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रामराज्य परिषद के समर्थन से पहला चुनाव जीते थे अटल, बलरामपुर से था खास रिश्ता

लखनऊ और मथुरा में हारने वाले वाजपेयी के लिए बलरामपुर का चुनाव भी आसान नहीं था। लेकिन अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के संस्थापक स्वामी करपात्री ने अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन कर इस पूरे चुनाव को हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कर दिया और फिर वाजपेयी नौ हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीत गए।

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Published on: 25 Dec 2020 3:44 AM GMT
रामराज्य परिषद के समर्थन से पहला चुनाव जीते थे अटल, बलरामपुर से था खास रिश्ता
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रामराज्य परिषद के समर्थन से पहला चुनाव जीते थे अटल, बलरामपुर से था खास रिश्ता

गोंडा: जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष रहे अटल विहारी वाजपेयी ने भारतीय राजनीति में जो शानदार पारी खेली उसका प्रशिक्षण उन्होंने गोंडा जनपद के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र में ही प्राप्त किया था। लेकिन यह कम लोगों को पता होगा कि 1952 में लोकसभा चुनाव हार चुके अटल बिहारी वाजपेयी को 1957 में बलरामपुर से लोकसभा पहुंचाने में हिन्दुत्वादी पार्टी अखिल भारतीय रामराज्य परिषद का अहम योगदान था।

लखनऊ और मथुरा में हारने वाले वाजपेयी के लिए बलरामपुर का चुनाव भी आसान नहीं था। लेकिन अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के संस्थापक स्वामी करपात्री ने अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन कर इस पूरे चुनाव को हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कर दिया और फिर वाजपेयी नौ हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीत गए।

तीन क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे थे अटल बिहारी

पार्टी के संस्थापक रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बाद जनसंघ के पास कोई अच्छा वक्ता और नेतृत्व कर्ता नहीं था, जो संसद में पार्टी की बात रख सके। अटल बिहारी वाजपेयी 1952 का चुनाव हार चुके थे और जनसंघ के अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई थी। लेकिन इसके बाद भी पंडित दीन दयाल उपाध्याय चाहते थे कि वाजपेयी संसद पहुंचे। वाजपेयी को संसद भेजने के लिए मौका 1957 का लोकसभा चुनाव था। इस चुनाव में वाजपेयी का संसद पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने इस बार अटल बिहारी वाजपेयी को एक नहीं, बल्कि तीन सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़वाया था।

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चुनाव परिणाम आए तो लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी को 57034 वोट मिले थे और वह दूसरे नंबर पर रहे थे। कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी ने लखनऊ में वाजपेयी को मात दी थी। मथुरा में वाजपेयी की ज़मानत तक जब्त हो गई थी और निर्दलीय उम्मीदवार रहे राजा महेंद्र प्रताप ने वाजपेयी को चौथे नंबर पर धकेल दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी को मात्र 23620 वोट मिले थे। लेकिन बलरामपुर लोकसभा सीट ने उन्हें लोकसभा में पहुंचा दिया। यहां वाजपेयी ने कांग्रेस के हैदर हुसैन को मात दी थी। वाजपेयी को 1,18,380 वोट मिले थे, जबकि हैदर हुसैन को 1,08,568 वोट मिले थे। जिस 1957 के चुनाव में वाजपेयी को 9812 वोटों से जीत मिली थी, वह चुनाव वाजपेयी के लिए कभी आसान नहीं था। लेकिन हिन्दूवादी पार्टी रामराज्य परिषद के संस्थापक करपात्री महाराज ने अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन कर दिया तब वाजपेयी चुनाव जीत गए।

1957 में लोकसभा क्षेत्र बना बलरामपुर

बलरामपुर 1957 में पहली बार लोकसभा क्षेत्र के तौर पर अस्तित्व में आया था। यह उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के तराई इलाके की लोकसभा थी, जो अवध के तालुकदारी के तहत आती थी। पिछले लोकसभा चुनाव में तीन सीटें जीतने वाली आल इंडिया राम राज्य परिषद की स्थापना भी इसी बलरामपुर में ही हुई थी। दशनामी साधु रहे करपात्री महाराज ने बलरामपुर के राजा के साथ मिलकर 1948 में इस पार्टी का गठन किया था।

बलरामपुर में हिंदुओं की अच्छी खासी आबादी थी और उस आबादी पर करपात्री महाराज का खासा प्रभाव था। 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी चुनावी मैदान में उतरे, तो करपात्री महाराज ने अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर के लोगों के लिए नए थे, बाहरी भी थे। लेकिन उनके सामने चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार हैदर हुसैन थे। 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव जीते थे, तो उनकी उम्र महज 33 साल की थी और पार्टी को कुल चार सीटें मिली थीं. इसके बाद वाजपेयी को पार्टी का नेता चुना गया था।

1948 में हुई रामराज्य परिषद की स्थापना

देश को आजादी मिलने के दो वर्ष के भीतर ही चुनाव आयोग में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद नाम का एक राजनीतिक दल पंजीकृत हुआ था। दल के संस्थापक करपात्री जी थे। वे हिन्दू दशनामी परंपरा के भिक्षु थे। अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परंपरावादी हिन्दू पार्टी थी। इसके गठन की रुपरेखा स्वामी करपात्री ने सन 1948 में बलरामपुर के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह के सहयोग और परमर्श से बलरामपुर में ही तैयार की थी। इस दल ने सन 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 03 सीटें प्राप्त की थीं।

लोकसभा में पहली बार हिंदी में सम्बोधन

लोकसभा में 15 मई 1952 को पहली बार हिंदी में सम्बोधन सीकर (राजस्थान) के तत्कालीन सांसद एनएल शर्मा ने किया था जो राम राज्य परिषद के सांसद थे। सन् 1952, 1957 एवं 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यतः राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थीं। पार्टी के आयोजनों में ‘धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो‘, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो‘ का जयकारा लगाया जाता था। देश को आजादी मिलने के अगले वर्ष 1948 में ही चुनाव आयोग में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद राजनीतिक दल के रुप में पंजीकृत हुआ। इस दल के संस्थापक धर्म सम्राट की पदवी से विभूषित करपात्री के प्रखर हिन्दुत्व विचारधारा और राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का परिणाम था कि 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में ही रामराज्य परिषद को तीन सीटें मिलीं।

साथ ही 1952, 57 एवं 62 के विस चुनाव में भी रामराज्य परिषद ने अच्छा प्रदर्शन किया और मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में इस दल के दर्जन भर से अधिक विधायक चुने गए। उन्होंने भगवान राम के प्रति अटूट आस्था के साथ रामराज्य परिषद को विस्तार देने की कोशिश की। इस दल को मजबूती मिलती इससे पूर्व ही नौवें दशक के मध्य में करपात्री जी का 1982 में साकेतवास हो गया। हालांकि इसके बाद भी इस दल को जीवित रखने की कोशिश हुई किन्तु यह पार्टी राजनीतिक क्षितिज से गायब हो गई।

स्वामी करपात्री का जीवन परिचय

स्वामी करपात्री का जन्म सम्वत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी ग्राम में सरयूपारीण ब्राह्मण रामनिधि ओझा एवं श्रीमती शिवरानी के घर हुआ था। बचपन में उनका नाम हरि नारायण रखा गया। स्वामी करपात्री 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन करते रहे। 9 वर्ष की अल्पायु में महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न करा दिया गया किन्तु 17 वर्ष की आयु में उन्होने गृहत्याग कर दिया। कहते हैं कि उस समय उनकी एक पुत्री भी जन्म ले चुकी थी। उसी वर्ष ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली। हरि नारायण से हरिहर चौतन्य बने। स्वामी करपात्री भारत के एक सन्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे।

उनका मूल नाम हरि नारायण ओझा था। वे दशनामी परम्परा के संन्यासी थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम हरिहरानन्द सरस्वती था, किन्तु वे करपात्री नाम से ही प्रसिद्ध थे क्योंकि वे अपने अंजुलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे (कर=हाथ, पात्र=बर्तन, करपात्री=हाथ ही बर्तन हैं, जिसके)। उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनैतिक दल बनाया था। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें धर्मसम्राट की उपाधि प्रदान की गई। स्वामी जी की स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रूप में लिखा हुआ है।

1962 में सुभद्रा जोशी ने दी थी वाजपेयी को मात

1962 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो वाजपेयी एक बार फिर से बलरामपुर लोकसभा के जनसंघ के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे। पिछला चुनाव वाजपेयी हिंदू बनाम मुस्लिम होने के बाद मुश्किल से जीते थे। इस चुनाव में कांग्रेस ने भी अपने पिछले मुस्लिम उम्मीदवार की जगह पर एक ब्राह्मण, महिला और हिंदू उम्मीदवार सुभद्रा जोशी को चुनावी मैदान में उतार दिया। सुभद्रा जोशी अविभाजित पंजाब की रहने वाली थीं और बंटवारे के बाद वो भारत चली आईं थीं। अंबाला और करनाल से लगातार दो बार सांसद रहीं सुभद्रा जोशी दिल्ली रहने आई थीं।. लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सुभद्रा जोशी को वाजपेयी के खिलाफ बलरामपुर से चुनाव लड़ने के लिए कहा. सुभद्रा चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गईं। इस चुनाव में सुभद्रा जोशी ने वाजपेयी को हराकर सीट कांग्रेस के पाले में कर दी थी।

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जब बलराज साहनी के प्रचार से हार गए वाजपेयी

बलराज साहनी ने वाजपेयी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और फिर वाजपेयी चुनाव हार गए। इसी चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने खुद उस वक्त ‘दो बीघा जमीन‘ फिल्म से देश में अपनी पहचान बना चुके अभिनेता बलराज साहनी से कांग्रेस की उम्मीदवार सुभद्रा जोशी के लिए चुनाव प्रचार करने को कहा। बलरामपुर निवासी प्रसिद्ध कवि और राज्यसभा सांसद रहे बेकल उत्साही ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उस वक्त बलराज साहनी दो दिन के लिए बलरामपुर में आए थे। वे दो दिनों तक बेकल उत्साही के घर में रुके थे।

चुनाव प्रचार के दौरान बलराज साहनी ने भारी भीड़ इकट्ठा की और फिर नतीजा आया तो राजनीति में नई आईं सुभद्रा जोशी ने स्थापित राजनेता और सांसद वाजपेयी को चुनाव में हरा दिया था। इस चुनाव में सुभद्रा जोशी ने वाजपेयी को 2052 वोटों से मात दी थी। बेकल उत्साही ने एक साक्षात्कार में कहा था कि सुभद्रा जोशी के लिए चुनाव प्रचार के दौरान बलराज साहनी दो दिनों तक बलरामपुर में थे और उनके घर में रुके थे।

बेकल उत्साही ने दावा किया था कि वो पहला मौका था, जब उत्तरी भारत में सिनेमा का कोई स्टार चुनाव प्रचार के लिए आया था और उसका करिश्मा काम कर गया था। हालांकि वाजपेयी के प्रति पं. नेहरू का भरपूर स्नेह ही था कि सुभद्रा जोशी को चुनाव लड़ने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने भेजा था, लेकिन वे खुद सुभद्रा जोशी के लिए चुनाव प्रचार करने नहीं आए थे। खुद सुभद्रा जोशी भी चाहती थीं कि पं. नेहरू उनके लिए चुनाव प्रचार करें, लेकिन पं. नेहरू ने प्रचार करने से साफ इन्कार कर दिया था।

वाजपेयी और जोशी ने बलरामपुर से खींचे हाथ

1967 में जब आम चुनाव हुए तो वाजपेयी एक बार फिर बलरामपुर सीट से चुनावी मैदान में उतरे। इस बार भी उनके सामने कांग्रेस से सुभद्रा जोशी ही थीं, लेकिन इस बार कांग्रेस के पास नेहरू नहीं थे। 1962 में चीन के हाथों हारने के बाद 1964 में नेहरू की मौत हो गई थी और बिना नेहरू के 1967 में सुभद्रा जोशी को वाजपेयी ने बड़े अंतर से हराया था। वाजपेयी को 50 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिले थे और उन्होंने सुभद्रा जोशी को 32 हजार से भी ज्यादा वोटों से हरा दिया था। लेकिन 1971 में जब आम चुनाव हुए तो अटल बिहारी वाजपेयी और सुभद्रा जोशी दोनों ही इस सीट से चुनाव नहीं लड़े और इसी चुनाव के बाद से वाजपेयी कभी इस सीट से चुनाव नहीं लड़े।

...और भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई

वाजपेयी की जगह पर इस सीट से उतरे प्रताप नारायण तिवारी और सुभद्रा जोशी की जगह चुनावी मैदान में आए चंद्रभाल मणि तिवारी। इस चुनाव में जनसंघ के उम्मीदवार करीब पांच हजार वोटों से हार गए। इसके बाद तो आपातकाल खत्म होने के बाद 1977 में चुनाव हुए तो बलरामपुर सीट से जनसंघ के नानाजी देशमुख ने जीत दर्ज की। फिर जनसंघ खत्म हो गया और भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई। 1980 में कांग्रेस के चन्दभाल मणि तिवारी और 1984 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के दीप नरायन वन ने जीत दर्ज की। इसके बाद 1989 में निर्दल उम्मीदवार मुन्नन खान ने जीत दर्ज की। 1991 और 1996 में बीजेपी ने वापसी की और सत्यदेव सिंह ने इस सीट से जीत दर्ज की।

इसके बाद 1998 में रिजवान ज़हीर खान ने जीत दर्ज की। 1999 में भी सीट सपा के रिजवान जहीर के खाते में ही रही। 2004 में बीजेपी ने फिर से वापसी की और बृजभूषण शरण सिंह सांसद बने। 2008 में परिसीमन के बाद ये सीट खत्म हो गई और फिर अस्तित्व में एक नई सीट आई, जिसे श्रावस्ती कहा जाता है। 2009 में श्रावस्ती के पहले सांसद बने विनय कुमार पाण्डेय, 2014 में दूसरे भाजपा के दद्दन मिश्रा और 2019 में चुनाव जीतकर वर्तमान में बसपा के राम शिरोमणि वर्मा यहां से सांसद हैं।

विनोदी स्वभाव से क्षेत्र में लोकप्रिय रहे अटल

अटल जी ने भारतीय राजनीति में जो शानदार पारी खेली उसका प्रशिक्षण उन्होंने बलरामपुर में ही प्राप्त किया था। इस क्षेत्र के सुदूर गांवों तक अनेक लोगों से उनके व्यक्तिगत संबंध थे। सन 1957 में पहली बार वे बलरामपुर से ही संसद में गये। उनकी विनोद प्रियता, हाज़िर जवाबी, विजया-प्रेम और भाषण-कला की तारीफें आज भी होती हैं। एमएलके महाविद्यालय के प्राघ्यापक और साहित्यकार प्रकाश चन्द्र गिरि बताते हैं कि मेरे स्वर्गीय पिता 15वीं शताब्दी में स्थापित शैव परम्परा के जूना अखाड़े की गद्दी हर्रैया मठ के महंत थे। यद्यपि हमारा परिवार कट्टर कांग्रेसी था फिर भी ये शायद उस दौर के लोगों का बड़प्पन रहा हो या अटल जी की उदारता कि हमारे पिता से उनके मित्रवत संबंध थे। क्षेत्र में आने पर सन 1957 से 1967 के बीच कई बार उन्होंने हमारे घर पर रात्रि निवास किया।

‘अटल जी और बलरामपुर‘

एक बार अटल जी गांवों का दौरा कर शाम 4-5 बजे हमारी कोठी पर पहुंचे तो वे धूल में सने थे। उन दिनों खुली जीप ही प्रचलन में थी। उन्हें देखकर पिता जी ने अपने अंदाज़ में अवधी में कहा-का हो अटल जी, आज तौ बिल्कुल भूत बना हौ। अटल जी ने तुरंत अपनी हाज़िर जवाबी का परिचय दिया और बोले कि-इसीलिए तो महंत के दरबार में आया हूं, भूत झड़वाने और लोगों के ठहाके गूंजने लगे। फिर मेरे पिता ने सेवकों को आदेश दिया। अटल जी को कुएं पर ढेंकुल से पानी निकाल कर सेवकों ने जमकर नहलाया। पत्रकार मिर्ज़ा शाहिद बेग द्वारा लिखित पुस्तक ‘अटल जी और बलरामपुर‘ में इन तथ्यों का उल्लेख है।

प्रकाश चन्द्र गिरि के अनुसार दोनों लोगों में अपने अपने राजनीतिक दल को लेकर नोंकझोंक भी होती थी, लेकिन परस्पर प्रेम और अपनेपन के साथ। अटल जी अपने गुणों की बदौलत भारतीय राजनीति के सर्वाेच्च शिखर तक पहुंचे लेकिन उन्हें हमारे क्षेत्र और हमारे परिवार की याद बनी रही। जब वे प्रधानमंत्री बने तो हमारे क्षेत्र से कुछ लोग उनसे मिलने गए तो लगभग 40 वर्षों के अंतराल के बाद भी उन्होंने हमारे पिता का हालचाल पूछा और हमारे घर पर खाये व्यंजनों का भी स्मरण किया।

काला नमक और मुंशीआइन के पेड़े थे पंसद

अटल बिहारी वाजपेयी के समकालीन और जनसंघ से विधायक रहे सुखदेव बताते हैें कि बताते हैं कि अटल जी खाने-पीने के काफी शौकीन थे। उन्हें बलरामपुर का काला नमक चावल और मुंशीआइन के पेड़े खूब पसंद थे। हम लोगों के साथ अक्सर पेड़े खाने जाया करते थे। जब अटल जी प्रधानमंत्री बन गए तो उनका बलरामपुर आना कम हो गया, लेकिन जब कभी हम लोग दिल्ली उनसे मिलने जाते काला नमक चावल और मुंशीआइन के पेड़े जरूर ले जाते थे। सुखदेव ने बताया कि चूंकि बलरामपुर संसदीय क्षेत्र से पहली बार चुनकर वे दिल्ली पहुंचे थे, इसलिए अटल जी को बलरामपुर और यहां के लोग काफी पसंद थे। अटल की कर्मभूमि होने के कारण जब कोई यहां से उनसे मिलने पहुंचता वे बड़े ही सम्मान और गर्मजोशी से मिलते थे।

तेज प्रताप सिंह

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