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अखिलेश ने याद दिलाई 'सोशल जस्टिस' की, 40 साल बाद फिर मंडल राजनीति
लखनऊ: गठबंधन राजनीति के नए दौर में एक-दो नहीं बल्कि एक-दो दर्जन पार्टियों का गठबंधन हो रहा है। बीजेपी की हार वाले दोनों लोकसभा सीटों पर यही रणनीति अपनाकर सपा ने चमत्कारिक जीत दर्ज की। उत्साहित अखिलेश यादव ने जीत के तुरंत बाद "सोशल जस्टिस" का नारा उछाल दिया।
मनोज द्विवेदी
लखनऊ: गठबंधन राजनीति के नए दौर में एक-दो नहीं बल्कि एक-दो दर्जन पार्टियों का गठबंधन हो रहा है। बीजेपी की हार वाले दोनों लोकसभा सीटों पर यही रणनीति अपनाकर सपा ने चमत्कारिक जीत दर्ज की। उत्साहित अखिलेश यादव ने जीत के तुरंत बाद "सोशल जस्टिस" का नारा उछाल दिया।
सहयोगी दलों को धन्यवाद दिया और रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाकर बनी काजू की बर्फी लेकर मायावती से मिले। यह ठीक उस दौर के लौटने का संकेत है जब 40 वर्ष पहले पूर्व पीएम वीपी सिंह ने सामाजिक न्याय के नारे पर सबको जोड़ा और देश की राजनीति में भूचाल ला दिया।
राजनेता के तौर पर परिपक्व हो रहे अखिलेश ने बुधवार को सधे क़दमों से राजनीति के नए दौर का सफर शुरू कर दिया। जीत के बाद पहली बार पत्रकारों से मुखातिब अखिलेश ने कहा कि 2019 अभी बहुत दूर है। मात्र 20 मिनट बाद वे मायावती के बंगले पर पहुँच गए। मीडिया में कयास लगते रहे लेकिन अखिलेश ने 50 मिनट बात कर अगली रणनीति पक्की कर ली। सूत्रों की माने तो मायावती अखिलेश को कमान देने से पीछे नहीं हटेंगी और प्रदेश में अलग-अलग वर्ग की छोटी-छोटी पार्टियों का गठबंधन बनेगा और अखिलेश यादव उसका नेतृत्व करेंगे।
ऐसा ही प्रयोग राष्ट्रीय राजनीती में भी हो सकता है क्योंकि विशेषज्ञ मानते है की भाजपा ने भी 4 दर्जन पार्टियों की अपने साथ जोड़ा है, और विपक्षी भाजपा से नाराज दलों का महादल बनाएंगे।
सोशल जस्टिस के लिए हुआ पहला संविधान संशोधन
संविधान बनने के बाद सबसे पहला संसोधन सामाजिक न्याय के आधार पर शिक्षा के अधिकार को लेकर हुआ। पेरियार, भीमराव अम्बेडकर और वीपी ने सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन किये और राजनीति को बदला। पेरियार ने तो इस मुद्दे पर 1925 में ही कांग्रेस छोड़ दी और सोशल जस्टिस के लिए आंदोलन किया।
बसपा के ज्यादातर प्रणेताओं ने सोशल जस्टिस की लड़ाई लड़ी। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग भी एक समय सफल हुई, लेकिन सत्ता मिलने के बाद सरकारें खुद सामाजिक न्याय को भूल गयी। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वर्तमान के राजनीतिक हालात को देखते हुए सोशल जस्टिस का नारा सही रणनीति है और यह युवाओं के लिए नया है।
कैसी थी मंडल दौर की राजनीति
राजनीतिक दल जाति, धर्म को न मानने का नारा तो देती हैं लेकिन चुनाव की सारी रणनीति जातियों के इर्द-गिर्द ही बुनी जाती है। टिकट देने से लेकर संगठन और सरकार में पद देने तक जातिगत नफे नुकसान को देखा जाता है। साल 1977 की मंडल राजनीति में यही खेल खुल का खेला गया। सभी जातियों को उनकी जाति और संख्या के आधार पर आरक्षण का अभूतपूर्व आंदोलन चला और हर जाति से नेताओं की फौज निकली।
अब इनमे से कई नेता अलग-अलग पार्टियों में अपनी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो कुछ ने पार्टियां बना ली है। नए दौर की राजनीति में अब फिर सभी कुनबों को सामाजिक न्याय के नाम पर जोड़ा जाएगा। इसकी तैयारी अखिलेश यादव कर रहे हैं।
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