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अंग्रेजों के जमाने से चल रही बाराचवर की रामलीला
रजनीश मिश्र
गाजीपुर: जिले के विकासखंड बाराचवर की रामलीला को देश की कुछ उन रामलीलाओं में से एक है जो ब्रिटिश इंडिया दौर में शुरू हुई थीं। विजयदशमी के दिन होने वाली इस रामलीला को देखने के लिए क्षेत्र के करीब सौ से अधिक गांवों के हजारों लोग आते हैं। वैसे तो ब्लॉक मुख्यालय के एकाध गांवों में भी रामलीला का आयोजन होता है, लेकिन विजयदशमी के बाद। बारावचर की रामलीला क्षेत्र की पहली और बड़ी रामलीला होने के कारण लोगों को इसका वर्ष भर इंतजार रहता है।
बाराचवर ब्लॉक मुख्यालय की रामलीला अति प्राचीन होने के कारण काफी विख्यात है। रामलीला कमेटी ने बताया कि क्वार की प्रथम नवरात्रि से रामलीला शुरू होती है और विजयदशमी के दिन इसका समापन होता है। कहा जाता है कि इस रामलीला की तत्कालीन कोतवाल मोहम्मदाबाद भी सराहना कर चुके हैं।
सौ साल से किया जा रहा है आयोजन
गांव के बुजुर्ग चिखुरपत पांडे ने बताया कि ब्रितानी हुकूमत के समय से इस गांव में रामलीला का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि उस समय सिर्फ बाराचवर गांव में ही रामलीला होती थी जिसे देखने के लिए काफी संख्या में दूर-दूर से लोग आते थे।
वे कहते हैं कि तब धर्म और अध्यात्म के प्रचार-प्रसार का कोई और तरीका नहीं था। इसलिए दशहरा के दिन होने वाली रामलीला के जरिए जहां धर्म का प्रचार होता था वहीं लोगों का आपस में मेलजोल भी होता था। साथ ही यह मनोरंजन और रोजगार का साधन भी था।
परंपराओं का भी रखा जाता है ध्यान
इस प्राचीन रामलीला में हिन्दू धर्म की परंपराओं का भी ध्यान रखा जाता है। यह रामलीला पूर्ण रूप से रामचरित मानस पर आधारित है। इसमें कच्चे बांस से दशानन की प्रतीकात्मक पुतला बनाया जाता है। रावण वध के दौरान पंचक का भी ध्यान रखा जाता है। आयोजक इस बात का ध्यान रखते हैं कि सूर्यास्त से पहले रावणवध और उसका पुतला जला दिया जाए ताकि पंचक का दोष न लगे। साथ ही रावण के पुतले का निर्माण डोम करता है और पुतले के जले अवशेषों को अपने साथ ले जाता है।
रावण वध का प्रायश्चित भी किया जाता है। इस रामलीला की खास बात यह है कि नौ दिनों तक आसपास के गांवों में घूम-घूम कर इस रामलीला का आयोजन किया जाता है। सौ बरस पहले शुरू की गई यह परंपरा आज भी कायम है।
दो दिन होता है नाटकों का आयोजन
बता दें कि कभी लोगों के स्वस्थ मनोरंजन का साधन रहे नाटक और नौटंकी जहां एक तरफ दम तोड़ चुकी है वहीं बाराचवर की रामलीला में इसे जीवित किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो दशहरा के बाद दो दिन तक लोग ऐतिहासिक और धार्मिक नाटकों का आनंद लेते हैं। इसमें क्षेत्र के कलाकारों को भी मौका मिलता है।
दुकानदारों को भी रहता है मेले का इंतजार
दशहरा मेले का क्षेत्र के दुकानदारों को भी बेसब्री से इंतजार रहता है। करीमुद्दीनपुर के 70 वर्षीय कुम्हार मद्दू कहते हैं कि इस मेले में मिट्टी के खिलौने से लेकर लकड़ी और प्लास्टिक के खिलौने तक बिक जाते हैं। बाराचवर का मेला क्षेत्र में वर्ष का पहला मेला होता है। इसके बाद ही अन्य जगहों का दशहरा मेला शुरू होता है।
ब्राह्मण बच्चे निभाते हैं राम-सीता का किरदार
बाराचवर की इस अतिप्राचीन रामलीला में मर्यादा का भी खास ध्यान रखा जाता है। इस मेले में राम, लक्ष्मण और सीता का किरदार किशोर उम्र के ब्राह्मण बच्चे ही निभाते हैं। राम-सीता का स्वरूप मानते हुए इन बच्चों को लोग अपने-अपने घरों में निमंत्रित कर भोजन कराकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि जब रामलीला का आयोजन किया गया तो उस समय इस बात पर चर्चा हुई थी कि रामलीला में क्यों न ब्राह्मणों को ही राम, लक्ष्मण व सीता बनाया जाए। इस विचार को सभी लोगों ने एक स्वर से मंजूरी दी और तभी से इस परंपरा का निर्वाह आज तक किया जा रहा है।
इंद्रदेव सिंह की तीसरी पीढ़ी निभा रही जिम्मेदारी
अंग्रेजों के जमाने के बड़े जमींदार व रामलीला के प्रथम आयोजक इंद्रदेव सिंह की तीसरी पीढ़ी आज भी रामलीला की जिम्मेदारी निभा रही है। इंद्रदेव सिंह के किलानुमा घर में दशहरे के दूसरे दिन भरतमिलाप और राज तिलक किया जाता है। यह इतना बड़ा परिसर है कि भरत मिलाप और राजतिलक के दौरान आयोजित होने वाले भव्य कार्यक्रम के दौरान हजारों लोग एकसाथ बैठ कर आनंद लेते हैं।
इन्द्रदेव व महंत रामेश्वरपुरी ने शुरू कराई थी रामलीला
गांव के बुजुर्ग सेवानिवृत्त शिक्षक नंदकिशोर मिश्र, रामचीज सिंह और रउफ अंसारी ने बताया कि ब्रितानी हुकूमत के समय इलाके के बड़े जमींदार इंद्रदेव सिंह और श्री राम मंदिर के महंत रामेश्वर पुरी ने रामलीला मंचन की शुरुआत की थी। उस समय रामलीला के सहयोग के लिए बारचवर के कुछ सम्मानित लोग नवजादिक सिंह, रघुनाथ पांडे, तारकेश्वर सिंह व राजकुमार मिश्र आगे आए थे। इनके सहयोग से जमींदार इंद्रदेव सिंह व महंत रामेश्वर पुरी ने रामलीला को भव्य रूप दिया। लोग बताते हैं कि उस जमाने में संस्कृत और हिंदी के प्रकांड विद्वान गांव कंधौरा निवासी राधा पांडे इस रामलीला के पहले व्यास थे। तब से लेकर अब तक रामलीला का आयोजन होता आ रहा है। गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि उस समय मुकुट की जगह पर बांस की सुपेलियों को विभिन्न रंगों में रंगकर इस्तेमाल किया जाता था।
सौ साल से एक ही परिवार रामलीला कमेटी का अध्यक्ष
करीब सौ साल पहले इंद्रदेव सिंह ने रामलीला का आयोजन किया था। तब से लेकर अब तक उन्हीं के वंशज ही रामलीला के अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। कमेटी के सदस्य बताते हैं कि नवरात्र के पहले दिन भूमि पूजन से रामलीला शुरू होती है।
इससे पहले कमेटी की बैठक होती है जिसमें बाराचवर सहित आसपास के गांवों के गणमान्य लोग भी उपस्थित होते हैं जो सर्वसम्मति से उन्हीं के परिवार के लोगों को अध्यक्ष व सचिव बनाकर पुरानी परंपरा का निर्वहन करते हैं। कमेटी के लोगों ने बताया कि पहले स्वर्गीय जगदीश नारायण सिंह अध्यक्ष बने, उनके बाद स्वर्गीय अविनाश सिंह अध्यक्ष बने और अब उन्हीं के छोटे भाई भाजपा के वरिष्ठ नेता ब्रजेंद्र कुमार सिंह रामलीला कमेटी के अध्यक्ष हैं।