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...आर्डर, आर्डर, आर्डर, 85 जजों के सहारे 22 करोड़ की जनता का इंसाफ

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में 55 केस ऐसे हैं, जो फर्स्ट अपील में साल 1980 से लटके। यानी छोटे- छोटे मामलों में सजा हो चुकी है, पर उसकी अपील हुई है।

sujeetkumar
Published on: 5 May 2017 12:06 PM IST
...आर्डर, आर्डर, आर्डर, 85 जजों के सहारे 22 करोड़ की जनता का इंसाफ
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अनुराग शुक्ला अनुराग शुक्ला

लखनऊ: उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में एक मुकदमा चल रहा है। तहसील में। 37 साल से कूटरचित दस्तावेजों के आधार पर एक पक्ष ने यह साबित कर दिया कि 1980 में काश्तकार रहे प्रयाग नारायण शुक्ल की कोई औलाद नहीं है। वास्तविकता में उनके बेटे, पोते और प्रपौत्री तक है। अब उनके बेटे 37 साल से यह साबित करने में जुटे हैं, कि वह बिना पिता के पैदा नहीं हुए, अवतार नहीं लिया है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में 55 केस ऐसे हैं, जो फर्स्ट अपील में साल 1980 से लटके। यानी छोटे- छोटे मामलों में सजा हो चुकी है, पर उसकी अपील हुई है। सजा पाने वालों की दुर्गति हो गई है। इसी कोर्ट में 30 केस ऐसे हैं, जो 1978 से सेकेंड अपील में लटके हैं।

अगर साल 2000 के जनवरी महीने को आधार माने तो सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों की संख्या में क्रमशः 139 फीसदी, 46 फीसदी और 32 फीसदी का इजाफा हुआ है।

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यह तो महज बानगी है। देश में इस समय जजों का टोटा इस कदर है, कि अब न्यायपालिका की कमर मुकदमों की बोझ से टूटने तक की स्थिति में झुक गयी है। राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की साल 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2015 तक देश के विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे।

इनमें सर्वोच्च न्यायालय में 66,713 उच्च न्यायालयों में 49,57,833 और निचली अदालतों में 2,75,84,617 मुकदमे 2015 तक लंबित थे। इस साल के अंत तक भारत के अलग-अलग उच्च न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों की तादाद 1 करोड़ के आंकड़े को छू लेगी। फिलहाल यह संख्या 45 लाख है। बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षों में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी।

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इस समय सबसे बुरी बात यह है, कि इन हालातों से निजात का कोई रास्ता भी नहीं दिख रहा है। देश के 24 उच्च न्यायालयों में फिलहाल 41 फीसद न्यायमूर्तियों के पद खाली पड़ी हैं। जहां इन अदालतों में जजों की संख्या 1,044 होनी चाहिए थी, वहीं अभी यह संख्या केवल 632 है। पिछले एक साल के दौरान जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया एक तरह से थम गई है।

सुप्रीम कोर्ट में भी 5 पद खाली पड़े हैं। अगर यूपी की बात की जाए तो हालात कमोबेश इतने ही बुरे हैं। उच्च न्यायालय में इस समय इलाहाबाद और लखनऊ मिलकर कुल 175 जजों के पद स्वीकृत हैं इनमें से 90 पद खाली है। सिर्फ 85 जजों के सहारे 22 करोड़ की जनता इंसाफ की गुहार करती है।

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क्या हैं रिक्तियों का पेंच

नैशनल जूडिशल अपॉइंटमेंट्स कमिशन (एन.जे.ए.सी) की वैधता को लेकर विधायिका और न्यायपालिका के बीच की संवैधानिक लड़ाई में यह नियुक्तियां लटकी हुई हैं। एन.जे.ए.सी और कॉलेजियम सिस्टम पर चल रही बहस के दो छोर हैं। एक का दावा है कि हमारे देश के सर्वशक्तिमान न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले का अधिकार कुछ न्यायाधीशों के पास केवल इसलिए रहना चाहिए, क्योंकि वे न्यायपालिका परिवार का हिस्सा होने के कारण उनके बारे में बेहतर समझ रखते हैं।

दूसरा छोर कहता है कि उसमें आम जनता के नुमाइंदों की भी भागीदारी होनी चाहिए, क्योंकि न्यायाधीश केवल न्यायपालिका के ही नहीं, बल्कि पूरे समाज कि हितरक्षक होते हैं, और उनकी नियुक्ति प्रक्रिया में आम जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को स्वर मिलना चाहिए। एन.जे.ए.सी से जुड़ी व्यवस्था को रद्द करने के खिलाफ तीन तर्क दिए जाते हैं।

पहला, यह कि न्यायिक नियुक्तियों में गैर न्यायिक सदस्यों के होने के कारण न्यायपालिका के लोग अल्पमत में आ जाएंगे, जिससे न्यायिक सर्वोच्चता बरकरार नहीं रह पाएगी। दूसरा, यह कि इस प्रकार की नई व्यवस्था की वजह से न्यायिक स्वतंत्रता को चोट पहुंचेगी जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करेगी और तीसरा, यह कि न्यायिक परिवार की जरूरतों के बारे में न्यायपालिका के लोगों के पास ही समुचित जानकारी और समझ होता है।

टकराव की मूल वजहों में एक है, न्यायिक नियुक्तियों में राष्ट्रीय हित के नाम पर सरकार को वीटो पावर देने और जजों के चयन में एटार्नी जनरल की सहमति की जरूरत। न्यायपालिका की दलील है कि एटार्नी जनरल सरकार का वरिष्ठतम न्यायिक अधिकारी होता है और उसकी नियुक्ति हमेशा ही राजनीतिक आधार पर होती है।

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1993 से पहले हमारे यहां भी इस विषय पर कोई विवाद नहीं था। 1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में न्यायपालिका की राय को सर्वोच्चता देने की बात कही। इससे पहले संविधान में यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।

अनुच्छेद 124 और 217 में राष्ट्रपति से जरूर यह अपेक्षा की गई थी कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय देश के मुख्य न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वहां के राज्यपाल से भी मशविरा करें।

क्यों है मुकदमों का अंबार

भारत में जमींदारी उन्मूलन से पहले समय पर लगान अदा नहीं करने वाले काश्तकारों की जमीनें नीलाम कर दी जाती थीं। देश की अदालतों में ज्यादातर स्वत्ववाद यानी टाइटिल सूट नीलामी की प्रक्रिया को चुनौती देने को लेकर है। मौजूदा समय में कई ऐसे भू-माफिया गिरोह सक्रिय हैं, जो पूर्व जमींदारों के साथ मिलकर ब्रिटिश कालीन सादे स्टांप पेपर पर फर्जी दस्तावेज तैयार करते हैं। इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर वे न्यायालय में मुकदमा भी दायर करते हैं।

उनकी याचिकाएं मंजूर भी हो जाती हैं। इस तरह न्यायालयों में बेबुनियाद मुकदमों की शुरूआत हो जाती है। निचली अदालतों में जाली दस्तावेजों की जांच करने की प्रक्रिया बहुत लंबी और उबाऊ है। लिहाजा कानून के साथ खिलवाड़ करने वालों को एक सुनहरा मौका मिल जाता है। सही मायनों में न्यायपालिका में सुधार की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी है इस तरह के भ्रष्टाचार को रोकना।

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असल में बार और बेंच न्यायिक प्रक्रिया के मूल आधार हैं। मुकदमों के अंबार लगने की पीछे बड़ी वजह है धीमी सुनवाई। स्थिति यह है दीवानी का मामला हो या फौजदारी का, मुंसिफ कोर्ट में मुकदमे पच्चीस-तीस साल तक चलते रहते हैं। वहां से फैसला हुआ तो सत्र न्यायालयों में बीस-पच्चीस साल लग जाता है।

वहां से उच्च न्यायालय में स्थगनादेश आदि मिलने पर दस-पांच साल और निकल जाते हैं। स्थिति लगातार भयावह होती जाती है। जिस तदाद में मुकदमे दायर होते हैं, उस अनुपात में निपटारा नहीं होता। जिला स्तर पर अधिवक्ताओं की हीला-हवाली और आए दिन हड़तालों की वजह से भी मामले लटके रहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय कई बार समयबद्ध सुनवाई करने का आदेश देती हैं, लेकिन जजों की कमी भी सुनवाई को प्रभावित करती है।

देशभर की अदालतों में करीब 3.14 करोड़ मुकदमें लंबित है, जिसमें से 46 फीसदी सरकार के हैं। न्यायापालिका का ज्यादातर वक्त सरकार के मुकदमों में ही चला जाता है। न्यायपालिका का बोझ तभी घट सकता है, जबकि मुकदमें सोच-समझकर दाखिल किए जाएं। कानून मंत्री ने कहा है कि गैर जरूरी मुकदमों को या तो वापस लिया जाए या फिर उनका जल्दी निपटारा कराया जाए। मुकदमेबाजी हतोत्साहित होनी चाहिए। बहुत जरूरी होने पर अंतिम उपाय के तौर पर ही मुकदमा किया जाए। इतना ही नहीं, सभी राज्य और मंत्रालय इस बारे में कानून मंत्रालय को तिमाही रिपोर्ट भेजेंगे, जिसमें बताया जाएगा कि कितने मुकदमें वापस लिए गए, कितने में सुलह हुई और कितने निपटाएं गए?

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सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज बी सुदर्शन रेड्डी ने कहा था कि उच्च न्यायालयों के खंडपीठ की तर्ज पर सर्वोच्च न्यायालय का खंडपीठ भी स्थापित होना चाहिए। इससे न सिर्फ लंबित मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी बल्कि यह पक्षकारों के लिए भी फायदेमंद साबित होगा। साथ ही उन्होंने इस पर जोर दिया था कि न्यायपालिका के सुधार की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी है अदालतों का आधुनिकीकरण।

फर्जी दस्तावेजों की जांच के लिए फोरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या कम है। देश के हर बड़े शहरों में इस तरह की प्रयोगशालाएं स्थापित करने की जरूरत है। साथ ही मुकदमे से जुड़े सभी दस्तावेजों का डिजिटलीकरण भी करना चाहिए। न्यायालय परिसरों को सुरक्षित बनाने की आवश्यकता है। ऐसे मामलों को रोकने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी संशोधन करना चाहिए और दोषी लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।

कुछ जानकारों का मानना है कि जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ानी चाहिए, इससे मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी। इजराइल, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 साल के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिए कोई आयु सीमा तय नहीं है। फिर भारत में ही हाईकोर्ट जजों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 वर्ष क्यों है ? वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट में यह आयु 65 वर्ष है।

विशेष अदालतें गठित की जाए

-लंबित मुकदमों के लिए क्या है विधि आयोग की सिफारिशें।

-न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की कमी को पूरा किया जाय।

-जिन राज्यों में मुकदमों का बोझ अधिक है, वहां विशेष अदालतें गठित किया जाय

-उच्च न्यायालय का विकेंद्रीकरण यानी सभी राज्यों में इसके खंडपीठ का गठन किया जाए ताकि मुकदमों के निस्तारण में तेजी आए।

-छुट्टियों के समय भी न्यायालय में मामलों की सुनवाई हो ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।

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कॉलेजियम क्या है ?

-देश की अदालतों (सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट) में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को ‘कॉलेजियम सिस्टम’ कहा जाता है।

-1993 से लागू इस सिस्टम के जरिए ही जजों के ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन का फैसला होता है।

-कॉलेजियम 5 लोगों का एक समूह है।

-इसमें भारत के चीफ जस्टिस समेत सुप्रीम कोर्ट के 4 सीनियर जज मेंबर हैं।

-इस सिस्टम को नया रूप देने के लिए एनडीए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त‍ि आयोग (एनजेएसी) बनाया था।

-यह सरकार द्वारा प्रस्तावित एक संवैधानिक संस्था थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया।

एनजेएसी में 6 मेंबर रखने का प्रस्ताव था, जिसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के साथ SC के 2 वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ीं 2 जानी-मानी हस्तियों को बतौर सदस्य शामिल करने की बात थी। लेकिन इसे यह कहकर रद्द किया गया कि जजों के सिलेक्शन और अपॉइंटमेंट का नया कानून गैर-संवैधानिक है। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा।

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रविशंकर प्रसाद

सरकार का सबसे बड़े मुकदमेबाज होना चिंता का विषय है। सरकार को बेवजह की मुकदमेबाजी से बचना चाहिए।

बृजेश पाठक कानून मंत्री यूपी

एस सी- एस टी एक्ट के लिए हम लोग 100 दिन में 25 नए फास्ट ट्रैक कोर्ट खोलने जा रहे महिलाओं पर अत्याचार के मामलों के लिए सौ अलग से नए फास्ट ट्रैक कोट बनाए जाएंगे।

जजों की भर्ती एक प्रक्रिया है वह अपना समय लेगी। उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा करने की बात की है। नए फास्ट ट्रैक कोर्ट में 1100 न्यायिक अधिकारियों की भर्ती के अलावा 275 नए पद भी सृजित किए जाएंगे।

जफरयाब जिलानी पूर्व अपर महाधिवक्ता यूपी

दअसल जजों की नियुक्ति में सिर्फ केंद्र सरकार दोषी है। उसने अपने पास 60 नाम रोक रखे है। यही वजह है कि अब नये नाम भी नहीं जा रहे है। वरना स्थितियां इतनी खराब न होतीं।

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