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गांधी अयोध्या केवल दो बार आये, गांधी ज्ञान मंदिर सजीव किये है उनकी स्मृतियाँ
आजादी की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी का अयोध्या से भी गहरा नाता रहा है। चौरी-चौरा कांड की हिंसा के विरोध में बापू राष्ट्रव्यापी दौरा के क्रम में 20 फरवरी, 1921 को रामनगरी पहुंचे। इसी दिन सूरज ढलने तक उन्होंने जालपादेवी मंदिर के करीब के मैदान में सभा की।
अयोध्या: आज भारत स्वतंत्रता स्वतंत्रता दिवस की 75वीं जयंती भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व में अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में अयोध्या (Ayodhya) राम की नगरी से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (mahatma gandhi) का गहरा लगाव रहा। इसकी पुष्टि उनकी रामभक्ति और रामराज्य के आदर्श से भी पारिभाषित होती है। 1921 में गांधी ने पहली बार अयोध्या (Ayodhya) का दौरा किया। गांधी जी 1929 में विभिन्न प्रांतों का दौरा करते हुए दूसरी बार भी अयोध्या (Ayodhya) आए। इस बार उन्होंने मोतीबाग में सभा से पहले सरयू में स्नान किया था।
बापू ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय व्यस्तता के बीच अयोध्या (Ayodhya) के लिए भी समय निकाला था। चौरी-चौरा कांड की हिंसा के विरोध में बापू राष्ट्रव्यापी दौरा के क्रम में 20 फरवरी, 1921 को रामनगरी पहुंचे। इसी दिन सूरज ढलने तक उन्होंने जालपादेवी मंदिर के करीब के मैदान में सभा की।
फैजाबाद के धारा रोड स्थित बाबू शिवप्रसाद की कोठी में रात्रि गुजारने के बाद बापू ने अगले दिन यानी 22 फरवरी की सुबह सरयू स्नान कर अपनी आस्था का इजहार किया।
सरयू में भी विसर्जित हुईं थीं बापू की अस्थियां
बापू की अस्थियां देश की जिन चुनिंदा पवित्र नदियों में विसर्जित की गईं। उनमें से एक सरयू भी थी। बापू के निधन के कुछ दिनों बाद संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष एवं कालांतर में आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने डॉ. राजेंद्र प्रसाद कई अन्य कांग्रेस पदाधिकारियों के साथ बापू की अस्थियां लेकर अयोध्या आए और सरयू में विसर्जित किया। 1948ई. में गांधी जी की अस्थियां तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जिस स्थल पर सरयू में प्रवाहित किया था उसी स्थल पर वर्तमान में राम की पैड़ी है। उसी पैड़ी पर बापू के अस्थि विसर्जन की स्मृति को जीवंत रखने के उद्देश्य से गांधी ज्ञान मंदिर की स्थापना की गयी। यह मंदिर बापू के विचारों और आदर्शों का गत 70 वर्षों से वाहक बना हुआ है। तभी से गांधी ज्ञान मंदिर में ही प्रतिवर्ष बापू की पुण्यतिथि से अगले 15 दिनों के लिए सर्वोदय पखवारा मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई। 1 988 में सरयू के इसी तट पर बापू की स्मृति सहेजते हुए उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई।
बापू ने अयोध्या में कहा था, हिंसा कायरता का लक्षण और तलवारें कमज़ोरों का हथियार है
साल 1921 में गांधीजी ने फ़ैज़ाबाद में निकले जुलूस में देखा कि ख़िलाफ़त आंदोलन के अनुयायी हाथों में नंगी तलवारें लिए उनके स्वागत में खड़े हैं। इसकी उन्होंने सार्वजनिक तौर पर आलोचना की थी।
महात्मा गांधी के बारे में यह जानना किसी को भी हैरत में डाल सकता है कि राम राज के अपने जिस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने समूचे जीवन में राम की जन्मभूमि अयोध्या की उन्होंने सिर्फ़ दो यात्राएं कीं। अलबत्ता, अपने संदेशों से इन दोनों ही यात्राओं को महत्वपूर्ण बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।
10 फरवरी, 1921 को उनकी पहली यात्रा के समय, जानकार बताते हैं कि अयोध्या व उसके जुड़वां शहर फ़ैज़ाबाद में उत्साह व उमंग की ऐसी अभूतपूर्व लहर छायी थी कि लोग उनकी रेलगाड़ी आने के निर्धारित समय से घंटों पहले ही रेलवे स्टेशन से लेकर सभास्थल तक की सड़क व उसके किनारे स्थित घरों की छतों पर जा खड़े हुए थे।
हर कोई उनकी एक झलक पाकर धन्य हो जाना चाहता था। फ़ैज़ाबाद के भव्य चौक में स्थित ऐतिहासिक घंटाघर पर शहनाई बज रही थी- हमें आज़ाद कराने को श्री गांधीजी आते हैं।
सभा फ़ैज़ाबाद व अयोध्या के बीच स्थित जालपा नाले के पश्चिम और सड़क के उत्तर तरफ स्थित मैदान में होनी थी। 1918 में अंग्रेज़ों ने प्रथम विश्वयुद्ध में अपनी जीत का जश्न इसी मैदान पर मनाया था। कांग्रेसियों ने गांधीजी की सभा के लिए जानबूझकर इसको चुना था ताकि अंग्रेज़ों को उनका व गांधीजी का फ़र्क़ समझा सकें।
लेकिन रेलगाड़ी स्टेशन पर आई और तिरंगा लहराते हुए स्थानीय कांग्रेसियों के दो नेता-आचार्य नरेंद्र देव व महाशय केदारनाथ- गांधीजी के डिब्बे में गए तो उनकी बड़ी ही अप्रिय स्थिति से सामना हुआ।
पता चला कि गांधीजी ने गाड़ी के फ़ैज़ाबाद जिले में प्रवेश करते ही डिब्बे की अपने आसपास की सारी खिड़कियां बंद कर ली हैं। किसी से भी मिलने-जुलने या बातचीत करने से मनाकर दिया।
दरअसल, वे इस बात को लेकर नाराज़ थे कि अवध में चल रहा किसान आंदोलन ख़ासा उत्पाती हो चला था। उसूलों व सिद्धांतों से ज़्यादा युद्धघोष की भाषा समझता था। उसके लिए अहिंसा का कोई बड़ा मूल्य नहीं रह गया था।
ख़ासकर फ़ैज़ाबाद ज़िले के किसान तो एकदम से हिंसा के रास्ते पर चल पड़े थे। बिडहर में बग़ावती तेवर अपनाकर उन्होंने तालुकेदारों व ज़मींदारों के घरों में आगज़नी व लूटपाट तक कर डाली थी।
यह स्थिति गांधीजी के बर्दाश्त के बाहर थी। लेकिन अनुनय विनय करने पर उन्होंने यह बात मान ली कि वे सभा में चलकर लोगों से अपनी नाराज़गी ही जता दें।
उनके साथ अबुल कलाम आज़ाद के अलावा ख़िलाफ़त आंदोलन के नेता मौलाना शौकत अली भी थे, जो लखनऊ कांग्रेस में हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल, असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनों के मिलकर एक हो जाने के बाद के हालात में साथ-साथ दौरे पर निकले थे।
मगर गांधीजी मोटर पर सवार होकर जुलूस के साथ चले तो देखा कि ख़िलाफ़त आंदोलन के अनुयायी हाथों में नंगी तलवारें लिए उनके स्वागत में खड़े हैं।उन्होंने वहीं तय कर लिया कि वे अपने भाषण में हिंसक किसानों के साथ इन अनुयायियों की भर्त्सना से भी परहेज़ नहीं करेंगे।
सूर्यास्त बाद के नीम अंधेरे में बिजली व लाउडस्पीकरों के अभाव में उन्हें सुनने को आतुर भारी जनसमूह से पहले तो उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाने के बजाय ख़ुद कष्ट सहकर आंदोलन करने को कहा, फिर साफ़ व कड़े शब्दों में किसानों की हिंसा व तलवारधारियों के जुलूस की निंदा की। गांधी जी ने कहा, "हिंसा बहादुरी का नहीं कायरता का लक्षण है। तलवारें कमज़ोरों का हथियार हैं।"
ग़ौरतलब है कि उन्होंने देशवासियों को ये दो मंत्र देने के लिए उस अयोध्या को चुना जिसके राजा राम के राज्य की कल्पना साकार करने के लिए वे अपनी अंतिम सांस तक प्रयत्न करते रहे। रात में वे जहां ठहरे वहां ऐसी व्यवस्था की गई कि वे विश्राम करते रहें और उनका दर्शन चाहने वाले चुपचाप आते व दर्शन करके जाते रहें।
गांधी जी ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का कतई संज्ञान नहीं लिया।
भले ही यह उनके आराध्य राजा राम की जन्मभूमि व राजधानी की उनकी पहली यात्रा थी। देर शाम फ़ैज़ाबाद की सभा को संबोधित कर वे 11 फरवरी की सुबह अयोध्या के सरयू घाट पर पंडित चंदीराम की अध्यक्षता में हो रही साधुओं की सभा में पहुंचे तो शारीरिक दुर्बलता और थकान के मारे उनके लिए खड़े होकर बोलना मुश्किल हो रहा था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले अपनी शारीरिक असमर्थता के लिए क्षमा मांगी। फिर बैठे-बैठे ही साधुओं को संबोधित करने और आईना दिखाने लगे।
उन्होंने कहा, "कहा जाता है कि भारतवर्ष में 56 लाख साधु हैं। ये 56 लाख बलिदान के लिए तैयार हो जाएं तो मुझे विश्वास है कि अपने तप तथा प्रार्थना से भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं। लेकिन ये अपने साधुत्व के पथ से हट गए हैं। इसी प्रकार से मौलवी भी भटक गए हैं। साधुओं और मौलवियों ने कुछ किया है तो केवल हिंदुओं तथा मुसलमानों को एक-दूसरे से लड़ाया है। मैं दोनों के लिए कह रहा हूं यदि आप अपने धर्म से वंचित हो जाएं, विधर्मी हो जाएं और अपना धर्म समाप्त कर दें, तब भी ईश्वर का कोई ऐसा आदेश नहीं हो सकता जो आपको ऐसे दो लोगों के बीच शत्रुता उत्पन्न करने की अनुमति दे, जिन्होंने एक-दूसरे के साथ कोई ग़लती नहीं की है।"
'हरिजन फंड के लिए धन जुटाने के सिलसिले में मोतीबाग में हुई सभा में उन्हें चांदी की एक अंगूठी प्राप्त हुई तो वे वहीं उसकी नीलामी कराने लगे। ज़्यादा ऊंची बोली लगे, इसके लिए उन्होंने घोषणा कर दी कि जो भी वह अंगूठी लेगा, उसे अपने हाथ से पहना देंगे। एक सज्जन ने 50 रुपये की बोली लगाई। नीलामी उन्हीं के नाम पर ख़त्म हो गई।
तब वायदे के मुताबिक उन्होंने वह अंगूठी उन्हें पहना दी। सज्जन के पास 100 रुपये का नोट था। उन्होंने उसे गांधीजी को दिया और बाकी के पचास रुपये वापस पाने के लिए वहीं खड़े रहे।
मगर गांधीजी ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया कि हम तो बनिया हैं, हाथ आए हुए धन को वापस नहीं करते। वह दान का हो तब तो और भी नहीं। इस पर उपस्थित लोग हंस पड़े और सज्जन उन्हें प्रणाम करके ख़ुशी-ख़ुशी लौट गए!
इस यात्रा में गांधीजी धीरेंद्र भाई मजूमदार द्वारा अकबरपुर, (जो अब अंबेडकर नगर जिले का हिस्सा है) स्थापित देश के पहले गांधी आश्रम भी गए थे। वहां 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं' वाला अपना बहुप्रचारित संदेश देते हुए अंग्रेज पादरी स्वीटमैन के बंगले में ठहरे। आश्रम की सभा में लोगों से संगठित होने, विदेशी वस्त्रों का त्याग करने, चरखा चलाने, जमींदारों के ज़ुल्मों का अहिंसक प्रतिरोध करने, शराबबंदी के प्रति समर्पित होने और सरकारी स्कूलों का बहिष्कार करने को कहा!