे थे जबकि मोदी बिना इसके स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने की इबारत लिख चुके हैं।
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Dr. Yogesh mishr

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