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विधानसभा चुनाव: अगड़ों पर सितम-अपनों पर रहम, ये कैसी सोशल इंजीनियरिंग
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 में मायावती की और अखिलेश यादव की 2012 की स्पष्ट बहुमत की सरकार में भी दोनों दलों ने इसका जमकर इस्तेमाल किया। पर अब लगता है कि इन दोनों दलों को इस फार्मूले से खासा परहेज है
ANURAG SHUKLA
लखनऊ: कभी सोशल इंजीनियरिंग राजनैतिक दलों का सबसे बड़ा शोशा हुआ करता था। गोविंदाचार्य युग में भारतीय जनता पार्टी ने इसे लेकर कई सफल प्रयोग किए। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 में मायावती की और अखिलेश यादव की 2012 की स्पष्ट बहुमत की सरकार में भी दोनों दलों ने इसका जमकर इस्तेमाल किया। पर अब लगता है कि इन दोनों दलों को इस फार्मूले से खासा परहेज है क्योंकि दोनों राजनैतिक दल इस फार्मूले पर अमल करने को तैयार नहीं है।
बदल गये समीकरण
बसपा ने 2012 के चुनाव में 74 ब्राह्मण और 33 ठाकुर उम्मीदवार उतारे थे जबकि इस चुनाव में उसने 66 ब्राह्मण और 36 ठाकुर उम्मीदवार उतारे हैं। कमोबेश यही स्थिति समाजवादी पार्टी की भी है। 2012 के चुनाव में 50 ब्राह्मण उतारने वाली समाजवादी पार्टी ने इस बार सिर्फ 25 ब्राह्मणों को टिकट दिया है। जबकि 2012 में सपा ने 45 क्षत्रिय उम्मीदवार उतारे थे लेकिन इस चुनाव में 26 ठाकुर उम्मीदवार उतारे हैं। ये दोनों दल अल्पसंख्यक मतदाताओं को रिझाने की कोशिश में दिख रहे हैं।
इसे संयोग भी कह सकते हैं पर एक कड़वी सच्चाई भी है कि अखिलेश यादव के पांच साल के कार्यकाल में सोशल इंजीनियरिंग पर अमल ही नहीं किया गया। अपने पूरे कार्यकाल में सबसे अधिक मंत्रियों को बर्खास्त करने का फैसला लेकर कीर्तिमान रचने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की बर्खास्तगी के चाबुक के शिकार होने वालों में 70 फीसदी अगड़े मंत्री ही रहे। हालांकि इनमें से कुछ को दोबारा उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल भी करना पड़ा।
अगड़ों पर चाबुक
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया को खाद्य रसद एवं कारागार मंत्री बनाया। जियाउल हक कांड में सीबीआई जांच के वक्त उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में इनकी बहाली हुई तो इनका मंत्रालय बदल दिया गया जिससे क्षुब्ध राजा भइया लंबे समय तक कार्यालय नहीं गये। इन दिनों बीजेपी में चले गये राजा महेंद्र अरिदमन सिंह पहले परिवहन मंत्री बनाए गये बाद में स्टांप पंजीयन विभाग उन्हें थमा दिया गया। अतंतः उन्हें बर्खास्त कर दिया गया।
अखिलेश यादव सरकार में आनंद सिंह कृषि मंत्री थे उनके बेटे कीर्तिवर्धन सिंह ने सपा छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। नतीजतन, आनंद सिंह को मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। हालांकि कीर्तिवर्धन सिंह भाजपा से सांसद बनने में कामयाब हो गये। ओमप्रकाश सिंह अखिलेश यादव के पर्यटन मंत्री थे। उन्हें पारिवारिक लडाई के दौर में शिवपाल सिंह का साथ देने की वजह से मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया गया। बाद में किसी तरह टिकट पाने में वह कामयाब रहे। हालांकि बर्खास्तगी की मार झेलने वाले नारद राय को अपनी राजनैतिक हैसियत बचाने के लिए बसपा का दामन थमना पड़ा। उनके विभागों में फेरबदल भी हुए।
फेरबदल और बर्खास्तगी
पंचायती राज मंत्री राजकिशोऱ सिंह को पशुधन से पंचायत राज में भेजा गया और फिर उन्हें भी बर्खास्त कर दिया गया। विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह को भी बर्खास्तगी का दंश झेलना पडा पर बाद में उन्हें बहाल कर दिया गया। राजाराम पांडेय अखिलेश की कैबिनेट में मंत्री थे। 14 अप्रैल 2013 को उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। बाद में उनका देहांत हो गया और उनकी जगह उनका बेटा विधायक बना।
विज्ञान प्रौद्योगिकी मंत्री मनोज पांडेय के विभागों में फेरबदल हुए और अंततः उन्हें भी बर्खास्त होना पड़ा। हालांकि बाद में वह बहाल होने में कामयाब हो गये। शिवाकांत ओझा प्राविधिक शिक्षा मंत्री थे। इंजीनियरिंग कालेजों की अनियमितता पर नकेल कसने की उनकी कोशिश इतनी भारी पड़ी कि उन्हें मंत्री पद गंवाना पड़ा। हालांकि बाद में उदयवीर सिंह की मदद से वह चिकित्सा मंत्री बनने में कामयाब रहे।
विजय मिश्रा अखिलेश यादव मंत्रिमंडल में अतिरिक्त ऊर्जा विभाग के मंत्री थे। बाद मे इन्हें धर्माथ कार्य दिया गया। इसमें इन्होंने श्रवण यात्राओं के मार्फत हिंदुओ में सरकार की साख ऊंची करने के लिये काफी काम किया। अखिलेश यादव ने इनका टिकट काट दिया। थक हार कर विजय मिश्रा बसपा मे चले गये।
ब्रह्माशंकर त्रिपाठी अखिलेश यादव काबीना में होमगार्ड मंत्री थे। बाद में उन्हें खादी ग्रामोद्योग थमा दिया गया। पवन पांडेय को मुख्यमंत्री ने मनोरंजन कर मंत्री बनाया था। बाद में खनन के एक मामले में उन्हें बर्खास्त होना पडा। हालांकि बीते सिंतबर महीने में वह वन राज्यमंत्री बनने में कामयाब रहे।
करीबियों पर करम
अरविंद गोप का नाम मुख्यमंत्री के करीबी मंत्रियो में आता है। उनके साथ के कई मंत्री राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार होते हुए कैबिनेट तक पहुंच गये। अरविंद सिंह, नितिन अग्रवाल गोप, रविदास मेहरोत्रा, बलवंत सिंह रामूवालिया और अभिषेक मिश्रा। दो ही लोग इस सरकार में ऐसे खुशनसीब रहे जिनको मुख्यमंत्री की नाराजगी का खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा। ये बात और है कि रविदास मेहरोत्रा और बलवत सिंह रामूवालिया सरकार की आधी मियाद पार हो जाने के बाद मंत्री बने।
चलते चलाते इस सूची में राधेश्याम सिंह का नाम भी जुड़ गया। अखिलेश यादव काबीना में 57 से लेकर 59 मंत्री तक रहे हैं। पर मुख्यमंत्री की नाराजगी झेलने वाले वाले 17 मंत्रियों में से 11 के नाम आते हैं। यह आंकडा 70-72 फीसदी बैठता है। हालांकि इनके अलावा बलराम यादव, गायत्री प्रजापति, अंबिका चौधरी, शादाब फातिमा और मनोज पारस को भी मुख्यमंत्री की बर्खास्तगी की मार झेलनी पड़ी। इनके अलावा भदोही के विधायक विजय मिश्रा, गुड्डू पंडित उनके भाई मुकेश सिंह, महेंद्र कुमार सिंह उर्फ झीन बाबू, कुलदीप सेंगर का टिकट भी मुख्यमंत्री की लिस्ट में गायब दिखा।
अगड़ों के कटे टिकट
शिवपाल और अखिलेश की सूची में भी जिन लोगों के टिकट कटे उनमें अधिकांश अगड़े ही थे। भदोही से विजय मिश्र इसके शिकार हुए जबकि बनारस के शिवपुर विधानसभा से अवधेश पाठक का टिकट काटकर यादव उम्मीदवार उतारा। जबकि इस सीट से सपा और बसपा के गठजोड़ में भी यादव उम्मीदवार नहीं जीता था।
वहीं दूसरी तरफ मायावती ने 87 सीटों पर दलित वर्ग के लोगों को और मुस्लिम वर्ग के लोगों को 97 टिकट दिया है। अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रत्याशियों को 106 टिकट दिए। वहीं अगड़े समाज के लोगों को सबसे ज्यादा यानी 113 टिकट दिए गए हैं। बसपा ने अगड़ी जातियों में बाह्मण समाज के लोगों को 66 टिकट दिए, क्षत्रिय समाज के लोगों को 36 टिकट और कायस्थ-वैश्य-पंजाबी समाज के लोगों को 11 टिकट दिए हैं। इस तरह आंकडों के मुताबिक बसपा ने इस बार के चुनाव के लिए दलितों को सबसे कम टिकट दिए हैं।
जबकि समाजवादी पार्टी ने 26 ब्राह्मणों और 25 ठाकुरों को टिकट दिया है। साल 2012 में बसपा ने दलितों को 88 टिकट, मुस्लिमों को 85, ओबीसी को 113, ठाकुरों को 33, ब्राह्मणों को 74 और अन्य को 10 सीटें दी थीं। वहीं, सपा ने साल 2012 में 50 ब्राह्मणों और 45 ठाकुरों को टिकट दिया था। जबकि, भाजपा ने 73 ब्राह्मणों और 74 ठाकुरों को टिकट दिया था।