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HC ने तीन तलाक को बताया महिलाओं के साथ क्रूरता, कहा-संविधान से ऊपर नहीं पर्सनल लॉ बोर्ड

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Published on: 8 Dec 2016 7:18 AM GMT
HC ने तीन तलाक को बताया महिलाओं के साथ क्रूरता, कहा-संविधान से ऊपर नहीं पर्सनल लॉ बोर्ड
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इलाहाबाद: हाईकोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार देते हुए इसे महिलाआें के साथ क्रूरता बताया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसले में गुरुवार 8 दिसंबर को कहा कि तलाक मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है। कोर्ट ने कहा कि कोई पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान से ऊपर नहीं है।

तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूरता है। यह समाज और देश के हित में नहीं है। हालांकि मुस्लिम समुदाय के सभी वर्ग तीन तलाक को मान्यता नहीं देते किन्तु एक बड़ा मुस्लिम समाज तीन तलाक स्वीकार कर रहा है।

कोर्ट ने कहा है कि पवित्र कुरान में पति और पत्नी के बीच सुलह के सारे प्रयास विफल होने की स्थिति में ही तलाक का नियम है, किन्तु कुछ लोग कुरान की मनमानी व्याख्या करते हैं। पर्सनल लॉ संविधान द्वारा प्रदत्त वैयक्तिक अधिकारों के ऊपर नहीं हो सकता। हालांकि शादी व तलाक की वैधता पर कोर्ट ने कोई फैसला नहीं दिया किन्तु 23 साल की लड़की से 53 साल की उम्र में शादी की इच्छा रखने वाले पुरूष द्वारा दो बच्चों की मां को तलाक देने को सही नहीं माना।

कोर्ट ने कहा दूसरी शादी के लिए पहली पत्नी को तीन तलाक देकर हाईकोर्ट से सुरक्षा की गुहार नहीं की जा सकती। कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए नवविवाहित पति-ंपत्नी की सुरक्षा की मांग में दाखिल याचिका खारिज कर दी है। यह आदेश न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने श्रीमती हिना व अन्य की याचिका पर दिया है।

कोर्ट ने कहा कि कुरान में पुरुष को पत्नी के तलाक से रोका गया है। यदि पत्नी के व्यवहार या बुरे चरित्र के कारण वैवाहिक जीवन दुःखमय हो गया तो पुरुष विवाह विच्छेद कर सकता है। इस्लाम में इसे सही नहीं माना गया है। किन्तु बिना ठोस कारण के तलाक को धार्मिक या कानून की निगाह में सही नहीं ठहराया जा सकता। कई इस्लामिक देशों में पुरुष को कोर्ट में तलाक के कारण बताने पड़ते हैं तभी तलाक मिल पाता है।

इस्लाम में अपरिहार्य परिस्थितियों में ही तलाक की अनुमति दी गई है। वह भी सुलह के सारे प्रयास खत्म होने के बाद। ऐसे में तीन तलाक को सही नहीं माना जा सकता। यह महिला के साथ भेदभाव है जिसकी गारंटी संविधान में दी गई है।

कोर्ट ने कहा पंथ निरपेक्ष देशों में संविधान के तहत मार्डन सामाजिक बदलाव लाते हैं। भारत में भारी संख्या में मुसलमान रहते हैं। मुस्लिम औरतों को पुरानी रीति-ंरिवाजों व सामाजिक वाले वैयक्तिक कानून के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। ऐसे ही मिया की पत्नी उमर वी ने मुस्लिम अली से निकाह कर लिया। मियां दुबई में नौकरी करते हैं। उमर वी का कहना है कि टेलीफोन पर तीन तलाक दे दिया इसलिए उसने दूसरे से निकाह किया। जबकि हसीन मियां इससे इंकार कर रहे हैं। पत्नी तीन तलाक का सहारा लेकर अपने प्रेमी से निकाह को जायज ठहरा रही है। कोर्ट ने पुलिस अधीक्षक से सहायता लेने को कहा है।

और क्या कहा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने

-तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन है।

-कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान से ऊपर नहीं हो सकता।

-कुरान में कहा गया है कि जब सुलह के सभी रास्ते बंद हो जाएं तभी तलाक दिया जा सकता है।

-लेकिन धर्म गुरुओं ने इसकी गलत व्याख्या की है।

क्या कहा मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के एक्जीक्यूटिव मेंबर मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली के मुताबिक हम मुल्क के हर कानून और अदालत का सम्मान करते हैं। पर उसी कानून ने हमें यह हक दिया है कि किसी फैसले से हम इत्तेफाक नहीं रखते तो उसके खिलाफ अपील करें। ऐसे में साफ है कि हमारी आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की लीगल कमेटी इस फैसले को स्टडी करेगी और उसके खिलाफ अपील करेगी।

मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को अनकांस्टीट्यूशनल कहे जाने पर क्या कहा

मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली का कहना है कि क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि हमे संविधान से ऊपर मानकर यह फैसला दिया गया है। जबकि हकीकत है कि हमने हमेशा कानून के दायरे में काम किया है। हमारा कोई कदम असंवैधानिक है ही नहीं। ऐसे में हमारे देश का कानून ही हमें हक देता है कि हम पर्सनल ला को फालो करें तो असंवैधानिक होने की कोई स्थिति है ही नहीं।

ज़फ़रयाब जिलानी ने क्या कहा ?

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के लीगल अड्वाइज़र और बोर्ड के सदस्य ज़फ़रयाब जिलानी के मुताबिक़, अगर इलाहबाद हाई कोर्ट का फ़ैसला ओरल है या यह ओरल ऑब्ज़र्वेशन है तो उसकी कोई अहमियत नहीं है। अगर यह रिटेन है तो उसे देखकर अगर कुछ लीगल क़दम उठाने कि कोई ज़रूरत पड़ी तो क़दम उठाया जाएगा। वरना मामला सप्रीम कोर्ट में चल रहा है ऐसे में ये फ़ैसला रिटेन है तो कैसे आया ये देखने वाली बात होगी। उन्होंने ये भी कहा की इस मामले में चार फ़ैसले पहले ही सप्रीम कोर्ट दे चुका है।

क्या कहा मौलाना यासूब अब्बास ने

ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर आल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास ने कहा कि इस फैसले का हम स्वागत करते हैं। यह फैसला बिल्कुल मुनासिब है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बिल्कुल सही कहा है कि कोई भी संस्था कानून से ऊपर नहीं है। यासूब अब्बास के मुताबिक जैसे सती प्रथा को रोका गया उसी तरह ट्रिपल तलाक को खत्म किया जाना चाहिए जिस तरह सती प्रथा में बेगुनाह लड़कियों की जिंदगी तबाह होती थी उसी तरह ट्रिपल तलाक भी जिंदगियां तबाह कर रहा है। ऐसे में हम इस फैसले का न सिर्फ स्वागत करते हैं बल्कि इसको तुरंत कड़ाई से लागू करने की गुजारिश भी कर रहे हैं।



AIMPLB ने कहा-तीन तलाक नहीं होगा तो लोग अपनी पत्नियों का करेंगे कत्‍ल...

AIMPLB का अनोखा तर्क

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने एक अनोखा तर्क देते हुए तीन तलाक को औरतों की जान बचाने वाला बताया। शुक्रवार 2 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में बोर्ड ने कहा कि अगर तीन तलाक की व्यवस्था खत्म हो जाएगी तो लोग अपनी पत्नियों को कत्ल कर देंगे या जिंदा जलाने लगेंगे। बोर्ड ने साथ ही ये भी कहा कि समाज सुधार के नाम पर किसी समुदाय के पर्सनल लॉ नहीं बदले जा सकते

किस तरह दी दलील?

एआईएमपीएलबी ने अपनी दलील में कहा, “अगर पति-पत्नी के बीच गंभीर अनबन हो जाए और पति उसके साथ बिल्कुल न रहना चाहे, तो अदालतों के जरिए तलाक लेने और इसमें होने वाला खर्च आदमी को परेशान कर सकता है। वह ऐसे में अवैध और आपराधिक राह पर चलते हुए अपनी पत्‍नी का कत्ल या उसे जिंदा जला सकता है।”

अदालत में और क्या कहा?

एआईएमपीएलबी ने अदालत में कहा कि बहुविवाह, तीन तलाक (तलाक-ए-बिदात) और निकाह हलाला से कोई छेड़छाड़ संभव नहीं है। बोर्ड ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान शरीफ पर आधारित है। अदालतें इन पर अपनी व्याख्या नहीं कर सकतीं। उसने ये भी कहा कि ये गलत धारणा है कि तलाक के मामलों में मुस्लिम पुरुषों को एकाधिकार हासिल है। बोर्ड ने कहा कि इस्लाम के मुताबिक महिलाएं भी पुरुषों को तलाक दे सकती हैं।

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बहुविवाह पर क्या कहा?

बहुविवाह पर एआईएमपीएलबी ने कहा कि इस्लाम में इसकी गुंजाइश है, लेकिन बहुविवाह को वह बढ़ावा भी नहीं देता। बोर्ड ने कहा कि 1991 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासियों में 15.25, बौद्धों में 7.97, हिंदुओं में 5.80 फीसदी के मुकाबले मुस्लिमों में सिर्फ 5.73 फीसदी ही बहुविवाह देखा गया है। बोर्ड ने ये भी कहा कि इस्लाम ने हमेशा ही तलाक को गलत पाया है, सिर्फ जहां हालात सुधरने वाले न हों, वहीं तलाक की मंजूरी दी गई है। बोर्ड ने ये भी कहा कि कानून के जरिए मुस्लिम महिलाओं के हकों की सुरक्षा की गई है। फिर अदालत इसमें कोई दखलंदाजी नहीं कर सकती।

आगे की स्‍लाइड में पढ़ें परिवार अदालतों में सबसे ज्यादा मामले मुस्लिमों के...

परिवार अदालतों में सबसे ज्‍यादा मामले मुस्लिमों के

गोंडा जिले के परिवार न्यायालय में कुल 2674 मामले लंबित हैं। इसमें हिन्दू और मुस्लिम का अनुपात 60-40 का है। सर्वाधिक मामले गुजारा भत्ता के हैं जिसमें 50 फीसदी मुस्लिम महिलाओं से जुड़े हुए हैं। परिवार न्यायालय में हर माह औसतन 250 से 300 वाद दायर होते हैं। हर महीने औसतन दो या तीन मामलों में ही तलाक का आदेश हो पाता है। परिवार परामर्श केन्द्र में बीते आठ वर्षों में मुस्लिम महिलाओं से संबंधित तलाक के एक हजार से अधिक ऐसे मामले आए, जिसमें पति द्वारा फोन पर या मौखिक तलाक देने की बात कही गई। यहां पारिवारिक विवाद के जो मामले आते हैं उनमें 40 फीसदी मुस्लिम परिवारों से संबंधित होते हैं। इसमें बमुश्किल 20 फीसदी में ही पति-पत्नी में मिलन हो पाता है जबकि हिन्दू दंपत्तियों में यह अनुपात 60 फीसदी है।

रायबरेली में एक चौथाई मामले मुस्लिमों के:

परिवार अदालत में इस साल जनवरी से अब तक कुल 397 मामले आए हैं। इनमें करीब एक चौथाई मामले मुस्लिमों के हैं। बीते नौ महीने में मुस्लिमों से जुड़े कुल 107 मामले आए हैं। इनमें ज्यादातर मामले तलाक के हैं जो कि महिलाओं की तरफ से दायर किए गए हैं। कुछ मामले बीवी को गुजारा भत्ता दिए जाने के हैं। उदाहरण के तौर पर, जहरुन्निशा (पत्नी अनवर केसरिया सलेमपुर रायबरेली) का मामला 18 अक्टूबर को फैमिली कोर्ट में आया। इस महिला की शादी को सात साल हो गए हैं। उसका पति उसे मारता पीटता है। जहरुन्निशा के तीन बच्चे थे लेकिन तीनों खत्म हो गए। पति की मार से तंग आकर जहरुन्निशा ने तलाक की अर्जी दी है।

महोबा में तीस फीसदी मामले मुस्लिमों से जुड़े:

महोबा में पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र पर हर महीने घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीडऩ तथा संबंध विच्छेदन से जुड़े लगभग 50 मामले दर्ज किए जाते हैं। इनमें से 20 से 30 फीसदी मामले अल्पसंख्यकों के होते हैं। इस समुदाय के मामलों में अधिकांश पारिवारिक विवाद या घरेलू बंटवारे से जुड़े होते हैं। तलाक के मामले दस फीसद ही होते हैं।

मेरठ में प्रतिमाह आते हैं करीब 150 मामले

पारिवारिक अदालत में प्रतिमाह करीब 150 मामले आते हैं। इनमें तलाक के करीब 70, खर्चे के 60 और शेष अन्य उत्पीडऩ के मामले होते हैं। पारिवारिक मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता फखरे आलम कहते हैं कि पारिवारिक अदालत में मुस्लिम समुदाय से जुड़े तलाक संबंधी मामले न के बराबर होते हैं। वजह यह है कि मुस्लिमों में आमतौर पर तलाक के मामले अदालत से बाहर ही निपटा दिए जाते हैं। एक-दो मामले ही ऐसे होते हैं जहां दोनों पक्ष अदालत की राह चुनते हैं। आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में परिवार अदालत में 1704 मामले आए जिनमें 565 मामले तलाक के थे। 329 सहमति से तलाक और 820 मामले साथ रहने के थे।

आगरा में 1873 मुकदमेंं मुस्लिमों के

आगरा की परिवार अदालत में 12,239 मुकदमे लंबित हैं। इनमें 1873 मुकदमे मुस्लिमों से जुड़े हुए हैं। इनमें 783 गुजारा भत्ता और 1090 ममाले तलाक के हैं। इनके अलावा परिवार परामर्श केन्द्र में मुस्लिम महिलाओं से जुड़े करीब 239 केस चल रहे हैं।

गोरखपुर में बदनसीबी झेल रही सैकड़ों महिलाएं

बस्ती-गोरखपुर मंडल में तीन तलाक से पल भर में मजाक बनीं मुस्लिम महिलाओं की खासी तादाद है। सिद्धार्थनगर, महराजगंज, संतकबीर और कुशीनगर में सैकड़ों महिलाएं बदनसीबी झेल रही हैं। सिद्धार्थनगर की महदेवा निवासी तस्नीम को सऊदी अरब में रह रहे शिक्षक पति ने व्हाट्सएप से तलाक का संदेश भेजा था। तस्नीम आज तीन साल के दिव्यांग बेटे और सात माह की बिटिया के साथ अपने हक की जंग लड़ रही हैं। कुछ मुस्लिम प्रगतिशील महिलाएं इस मुद्दे पर मुखर हो रही हैं। ऐसी ही एक हैं पडरौना की सामाजिक कार्यकत्री फातिमा बेगम, जो तीन तलाक जैसी सामाजिक बुराई के प्रति महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वे कहती हैं कि मुस्लिम पुरुषों में चार विवाह और तीन तलाक जैसी कुरीति अब नहीं चलेगी। गोरखपुर में हिन्दू तलाक के 326 मुकदमे लंबित हैं लेकिन मुस्लिमों से जुड़ा एक भी मामला लंबित नहीं है।

कानपुर में पांच फीसदी मामले ही पहुंचते हैं कोर्ट तक

कानपुर में परिवार अदालत में कुल 5143 मामले हैं। इनमें से 416 मुस्लिम समुदाय के हैं। असल में मुस्लिम समुदाय से जुड़े अधिकांश मामले न्यायालय तक नहीं पहुंचते हैं। क्योंकि मौलाना, पारिवारिक या रिश्तेदारों के स्तर पर आपस में समझौता कराया जाता है। आंकड़े बताते हैं कि मुश्किल से 2 से 5 प्रतिशत मामले ही कोर्ट तक पहुंचते हैं। परिवार अदालत में मुस्लिम समुदाय के अधिकतर मामले पारिवारिक प्रताडऩा और लड़ाई-झगड़ों के ही आते हैं। फिलहाल इस तरह के लगभग 217 मामले चल रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में तलाक के मामले आपसी बातचीत से हल करने का प्रयास किया जाता है। इसके बाद भी अदालत में तलाक के करीब 91 मामले चल रहे हैं।

फतेहपुर में सर्वाधिक मामले मुस्लिमों के

फतेहपुर जिले की कुल आबादी लगभग 38 लाख है जिसमें मुस्लिम 16 प्रतिशत हैं लेकिन पारिवारिक न्यायालयों में चल रहे मामलो में सबसे ज्यादा संख्या मुस्लिम परिवारों की है। गुजारा भत्ता देने के आदेश के बावजूद पीडि़त महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं दिलाया जा पा रहा है। उदाहरण के तौर पर, पारिवारिक अदालत से दो वर्ष पूर्व आदेश होने के बाद भी शबा तस्कीम नाम की महिला अपने पति वहीदुल्ला खान से न तो एक पैसा गुजारा भत्ता पा सकी है और न ही प्रशासन अदालती आदेश के आधार पर 1.35 लाख रुपए की रिकवरी करा सका है। शबा तस्कीम की गरीबी और बेचारगी को देखते हुए अदालत के कर्मचारी ही चन्दा करके उसकी मदद कर रहे हैं।

‘‘मुस्लिम लॉ में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी’’

सरकार या न्यायालय समाज सुधार के बहाने मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव नहीं कर सकते हैं। हमारा देश आजाद है और यहां पर सभी धर्मों को मजहबी आजादी हासिल है। ऐसे में मुस्लिम लॉ में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

– मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी, मोहतमिम (वीसी), दारुल उलूम, देवबंद

‘‘इस ज्यादती का जवाब देना होगा’’

केंद्र सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लागू करना चाहती है जिसका यह पहला कदम है। सरकार अपने घोषणा पत्र की लाइन पर काम कर रही है। लेकिन आर्टिकल 25 में सभी को मौलिक अधिकार हैं। शादी, निकाह, तलाक, हलाला इसी में आता है। ऐसे में किसी पर भी कोई कानून थोपा नहीं जा सकता है। देश के प्रधानमन्त्री देश से ज्यादा विदेश में रहते हैं। विदेशों में भी उन्हें इस ज्यादती का जवाब देना होगा।

– जफरयाब जीलानी,

सदस्य आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, यूपी के एडीशनल एडवोकेट जनरल

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