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BSP को दलित-मुस्लिम समीकरण का दांव पड़ा उलटा, बिखर गए सोशल इंजीनियरिंग के ‘पुर्जे’

चुनाव के पहले बहुप्रचारित ‘डीएम’ यानी दलित-मुस्लिम समीकरण औंधे मुंह पड़ा है। अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का दावा करने वाली पार्टी मुखिया मायावती का यह दांव इस बार उल्टा पड़ गया है। चुनाव नतीजे बताते हैं कि प्रदेश में दलित ‘माया’ मोह से मुक्त हो चुके हैं। बसपा को मिली दर्जन भर से ज्यादा सीटें इसकी तस्दीक करती हैं।

priyankajoshi
Published on: 12 March 2017 12:04 PM GMT
BSP को दलित-मुस्लिम समीकरण का दांव पड़ा उलटा, बिखर गए सोशल इंजीनियरिंग के ‘पुर्जे’
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राजकुमार उपाध्याय

लखनऊ : साल 2014 में लोकसभा चुनाव और अब 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार ने बसपा के सोशल इंजीनियरिंग के पुर्जों को बिखेर कर रख दिया है।

चुनाव के पहले बहुप्रचारित ‘डीएम’ यानी दलित-मुस्लिम समीकरण औंधे मुंह पड़ा है। अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का दावा करने वाली पार्टी मुखिया मायावती का यह दांव इस बार उल्टा पड़ गया है। चुनाव नतीजे बताते हैं कि प्रदेश में दलित ‘माया’ मोह से मुक्त हो चुके हैं। बसपा को मिली दर्जन भर से ज्यादा सीटें इसकी तस्दीक करती हैं।

क्या कहना है दलित चिंतक का?

दलित चिंतक डा. लालजी निर्मल कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बसपा मुखिया मायावती से शुरू से ही दलित एजेंडा बनाने की अपेक्षा की जा रही थी। मगर इसके बजाए वह अंबेडकर मिशन से दूर होती गईं। जातीय समीकरणों को साधने के लिए भाईचारा कमेटियां बनाना शुरू कर दिया और सजातीय नेताओं को उनका अगुवा बना दिया। दलितों को समग्रता में जो प्रतिनिधित्व देना चाहिए था, वह मायावती नहीं दे पाईं, इससे भी दलितों में आक्रोश था।

दलितों ने नकारा

पार्टी में कोई दलित और महिला नेतृत्व पैदा नहीं होने दिया। डा. अम्बेडकर की बहुजन अवधारणा को खत्म कर दिया गया। उनके मिशन के लोग एक-एक करके निकलते गए। मिशन का कोई भी आदमी लोकसभा या विधानसभा में नहीं जा सका। नतीजतन दलितों ने उन्हें नकार दिया। जब आप पैसे को तरजीह देंगे तो यही होगा।

क्या कहते है जानकार?

जानकार कहते हैं कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा 2012 विधानसभा चुनाव के दौरान ही उनसे नाराज था। क्योंकि बहुजन की अवधारणा को सर्वजन की अवधारणा में बदल दिया गया था। इससे नाराज होकर दलित उपजातियां पार्टी से अलग होती गईं। मायावती पर टिकट बेचने के आरोप भी लगते रहे। इससे दलितों को अपना वोट बैंक किसी को हस्तांतरित कर देने की ताकत मायावती के हाथ में देना रास नहीं आया।

दलितों की हालत में नहीं आया सुधार

इसके अलावा उनके चार बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद दलितों की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ। इससे पार्टी का बेस वोट बैंक दरक गया। साल 2007 में जब बसपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी, तब पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग को बहुत प्रचार मिला था। ब्राह्मण और दलित गठजोड़ ने पार्टी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया था। उसके बाद से लगातार पार्टी के वोट बैंक में गिरावट जारी रही।

यही कारण है कि सत्ता हासिल करने का सपना संजोए मायावती ने चुनाव के वर्ष भर पहले से ही लोकसभा चुनाव में छिटके मतदाताओं को लामबंद करने की मुहिम चला रखी थी। इसकी जिम्मेदारी उन्होंने पार्टी के खास नेताओं को सौंपी थी। इसी वजह से उन्होंने मुस्लिम वोट बैंक पर ध्यान देना शुरू कर दिया और दलित-मुस्लिम भाईचारे से माहौल बनाना शुरू किया।

नहीं खुला पार्टी का खाता

प्रदेश भर में ताबड़तोड़ भाईचारा सम्मेलन किए गए। चुनाव के दौरान मायावती ने 51 जिलों में जनसभाएं की। मगर यह कवायद भी पार्टी के गिरते वोट बैंक को थाम नहीं पाई। इसी तरह वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों के समय भी पार्टी की दर्जन भर से अधिक रैलियां हुई थीं। पर हाथी निशान 80 सीटों तक ही सिमट कर रह गया। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान उनकी सभी जिलों में रैलियां हुईं और उसमें भीड़ भी जुटी। पर चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला।

मुस्लिम-दलित समीकरण पर दिया जोर

निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार विधानसभा चुनाव में सत्ता की बागडोर उसी दल को मिलती रही है, जो आरक्षित और अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों की सर्वाधिक सीटें जीतता रहा है। यूपी में 130 अल्पसंख्यक बहुल और 87 आरक्षित सीट हैं। कुल मिलाकर इनकी संख्या 215 है। बसपा ने इसी को ध्यान में रखकर मुस्लिम-दलित समीकरण पर जोर दिया।

यह मिथक भी टूट गया

साल 2012 में सपा ने 224 सीट के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इन 224 सीटों में से अल्पसंख्यक बहुल 78 और 59 आरक्षित यानी कुल 137 सीटें शामिल थीं। इसी तरह 2007 में बसपा ने कुल 206 सीटें जीती थीं। इनमें से 121 अल्पसंख्यक बहुल और आरक्षित सीटें शामिल थी। पर इस बार यह मिथक टूट गया।

सर्वजन की राजनीति के बाद लगातार गिर रहा जनाधार

साल 2007 के बाद से अब तक हुए चुनाव परिणामों पर नजर डाली जाए तो साफ तौर पर यह उभर कर सामने आता है कि जब से मायावती ने सर्वसमाज की राजनीति शुरू की, तब से बसपा का जनाधार लगातार घट रहा है। पिछले 7 साल में मायावती के वोट बैंक में 11 फीसदी की गिरावट आई है।

वर्ष वोट (प्रतिशत में)

-विधानसभा चुनाव : 2007 (30.46)

-लोकसभा चुनाव : 2009 27.42

-विधानसभा चुनाव : 2012 25.90

-लोकसभा चुनाव : 2014 19.60

अल्पसंख्यकों को यह नागवार गुजरा

मायावती ने 2012 के विधानसभा चुनाव में भी मुसलमानों पर वोट नहीं देने का आरोप लगाया था। इस बार फिर उन्होंने इस आरोप को दोहराया है। जानकार इसके लिए मायावती को ही जिम्मेदार मानते हैं। शाल 1993 चुनाव के बाद पार्टी का सत्ता के लिए भाजपा से तीन बार हाथ मिलाना और साल 2003 में मोदी के पक्ष में गुजरात में चुनाव प्रचार करना। उन प्रमुख कारणों में शामिल हैं, जिसे विरोधी दल पार्टी के खिलाफ हथियार बनाकर चुनाव में उतरते हैं। इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगे के दौरान मायावती मुसलमानों का दुख दर्द समझने उनके पास तक नहीं गईं। अल्पसंख्यकों को यह काफी नागवार गुजरा।

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इन्होंने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत नई दिल्ली में एनडीटीवी से की। इसके अलावा हिंदुस्तान लखनऊ में भी इटर्नशिप किया। वर्तमान में वेब पोर्टल न्यूज़ ट्रैक में दो साल से उप संपादक के पद पर कार्यरत है।

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