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12.5 हजार फीट ऊंचाई पर मनाया बर्थडे, देखी पेड़ों से लटकती बर्फ छुरियां
Govind Pant Raju
लखनऊ: इरादों में भर दो इतनी जान कि हर कामयाबी मजूर हो जाए,
हौसले हो इतने बुलंद कि जिंदगी से लफ्ज ए शिकस्त दूर हो जाए,
जिंदगी को जियो बड़ी ही हिम्मतों से,
बड़े से बड़ा तूफ़ान भी आपके सामने झुकने को मजबूर हो जा...
एवरेस्ट की ओर बढ़ते हमारे कदम रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे हमारी सांसें फूलती जा रही थी। लेकिन फिर भी हमारे कदम रुकने का नाम नहीं ले रहे रहे थे। थ्यांगबोचे से आगे का मार्ग एवरेस्ट जाने वाले रास्ते का सबसे सुंदर हिस्सा है। इसके पहले भाग में थ्यांगबोचे से उत्तर दिशा की ओर ढलान वाले मार्ग में भोज, खरसू और सफेद बुरांश के घने जंगल हैं।
(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)
यह पूरा इलाका नम रहता है और बेहद ठंडा भी। सुबह 10 बजे के आसपास इस इलाके से गुजरते हुए हमने बहुत सारे पेड़ों से लटकते हुए आइसिकिल यानी पानी की धार के ठण्ड से जम जाने के कारण बनी बर्फ की नुकीली छुरीनुमा आकृतियां देखीं। जिनसे बूंद-बूंद पानी टपक रहा था।
दूधकोशी के लगभग किनारे तक आ जाने के बाद जहां समतल इलाका शुरू होता है वहां स्थानीय लोगों के याक बाड़े दिखाई देते हैं। कई जगह टी हाऊस और छोटे-छोटे होटल बने हैं। हमने एक स्थान पर पुर्ननिर्माण होते हुए भी देखा। 1915 के भूकंप में ध्वस्त हो चुके होटल को उसी स्थान पर फिर से बनाया जा रहा था। इस जगह पर तस्वीरें खींचने के दौरान अचानक फिसलने से राजेन्द्र के साथ एक बड़ी दुर्घटना होते-होते रह गई। अगर वह बचने के प्रयास में जरा भी चूक जाता तो उसका एकदम डेढ़ सौ फुट नीचे तीव्र गति से बह रही दूध कोशी की धार में पहुंचना तय था।
पर्वतारोहण में सदा अतिरिक्त सजग रहने की आवश्यकता होती है। राजेन्द्र और हम सब के लिए यह एक बड़ी मुसीबत के टलने जैसी बात थी। अभी कल रात ही तो हमने साढ़े बारह हजार फुट की ऊंचाई पर थ्यांगबोचे में उसका 60वां जन्मदिन मनाया था। इसके लिए हम नामचे बाजार से एक खास तरह का केक लेकर आए थे। नवांग और ताशी ने इस केक को एक टेबल में सजाया।
आटे की लोई में मोमबतियां सजाई गईं और जब हम रात का खाना खा चुके, तब अचानक से केक राजेन्द्र के सामने रख दिया गया। पूरी योजना गुपचुप बनी थी। मेरे अलावा सिर्फ ताशी को इसकी जानकारी थी। दिल्ली से रजनी भाभी ने राजेन्द्र के जन्मदिन के लिए पूरे परिवार की ओर से एक पत्र मुझे दिया था।
राजेन्द्र को वह पत्र और अचानक नामचे से आया केक, बहुत भावुक कर गया। वाकई वह बहुत भावुक क्षण था। हम सब लोगों ने उस क्षण का बहुत आनन्द लिया। पहाड़ों के खतरों का सामना करने के लिए हर आरोही को अपने आत्मीयों, परिजनों, मित्रों और शुभेच्छुओं की शुभकामनाओं की बेहद जरूरत होती है। राजेन्द्र के जन्मदिन के बहाने हम सबने इस बात को महसूस किया। अपने परिवार का प्रोत्साहन न होता तो शायद हम यहां होते ही नहीं।
दुर्घटना वाले स्थान से थोड़ी दूर चल कर हमें दूध कोशी पर बने एक पुल को पार करना पड़ा। जिस जगह पर यह पुल था, वहीं पास में एक पुराना पुल ध्वस्त पड़ा था। शायद एवलांच ने उसका यह हाल किया था। लेकिन हमारे इंजीनियर साथी अरूण ने इसके लिए किसी तकनीकी वजह को जिम्मेदार ठहराया। यहां से फिर लगातार ऊपर चढ़ते हुए हम आगे बढ़ते रहे। अब पेड़ पूरी तरह गायब हो चुके थे।
उनके स्थान पर बहुत छोटी, एकदम जमीन से चिपकी हुई झाड़ियां थी। समारे नामक जगह पर पहुंच कर हमने दिन का खाना खाया। यहां से आगे फिर चढ़ाई थी। वैसे तो नामचे बाजार से ही हमें ऑक्सीजन की कमी और ऊंचाई का प्रभाव साफ महसूस होने लगा था।
लेकिन अब उसका असर हमारी चाल पर भी दिखने लगा था। हम चार कदम चलते तो सांस फूल जाती, दिल तेजी से धड़कने लगता। हम 15-20 सेकेंड रूकते फिर चल पड़ते। ज्यादा देर रूकने से शरीर ठंडा होने लगता है और इस ऊंचाई पर गर्म शरीर का एकदम ठंडा होना खतरनाक होता है, कभी-कभार तो जानलेवा भी हो सकता है। इसलिए हम हांफते और सुस्ताते हुए मंथर गति से आगे बढ़ते रहे और प्रकृति के सौन्दर्य से अभिभूत होते रहे।
इस इलाके को ग्लेशियरों के सिकुड़ने से बना हुआ इलाका कहा जा सकता है। पठार की सी भू-आकृति वाला यह इलाका लेह के ऊपरी इलाकों से काफी मिलता-जुलता है। काफी लंबी चढ़ाई के बाद हम पोंग बोचे पहुंचे। यह इस इलाके का आखिरी गांव है, जहां जल विद्युत उपलब्ध है। एक छोटे से पावर हाउस से बनी बिजली गांव की जरूरतों के लिए पर्याप्त है।
एवरेस्ट के मार्ग में हमें ऐसे अनेक पावर हाउस दिखे। ज्यादातर इनका निर्माण विदेशी संस्थाओं के सहयोग से हुआ है। पोंगबोचे इस घाटी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहां से अमा देवलम बेस कैम्प के लिए जाया जाता है। यहीं से कभी कभार मिंगबो ला पास के रास्ते ‘मकालू’ व ‘मेरा’ पर्वत शिखरों के अभियान दल भी जाते हैं।
इससे आगे हल्की चढ़ाई चढ़ते हुए एक छोटी नदी को पार करने के बाद हम दिंगबोचे की ओर बढ़ने लगे। मौसम अब ठण्डा होने लगा था। रास्ते में हमें जगह-जगह पत्थरों से घेर कर बनाए गए बाड़े जैसे खेत दिखाई दिए, जिन्हें आलू बोने के लिए तैयार किया जा रहा था। हवा की तेज होती रफ्तार के साथ-साथ हम अपनी रफ्तार भी तेज करने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि मौसम के ज्यादा बिगड़ जाने से पहले ही हम अपने अड्डे पर पहुंच जाना चाहते थे।
जल्द ही हमारे सामने था इमजा वैली का सबसे बड़ा गांव दिंगबोचे। किसी जमाने का एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र। करीब डेढ़ किलोमीटर के विस्तार में फैला हुआ एक गांव। हिमालय की चोटियों से घिरा हुआ, हिमालय जैसा ही शांत।
गोविन्द पंत राजू