आनंदमयी मां: एक महान साधिका और शक्तिस्वरूपा, पति को बनाया शिष्य और साधक

श्री आनंदमयी मां का जन्म 30 अप्रैल 1896 को वर्तमान बंग्लादेश के ब्राह्मणबारिया जिले जो तब तिप्पेराह जिला था के खेउरा ग्राम में हुआ था।

Ramkrishna Vajpei
Report Ramkrishna VajpeiPublished By Deepak Kumar
Published on: 26 Aug 2021 6:02 PM GMT (Updated on: 26 Aug 2021 6:04 PM GMT)
Anandmayi Maa is a great seeker and Shaktiswaroopa
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आनंदमयी मां: एक महान साधिका और शक्तिस्वरूपा, पति को बनाया शिष्य और साधक। (Social Media)

यूं तो इस देश में अनेकानेक महान आध्यात्मिक संत हुए हैं लेकिन इनमें आनंदमयी मां सबसे अलग हैं। डिवाइन लाइफ सोसायटी के शिवानंद सरस्वती ने उन्हें योग गुरु और संत की उपाधि देते हुए कहा था कि वह भारतीय मिट्टी का सबसे उत्तम फूल हैं। परमहंस योगानंद ने संस्कृत के विशेषण आनंदमयी का अंग्रेजी में अनुवाद "जॉय-परमिटेड" के रूप में किया है। यह नाम उन्हें उनके भक्तों द्वारा 1920 के दशक में दिया गया था ताकि उनकी दिव्य आनंद की शाश्वत स्थिति को समझा जा सके।

श्री आनंदमयी मां का जन्म 30 अप्रैल 1896 को वर्तमान बंग्लादेश के ब्राह्मणबारिया जिले जो तब तिप्पेराह जिला था के खेउरा ग्राम में हुआ था। उनके पिता बिपिन बिहारी भट्टाचार्य मूल रूप से त्रिपुरा के विद्याकूट के थे और वैष्णव गायक थे। मां मोक्षदा सुंदरी दोनों ही वैष्णव मत को मानने वाले थे। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम निर्मला सुंदरी रखा था। निर्मला सुंदरी ने सुलतानपुर और खेउरा के ग्रामीण स्कूलों में आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। भाव अवस्था में भक्ति उन्हें अपनी मां से विरासत में मिली थी। उनकी मां मोक्षदा सुंदरी भी अक्सर ईश्वर की प्रार्थना में भाव समाधि में चली जाती थीं, लेकिन अपनी पुत्री की ये दशा देख वह चिंतित हो गईं। एक बार वह बीमार पड़ीं सब उनकी हालत देख परेशान हो गए लेकिन बच्ची निर्मला पर कोई असर नहीं हुआ।

उस समय की बाल विवाह की परंपराओं के चलते 13 साल की उम्र में उनका विवाह रमानी मोहन चक्रवर्ती से हो गया। जिन्हें बाद में मां आनंदमयी ने भोलानाथ नाम दिया। लेकिन विवाह के बाद लगभग छह वर्षों तक वो अपने जेठ के घर पर ही रहीं। वहां भी घर के काम काज करते वक्त वो अक्सर अपनी सुध बुध खो बैठतीं और भाव समाधि में चली जातीं। यहीं पर उनके एक पड़ोसी हरकुमार ने उन्हें मां कहना शुरू किया। हरकुमार को लोग पागल कहा करते थे। लेकिन उसी ने सबसे पहले आनंदमयी को मान्यता दी और उनकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता की घोषणा की, उन्हें "मा" के रूप में संबोधित करना और सुबह-शाम श्रद्धापूर्वक प्रणाम करना शुरू किया।

जब निर्मला लगभग 18 वर्ष की हुई, वह अपने पति के साथ रहने चली गई जो अष्टग्राम शहर में काम कर रहा था। 1918 में, वे बजीतपुर चले गए, जहां वह 1924 तक रहीं। यह एक अविवाहित विवाह था - जब भी रमानी उन्हें पत्नी के रूप में हासिल करना चाहते, तो निर्मला का शरीर निश्चेष्ट हो जाता।

मां आनंदमयी सासांरिक कामनाओं और वासनाओं से कोसो दूर थीं। उनके पति ने जब उन्हें सांसारिक कामनाओं में लाने का प्रयास किया तो उन्होंने एक दिन अपने पति को अपने अंदर मां काली का स्वरुप दिखा इसके बाद उनके पति ने भी उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। मां आनंदमयी ने उन्हें भोलानाथ नाम देकर साधना के पथ पर भेज दिया वह भोलानाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

धीरे धीरे मां आनंदमयी की सिद्धियों और उनकी साधना की चर्चा पूरे देश में होने लगीं और हजारों की तादाद में लोग उनके दर्शनों को आने लगें । मां पूरे देश में भ्रमण करने लगीं । इसी दौरान विश्व प्रसिद्ध संत योगानंद से उनकी मुलाकात हुई जिसका जिक्र परमहंस योगानंद जी ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक 'एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी' पुस्तक में किया है।

इस दौरान निर्मला सार्वजनिक कीर्तन के जरिये परमानंद में चली गईं। वह ज्योतिचंद्र राय थे, जिन्हें "भाईजी" के नाम से जाना जाता है, उन्होंने सबसे पहले सुझाव दिया कि निर्मला को आनंदमयी माँ कहा जाए, जिसका अर्थ है "जॉय परमिटेड मदर", या "ब्लिस पर्मिटेड मदर"। वह मां के प्रारंभिक और करीबी शिष्य थे और मुख्य रूप से रमना काली मंदिर की सीमा के भीतर, रमना में 1929 में आनंदमयी मां के लिए बनाए गए पहले आश्रम के लिए जिम्मेदार थे। 1926 में, उन्होंने सिद्धेश्वरी क्षेत्र में पूर्व में परित्यक्त प्राचीन काली मंदिर को बहाल किया। शाहबाग में समय के दौरान, अधिक से अधिक लोग उनकी ओर आकर्षित होने लगे, जिन्हें वे परमात्मा के एक जीवित अवतार के रूप में देखते थे।

मां के भक्तों में स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी रहीं। वह अक्सर मां आनंदमयी से मिलने कनखल हरिद्वार जाया करती थीं। उनके साथ संजय गांधी भी मां के पास जाते थे। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी को उन्होंने एक रुद्राक्ष की माला दी थी जिसे उनकी जीवन रक्षा के लिए हमेशा पहने रखने का आदेश दिया था। कहते हैं जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई उस दिन वो माला उन्होंने नहीं पहनी थी और उसे मरम्मत के लिए उतार दिया था।

आनंदमयी मां और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बीच भी आध्यात्मिक संबंध थे । मां उन्हें पिताजी कह कर बुलाती थीं और बापू उन्हें मां कहते थे। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भी मां के परम भक्तों में एक थे। गांधी जी के निधन के बाद मां ने उनकी तुलना ईसा मसीह से की थी।

मां को ईश्वरीय सिद्धियां बिना गुरु के ही भक्ति से प्राप्त हो गईं थी। कहा जाता है कि वो लोगों के मन की बात जान लेती थीं और उन्हे वो भी सारी चीजें दिखती थी जो किसी को भी नजर नहीं आती थीं। 27 अगस्त 1982 को उनकी महासमाधि के बाद देश के सभी संप्रदायों के संतों ने उन्हें आधुनिक काल की सबसे महान संत का सम्मान दिया और हरेक संप्रदाय ने उनकी जीवन में इस्तेमाल की गई वस्तुओं को अपने मठो में स्थापित करवाया।

Deepak Kumar

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