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‘एक जनपद-एक उत्पाद’ योजना: शिल्पकारों की उम्मीदों को लगे पंख

raghvendra
Published on: 12 Jan 2018 12:44 PM IST
‘एक जनपद-एक उत्पाद’ योजना: शिल्पकारों की उम्मीदों को लगे पंख
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर: प्रदेश सरकार द्वारा ‘एक जनपद-एक उत्पाद’ योजना में टेराकोटा शिल्प को चुने जाने का असर औरंगाबाद गांव में साफ दिख रहा है। यह उत्साह तब है कि जब कोई भी प्रशासनिक अधिकारी अभी तक गांव में इस सूचना को लेकर नहीं पहुंचा है। इसके बावजूद गीली मिट्टी पर शिल्पकारों की उंगलियां उम्मीद में खेलने लगी हैं। शिल्पकारों को भरोसा है कि उनके सुख-दुख को करीब से जानने वाले मुख्यमंत्री अबकी बेहतरी के लिए बहुत कुछ करेंगे। गोरखपुर मुख्यालय से 17 किमी पर स्थित टेराकोटा शिल्प के लिए विश्व प्रसिद्ध गांव औरंगाबाद में कड़ाके की ठंड में भी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं दिख रहा।

कमोवेश सभी घरों में महिलाएं, बुजुर्ग से लेकर बच्चे तक टेराकोटा शिल्प को गढऩे में मशगूल नजर आते हैं। वर्ष 2006 में शिल्पकारों के लिए सरकार द्वारा बनवाए गए भवन का हर कमरा गुलजार नजर आता है। कड़ाके की ठंड में जब उंगलियां ठीक से काम नहीं कर रही हों, ऐसे में गीली मिट्टी पर उंगलियों की जादूगरी से एक से बढक़र एक शिल्प गढऩे की जिजीविषा देखते ही बनती है। तमाम दुश्वारियों के बीच अपने परम्परागत शिल्प को जिंदा रखने की जिद ही है कि यहां के शिल्पकारों ने दिक्कतों बावजूद चॉक चलाना नहीं छोड़ा है।

चार दशक से टेरोकोटा शिल्प से दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने वाले बांकेलाल 4 डिग्री सेल्सियस की ठंड में भी बिजली से चलने वाले चॉक पर हाथी का पैर बनाने में व्यस्त नजर आते हैं। इतने तल्लीन कि अगल-बगल क्या हो रहा है, कुछ मालूम नहीं। तीन-चार बार कुरेदने पर बताते हैं कि सुना है कि योगी सरकार ने टेराकोटा को बढ़ावा देने के लिए योजना बनाई है। 24 जनवरी को लखनऊ में आयोजित हो रहे यूपी दिवस में गोरखपुर की अगुवाई टेराकोटा शिल्प का प्रदर्शन करना है। इसे लेकर साहब लोगों का अभी तक कोई संदेश तो नहीं आया है, लेकिन इस उम्मीद में पारम्परिक हाथी बना रहे हैं कि बुलावे के वक्त हाथ खाली न रहें। कमोवेश यही हाल आसपास के आधा दर्जन गांवों में 200 से अधिक परिवारों का है। योगी सरकार के एक जनपद-एक उत्पाद कार्ययोजना में प्रदेश के सभी 75 जिलों की एक-एक मशहूर वस्तुओं की ब्रांडिंग होनी है। गोरखपुर से टेराकोटा शिल्प को शामिल किये जाने से शिल्पकारों में उम्मीद की किरण जगी है।

औरंगाबाद गांव के कुछ कुम्हारों द्वारा गांव-गांव में डीह बाबा के स्थान पर रखे जाने वाले हाथी बनाने का काम शुरू हुआ। रोजगार का कोई साधन नहीं होने के चलते दर्जन भर गांव के लोगों के लिए टेराकोटा शिल्प का नाता रोजी-रोटी से भी जुड़ गया। आज आंैरगांबाद, भरवलिया, अमवा गुलरिहा, जंगल एकला, पादरी बाजार, बेलवा रायपुर गांव के 200 से अधिक परिवारों की जिंदगी की गाड़ी मिट्टी के शिल्प के सहारे ही आगे बढ़ रही है।

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वर्ष 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाथों शिल्पकार का राज्य पुरस्कार पाने वाले अखिलेश परिवार की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके बाबा श्यामदेव राष्ट्रपति पुरस्कार पा चुके हैं तो मां बेलासी देवी भारतीय स्टेट बैंक के सालाना कैलेंडर में जगह बना चुकीं हैं। अखिलेश कहते हैं कि अखबारों में पढ़ा है कि एक जनपद-एक उत्पाद योजना के तहत प्रदेश सरकार ने गोरखपुर के टेराकोटा शिल्प को चुना है। यह बेहतरीन कदम है मगर सरकार को बुनियादी जरुरतों की तरफ भी ध्यान देना होगा।

चोरी की काबिस मिट्टी से दिखाते हैं शिल्पकारी

टेराकोटा शिल्प की सबसे बड़ी खासियत यह है कि शिल्पकार किसी प्रकार के रंग का इस्तेमाल नहीं करते हैं। भटहट के खास इलाके में मिलने वाली काबिस मिट्टी की खूबी है कि शिल्प चटख लाल रंग में तब्दील हो जाता है। शिल्पकार बताते हैं कि काबिस मिट्टी को चोरी कर लाना पड़ता है। एक बोरी मिट्टी के लिए 400 से 500 रुपये देना पड़ता है। शिल्पकार गुड्डू बताते हैं कि भटहट क्षेत्र के बरगदही गांव में स्थित पोखरे के पीली मिट्टी में जादू है। रंग के लिए इसमें कुछ नहीं मिलाया जाता है। सोडा व आम के छाल से बने घोल में मिट्टी की आकृति को डुबाकर भट्ठी में पकाया जाता है। वर्षों तक इसका रंग फीका नहीं पड़ता है। शिल्पकार देवीदीन प्रजापति का कहना है कि बूढ़ाडीह, ठठौर और आसपास के पोखरों से हमें बिना रुपये खर्च किये मिट्टी मिल जाती थी। अब एक ट्राली मिट्टी के एवज में 3 से 4 हजार रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं।

बिक जाती हैं दो करोड़ से अधिक कलाकृतियां

औरंगाबाद के शिल्पकारों के हाथों की जादूगरी ही है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद शिल्पकारों की हौसला अफजाई के लिए गांव आ चुके हैं। दोनों नेताओं के चलते ही औरंगाबाद की कलाकृतियां राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डेन से लेकर दस जनपथ तक में नजर आती है। यहां की कलाकृतियों की डिमांड का ही नतीजा है कि देश के सभी प्रमुख शहरों के व्यापारियों की यहां पूरे साल आमदरफत बनी रहती है।

यहां की पारम्परिक कलाकृति घोड़ा, हाथी, ऊंट, गणेश और भगवान बुद्घ की प्रतिमाओं की जबदस्त मांग है। दीपावली के दिनों में यहां के बने लैम्प शेड, झूमर और डिजाइनर दीयों को पूरे देश में मांग रहती है। बदले परिवेश का नतीजा है कि हाल के दिनों में सुख-समृद्घि के प्रतीक के रूप में जाना जाने वाला कछुआ भी विभिन्न रूपों में नजर आ रहा है। कछुआ के शक्ल के गुल्लक की कीमत 100 से लेकर 300 रुपये तक है। बुजुर्ग बांकेलाल कहते हैं कि दर्जन भर गांवों में फैले शिल्पकार पूरे साल में दो करोड़ से अधिक की कलाकृतियां बेच रहे हैं।

बिचौलिए काट रहे चांदी

इन कलाकृतियों की डिमांड तो खूब है, लेकिन चांदी बिचौलिये काट रहे हैं। शिल्पकारों का कहना है कि बिचौलिए शिल्प की कीमत डिमांड पर दे देते हैं। बिचौलिये जिस हाथी को गांव से 60 से 100 रुपये में खरीदते हैं उसे महानगरों के शोरूम में 500 से 1000 रुपये तक में बेच देते हैं।

शिल्पकार आरती प्रजापति का कहना है कि दस वर्ष पहले विवाह हुआ था। ससुराल आई तो रोजी-रोटी के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अब परिवार के सदस्यों के साथ हाथ बंटाते-बंटाते काफी कुछ सीख गई हूं। दर्द सिर्फ इतना है कि पूरे दिन मिट्टी में रहने के बाद भी बच्चे अच्छे स्कूल में शिक्षा नहीं ग्रहण कर पा रहे हैं। सरकार गांव में ही शिक्षा का बेहतर इंतजाम कर देती तो बच्चों का भविष्य सुधर जाता। सीएम योगी भी गांव में आ चुके हैं। उम्मीद है कि वे यहां के शिल्पकारों की बेहतर जिंदगी के लिए जरूर प्रयास करेंगे।

नहीं मिल रही मेहनत की कीमत

देश ही नहीं, पूरी दुनिया में लोग औरंगाबाद के शिल्प के कद्रदान हैं, लेकिन सरकार द्वारा कोई पहल नहीं करने के चलते यहां के कलाकारों को अपना उत्पाद औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है। मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरू और दिल्ली के बड़े-बड़े शोरूम के मालिक बिचौलियों के मार्फत इनके उत्पादों को गांव में ही खरीद लेते हैं। शिल्पकार नाथू राम प्रजापति कहते हैं कि महानगरों से आने वाले बिचौलियों को उत्पाद बेचना मजबूरी है।

वह इतना दाम दे देते हैं कि लागत और मेहनत के बाद कुछ बच जाता है वरना तो यहां का शिल्प दम ही तोड़ दे। तीन दशक से मिट्टी के लोदे को एक से बढक़र एक आकार देने वाली बेलासी देवी कहती हैं कि एक हाथी बनाने में एक से दो दिन लग जाता हैं। जबकि व्यापारी इसकी बमुश्किल 150 रुपये कीमत देते हैं। ऐसे में दिहाड़ी मजदूरों के बराबर भी रकम शिल्पकारी के एवज में नहीं मिलती। खेती न होने से इस काम के अलावा कोई विकल्प भी नजर नहीं आता है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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