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अटल जी तो अमर हैं, जहन में ताजा हैं अनमोल यादें

sudhanshu
Published on: 16 Aug 2018 2:23 PM GMT
अटल जी तो अमर हैं, जहन में ताजा हैं अनमोल यादें
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के के उपाध्याय

लखनऊ: बात 1985 की है। मैं तब 11 वीं क्लास में था। जेसी मिल स्कूल ग्वालियर में पढ़ता था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का निधन हो चुका था। लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी बाजपेयी के ग्वालियर से लड़ने की घोषणा हुई। तब तक मैंने सिर्फ सुना था कि अटल जी जैसा कोई वक्ता नहीं है देश में। उनकी तुलना पंडित नेहरू से की जाती थी। बहुत इच्छा थी उन्हें सुनने की। जैसे ही अटल जी के ग्वालियर से चुनाव लड़ने का पता चला तो मुझे लगा कि मेरी इच्छा पूरी होने वाली है। उनकी पहली सभा ग्वालियर के हजीरा में तानसेन के मकबरा के पास वाले मैदान में होनी थी। मैं भी सुनने गया था, उनके भाषण की वे लाइनें आज भी मुझे याद हैं- “देश एक बार फिर तकदीर के तिराहे पर खड़ा है। देश की एकता अखंडता खतरे में है। असम सुलग रहा है। कश्मीर जल रहा है। दक्षिण के हालात भी ठीक नहीं है। चारों और हाहाकार है। लेकिन इस बार चुनाव लड़ने में मजा नहीं आ रहा है...इंदिरा जी हमारे बीच नहीं हैं। वे हमारी विरोधी थीं .....उनसे दो दो हाथ करने में बात ही कुछ और थी”। राष्ट्रीय मुद्दों पर जो धार उनके भाषण में थी वहीं वे स्थानीय मुद्दों पर भी कटाक्ष कर रहे थे, एक बानगी उसी भाषण की देखिए- “शिक्षा का हाल खराब है। स्कूल हैं नहीं। स्कूल हैं तो शिक्षक नहीं है। शिक्षक हैं तो टाटपट्टी नहीं है। सब कुछ है तो पढ़ाई नहीं है। यह हालात बदलने होंगे”।

भाषण में होती थी आम जनमानस की पीड़ा

उनके भाषण में आम जनमानस की पीड़ा होती थी। उस समय शक्कर बहुत मंहगी बिक रही थी। वे बोले थे “गरीबों की चाय कड़वी हो गई है...चीनी मंहगी हो गई है”। मैं उनके भाषण का दीवाना हो गया था। इस सभा के बाद उनका अगला भाषण महाराज बाड़े पर था। हजीरा से कोई 7 किलोमीटर दूर। मैं साइकिल लेकर दौड़ा । बस उसके बाद मैंने उनकी हर सभा सुनी। तब रैलियां नहीं होती थीं। आमसभा होती थीं। उनकी सभा में मैंने देखा विरोधी दल के नेता भी अटल जी की सभा सुनने जाते थे। उस चुनाव में मैंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। अपनी अर्धवार्षिक परीक्षा भी छोड़ दी। नामांकन के आखिरी दिन ग्वालियर से कांग्रेस से माधव राव सिंधिया ने नामांकन दाखिल कर दिया। तब अटल जी को राजमाता विजया राजे सिंधिया ने कहा मेरा हेलीकाप्टर ले जाइए और कोटा (राजस्थान) से भी नामांकन दाखिल कर दें। अटल जी ने साफ इंकार कर दिया । अब जो होगा यहीं होगा। यह चुनाव बहुत रोमांचक हो गया था। अटल जी ने ग्वालियर में हर नुक्कड़ पर सभा की थी। मैंने उनकी हर ज्यादातर सभाओं को सुना था। अटल जी ने दिन रात एक कर दिया था। खाना भी वे किसी भी गांव में किसी भी कार्यकर्ता के घर जैसा भी होता खा लेते थे।

अटल बिहारी की करतेे थे मिमिक्री

मैं अटल जी की मिमिक्री करने लगा था। उनके छपे भाषण को हूबहू माईक पर उनकी शैली में पढ़ता था। एक दिन अटल जी ने पूछ लिया यह कौन है...। तब पहली बार मेरी अटल जी से मुलाकात हुई । उन्होंने बुलाया और कहा ...मेरी नकल करते हो ...और कुछ देर के लिए शांत होकर देखते रहे । यह उनकी शैली थी। मैं डर गया था मैंने कहा अब नहीं करूंगा...तब वो हंसे और बोले करोगे क्यों नहीं करते रहो। उस समय इंदिरा गांधी की मौत से उपजी सहानुभूति लहर में अटल जी हार गए थे। हारने के बाद वो फिर सभा करने ग्वालियर आए। अपने चिरपरिचित अंदाज में वे बोले आज आमसभा में भीड़ ज्यादा है। कुछ लोग तो देखने आए हैं कि अटल जी हारने के बाद कैसे लगते हैं। लेकिन हार-जीत से किंचित भी मैं भयभीत नहीं होता। हमने तो जिस दिन घर बार छोड़ा था तभी झोला लेकर निकल लिए थे। मुझे ग्वालियर का होने का लाभ यह था कि फिर मैं बार बार उनसे मिलता रहा। पत्रकारिता भी स्वदेश से प्रारंभ हुई। विपक्ष के नेता रहने तक अटल जी से मिलना कठिन नहीं था। ग्वालियर के बिरलानगर स्थित ताराविद्धयापीठ में भी वे जाते थे। ताराविद्य़ापीठ के संस्थापक स्व. पंडित रमेश उपाध्याय से वे जुड़े हुए थे। मैं वहां का शिष्य रहा हूं। अटल जी के भानजे अनूप मिश्रा (सांसद मुरैना) मेरे मित्र थे। वे प्रतिदिन यहां आते थे। ताराविद्धयापीठ पर अटल जी के लिए हवन इत्यादि भी हुए । बाद में वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यहां आए। अटल जी की बात निराली थी। आज मैं लखनऊ में हूं। जब भी अपनी टीम से अटल जी की बात छेड़ देता हूं सभी उनके किस्से बताने लगते हैं। उनके खाने के शौक और उनकी किस्सागोई...। जैसे हरेक से उनका व्यक्तिगत नाता है। रिश्ता है। अटल जी जैसे लोग कभी मरा नहीं करते वे अमर रहते हैं...।

(लेखक दैनिक हिंदुस्तान उत्तरप्रदेश के संपादक हैं)

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