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इमजा झील है खतरों का साया, बर्फ के फाहों की ठंड ने था जमकर कंपाया
Govind Pant Raju
लखनऊ: दोस्तों, आशा करता हूं कि आपको मेरा यात्रा लेख खूब पसंद आ रहा होगा पसंद भी क्यों न आए.. 60 की उम्र में जब लोग ऐसा उत्साह दिखाते हैं, तो वह दूसरों के लिए एक प्रेरणा बन जाता है और यही हो रहा है मेरे और मेरे दोस्तों के साथ उम्र के इस मोड़ पर हमने अपने कदम पीछे नहीं खींचे और आगे बढ़ते जा रहे हैं बताते हैं आपको आगे की यात्रा के बारे में ...
(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)
चार हजार छह सौ मीटर पर बसा दिंगबोचे एक बड़ा गांव है। हालांकि यहां अब वही लोग रह रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में पर्यटन के व्यवसाय से जुड़े रहे हैं। ज्यादातर घर या तो टी हाऊस, होटल या दुकान के रूप में है। कुछ लोग भारवाही के रूप में जीवन यापन करते हैं और कुछ राज मिस्त्री, बढ़ई या दूसरे कार्यों के जरिए। कभी यहां भेड़ पालन प्रमुख व्यवसाय था अब वह लगभग बंद हो गया है।
मगर पूरे इलाके में याक बाड़ों की स्थिति देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि याक पालन अब भी रोजगार का साधन है और उन की स्थानीय जरूरतें भी इसी से पूरी होती हैं। हम जिस जगह पर ठहरे उसका नाम ‘पीक फिफ्टीन’ था। यह एक नयी बन रही इमारत का हिस्सा था। हमें अगली सुबह यहां से एवरेस्ट की ओर न जाकर इमजा वैली में आगे बढ़ना था।
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इमजा घाटी भी नेपाल के एवरेस्ट क्षेत्र का एक बेहद खूबसूरत इलाका है। इमजा खोला नामक एक छोटी नदी इसके बीच से बहती है। इमजा ग्लेशियर का पानी वहीं बनी इमजा तसो नामक एक झील में जमा होता है। इस इमजा लेक से ही निकलकर यह पानी इमजा खोला के रूप में दक्षिण की ओर बहता है और फिर लोबुज्या (लोबुचे शिखर से निकलने वाली छोटी नदी) से इसका मिलन हो जाता है।
इमजा घाटी से ‘मेरा पीक’ और ’आइलैंड पीक’ के अभियान दल भी आरोहण के लिए जाते हैं और मकालू शिखर से एवरेस्ट की ओर आने का दुस्साहस करने वाले आरोही भी इस रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि दिंगबोचे से आगे का इलाका जन शून्य है।
इक्का दुक्का याक बाड़ों और छुरूंग में एक चाय की दुकान और तीन चार घरों के अलावा ऊपरी इमजा घाटी में और कुछ नहीं है। लेकिन 1993 में पहली बार चर्चा में आई इमजा तसो या इमजा झील के कारण यह इलाका पूरी दुनिया के पर्यावरण विदों के लिए चिन्ता का विषय बन गया है।
अध्ययनों से एवरेस्ट के इस करीब़ी इलाके में दो तरह के बदलावों की जानकारियां मिली है। एक तो यह कि 1985 के बाद से इस इलाके में ग्लेशियर झीलों के बनने की गति तेज हो गई है। ग्लेशियर झीलें ग्लेशियरों के बीच में जल कुण्ड जैसी आकृतियां होती हैं और इनका निर्माण ग्लेशियरों के टूटने और पिघलने से होता है। दूसरा बदलाव यह हुआ है कि अब इन झीलों में से कई का आकार लगातार बढ़ रहा है। इमजा झील का आकार तो एक वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्रफल में फैल गया है।
इस झील के टूटने से इमजा घाटी के निचले हिस्से सहित दूधकोशी घाटी के गांवों पर आफत आ सकती है। कई गांव तबाह हो सकते हैं। इसलिए स्थानीय शेरपाओं की मदद से 1998 में ‘सेव द इमजा वैली कमेटी’ की स्थापना की गई थी। वैज्ञानिक व पर्यावरण विशेषज्ञ भी लगातार इस झील पर निगरानी रखते हैं और इसके पानी की निकासी की भी निगरानी की जाती है। इस झील से पानी को कम करने के लिए अनेक योजनाएं भी बनाईं गईं थीं। फिलहाल इसे नेपाल की सबसे खतरनाक ग्लेशियर झीलों में एक माना जाता है।
हमने भी दिंगबोचे से इमजा घाटी की सुन्दरता देखने का मौका नहीं गंवाया। सुबह-सुबह हम इमजा खोला की धारा के विपरीत ऊपर की ओर चल दिए। पीठ में रकसैक न होने से ऊपर चढ़़ने में कुछ अजीब सा लग रहा था। गांव से ऊपर चढ़ते ही हमें कई छोटी-छोटी नहरों जैसी जल धाराएं मिलीं। दरअसल ग्लेशियरों से बह कर आने वाला यह पानी छोटी गूलों के जरिए गांव तक लाया जाता है, जहां वह सिंचाई व अन्य सभी कामों में इस्तेमाल होता है। हमने इस पानी से खेतों की सिंचाई भी होते हुए देखी। गेहूं के दो ढाई इंच के पौधों को खेतों के बीच में बनी गूलों से उलीच कर पानी देते हुए हमने कई महिलाओं को देखा।
यह गेहूं अक्टूबर के बाद पक कर तैयार होगा। इसी तरह हमने आलू के खेतों में काम करते हुए भी लोगों को देखा। शायद जंगली व पालतू जानवरों के भय से खेतों को यहां पत्थरों की आदमकद दीवारों से घेर दिया जाता है। दीवार के भीतर हिस्से में कुछ फुट जगह खाली छोड़ कर फिर बीच के हिस्से में खेती की जाती है। इमजा घाटी में करीब एक हजार मीटर ऊपर चढ़ने के बाद हम एक बहुत खुले बुग्याल नुमा इलाके में पहुंच गए। वहां पर मोबाइल का पूरा सिग्नल मिल रहा। इसलिए अरूण सिंघल के आग्रह पर मैंने और राजेन्द्र ने भी घर बात की। शायद हमारी कुशल पाकर घर वालों को भी राहत मिली होगी पर हमें तो उसमें भी आनन्द ही मिला।
प्रकृति से परिवार तक जुड़ने का आनन्द हमारे आस पास की प्रकृति तो हमें लगातार आनन्दित कर ही रही थी। चारों ओर के हिम शिखर अब हमारे बहुत करीब आ गए थे और हमारे देखते ही देखते उन पर बादलों की मोटी तहें बिछने लगी थीं। हवा तेज बह रही थी और ठण्ड से हमारा हाल बुरा होता जा रहा था। आखिरकार एक ऊंचे स्थान पर पहुंच कर हमने तय किया कि बूंदा-बादी के बीच अब आगे जाना ठीक नहीं है इसलिए हमने वापस दिंगबोचे की ओर लौटने का फैसला किया। थोड़ी ही देर में बर्फ के छोटे-छोटे फोहे हमारे कपड़ों पर चमकने लगे थे और हम प्रकृति के इस करतब का मजा लेते हुए तेजी से वापस लौट रहे थे।
गोविन्द पंत राजू