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Dr. Sampurnanand: कहानी UP के उस मुख्यमंत्री की, जिसने अंतिम सांस गरीबी में ली
डॉ.सम्पूर्णानंद का जन्म1 जनवरी, 1890 को हुआ था। क्वीन्स कॉलेज से उन्होंने पढ़ाई की थी। साल 1954 में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र में गृह मंत्री बनाए जाने के बाद डॉ.सम्पूर्णानंद को यूपी का मुख्यमंत्री बनाया गया था।
Lucknow: उत्तर प्रदेश की राजनीति में आजादी के बाद कितने ही राजनेता हुए जो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। कुछ मरते दम तक सुर्ख़ियों में रहे, तो कुछ ऐसी गुमनामी में चले गए, जिनकी कोई खोज खबर लेने वाला तक नहीं रहा।
भारत की आजादी के बाद पंडित गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1954 में पंडित नेहरू ने उन्हें गृह मंत्री के तौर पर केंद्र में बुला लिया। तो अब यूपी में नए मुख्यमंत्री के नाम पर विचार होने लगा। यह काम जटिल था। क्योंकि तब यूपी की राजनीति में कई नेता एक ही कद के थे। आखिरकार, डॉ.सम्पूर्णानंद पर जाकर खोज खत्म हुई, उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया। क्योंकि उन पर पार्टी को सबसे ज्यादा भरोसा था।
वाराणसी में हुई थी राजनीति की ट्रेनिंग
एक समय तब उत्तर प्रदेश का वाराणसी राजनीति का गढ़ माना जाता था। प्रदेश की राजनीति में बनारसी नेताओं का प्रभुत्व था। डॉ.संपूर्णानंद भी वाराणसी के ही थे। यहीं 1 जनवरी, 1890 को उनका जन्म हुआ था। क्वीन्स कॉलेज से उन्होंने पढ़ाई की थी। इसके बाद वृंदावन और राजस्थान के बीकानेर में भी पढ़ाई हुई। नौकरी मिली फिर वह भी छोड़ दी। हिंदी में मैगजीन निकाली। अंग्रेजी में 'टुडे' नाम से मैगजीन निकाली। इन सब के बाद काशी विद्यापीठ में पढ़ाया। बता दें कि वो दौर नौकरियां करने का नहीं था। तब देश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। संपूर्णानंद भी उन आंदोलनों में हिस्सा लेते थे।
कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों को संभाला
बात 1926 की है तब डॉ.सम्पूर्णानंद कांग्रेस की तरफ से विधानसभा के लिए चुने गए। इसके बाद 1937 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत चुनाव हुआ। इसमें भी सम्पूर्णानंद विधानसभा में पहुंच गए। तब, यूपी सरकार के शिक्षामंत्री प्यारेलाल शर्मा ने इस्तीफा दे दिया। प्यारेलाल के जाने से यह पद सम्पूर्णानंद को मिला। बाद में उन्होंने गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भी संभाला। राजनीति का वह दौर व्यवहारिक राजनीति से ज्यादा भावनाओं और संवेदनाओं का था। इसी बीच दूसरा विश्व-युद्ध शरू हो गया और ये सरकारें भंग कर दी गईं।
यूपी की राजनीति में वाराणसी
इस बात की बार-बार चर्चा सिर्फ याद दिलाने के लिए कि तब कांग्रेस की राजनीति उत्तर प्रदेश में वाराणसी से चलती थी। साल 1905 में वाराणसी में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यह अधिवेशन बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ था। तब कांग्रेस के अध्यक्ष गोपाल कृष्ण गोखले थे। तब एनी बेसेंट के होमरूल लीग और थियोसोफिकल सोसाइटी का गढ़ भी वाराणसी ही था। ज्यादातर बड़े नेता वाराणसी से ही निकले थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनने के बाद अधिकतर नेता छात्र आंदोलन से वाराणसी से ही निकले थे। वाराणसी के बारे में कहा जाता है, कि यह दो नालों 'वरुणा' और 'अस्सी', जो कि शहर के उत्तर और दक्षिण में बहते हैं, के नाम से बना है। बाद में यह अपभ्रंश होकर बनारस हो गया। साल 1956 में सरकारी आदेश पर यह वाराणसी हो गया।
सबको बनना था पहला सांसद, विधायक
अब साल आ गया 1952, तब सभी को पता था कि अब चुनाव होने वाले हैं। आजाद भारत में सब पहला मंत्री, पहला सांसद बनने का ख्वाब पाले हुए थे। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो रहे थे। सबने सांसद बनने के लिए जोर लगा दिया। संपूर्णानंद ने विधानसभा चुनाव में खड़ा होने से साफ मना कर दिया। कहते हैं तब कमलापति त्रिपाठी को मिलने वाली सीट 'दक्षिण बनारस' संपूर्णानंद को दे दी गई। इसके बाद राजनीति ऐसी हो गई कि सब एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे। कांग्रेस के भीतर सारे समीकरण बिगड़ने लगे। जब पंडित नेहरू प्रचार करने आए, तो कांग्रेस समिति की अध्यक्षा तुगम्मा ने उनके हाथ में इस्तीफा सौंप दिया। इसके बाद कई नेताओं पर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हुई।
बदले दौर में बदल गई राजनीति
साल 1954 में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र में गृह मंत्री बनने के बाद प्रदेश की राजनीति से चले गए। तब संपूर्णानंद को मुख्यमंत्री बनाया गया। ऐसा नहीं था कि सम्पूर्णानंद के अलावा उस वक्त सीएम पद के अन्य दावेदार नहीं थे। कमलापति त्रिपाठी, चंद्रभानु गुप्ता, रघुनाथ सिंह और त्रिभुवन सिंह भी खुद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार समझते थे। कुछ समय तक प्रदेश की राजनीति में सब कुछ सामान्य रहा। लेकिन फिर दौर आया चौधरी चरण सिंह और डॉ राममनोहर लोहिया का। उनकी राजनीति का। उनके संघर्ष ने रंग दिखाना शुरू किया। वर्ष 1967 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस के कई नेता हार गए, कमलापति त्रिपाठी जैसे बड़े नेता भी विधानसभा नहीं पहुंच पाए।
राजस्थान का बनाए गए राज्यपाल
साल 1962 में संपूर्णानंद को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। राजनीतिक जानकार कहते हैं इस इस्तीफे के पीछे चंद्रभानु गुप्ता और कमलापति त्रिपाठी थे। दोनों ने हालात ही ऐसे पैदा किए कि सम्पूर्णानंद को सत्ता त्याग कर जाना पड़ा। खैर बातें जो भी हों। इसके बाद सम्पूर्णानंद को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। वहीं, से संपूर्णानंद ने रिटायरमेंट ले लिया।
डॉ. संपूर्णानंद से जुड़े कुछ किस्से:
अंतिम समय गरीबी में बीता
कहते हैं जब संपूर्णानंद राजस्थान के राज्यपाल थे, तब उत्तर प्रदेश से आनेवाले लोगों का तांता लगा रहता था। संपूर्णानंद का व्यवहार काफी अच्छा था। यही वजह थी कि राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहन लाल सुखाड़िया संपूर्णानंद का बहुत आदर करते थे। बाद में उन्होंने उनके नाम पर जोधपुर का मेडिकल कॉलेज बनवाया। आपको जानना चाहिए कि सम्पूर्णानंद अपने वक्त के एकमात्र राज्यपाल थे, जिनके नाम पर किसी सरकारी संस्था का नाम रखा गया। लेकिन दुखद पहलू यह भी रहा कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में संपूर्णानंद गरीब हो गए थे। तब मोहन लाल सुखाड़िया पैसे भेजकर उनकी मदद किया करते थे।
उत्तर प्रदेश में 'ओपन जेल' बनवाया
संपूर्णानंद हिंदी, संस्कृत और खगोलशास्त्र में बेहद रुचि रखते थे। माथे पर टीका भी लगाते थे। नियमित पूजा भी करते थे। उत्तर प्रदेश में ओपन जेल और नैनीताल में वैद्यशाला इन्हीं का बनवाया हुआ है। हिंदी को लेकर काफी संवेदनशील रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन की तरफ से सर्वोच्च उपाधि 'साहित्यवाचस्पति' इन्हें मिली थी। बाद में ये 'मर्यादा' मैगजीन के संपादक रहे और जब छोड़ी तो प्रेमचंद संपादक बने। आप उनके कद को सहज ही समझ सकते हैं। संपूर्णानंद ओपन जेल को लेकर बहुत दृढ़ थे। कहते थे,'ओपन जेल' मतलब अपराधी अपने परिवार के साथ रह सके। बिजली और पानी के बिल भरने बाहर जा सके।
राजेंद्र प्रसाद के निधन पर जाना चाहते थे पटना
कहते हैं राजेंद्र प्रसाद के निधन पर संपूर्णानंद पटना जाना चाहते थे। लेकिन उसी वक्त नेहरू राजस्थान दौरे पर थे। नेहरू ने कहा कि यह कैसे होगा कि प्रधानमंत्री दौरे पर रहे और राज्यपाल कहीं और चला जाए। संपूर्णानंद पटना जा नहीं पाए। यह वही दौर था, जब नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में बनती नहीं थी। सोमनाथ मंदिर में शिव की प्रतिमा को लेकर दोनों में विवाद गहराया था। शिलान्यास के मौके पर राजेंद्र प्रसाद वहां चले गए थे। हालांकि यह बात अलग है कि धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले नेहरू खुद कुंभ मेले में डुबकी लगाने गए थे। भगदड़ मची थी और 800 लोग मारे गए थे।
बीवियों की मौत से थे दुखी, जोगी बनने का मन बनाया
कहते हैं, संपूर्णानंद जोगी बनने का मन बना चुके थे। क्योंकि एक के बाद एक इनकी तीन बीवियों का निधन हो गया था। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन ने इन्हें जिंदगी में वापस खींच लिया। फिर राजनीति में ऐसा घुसे कि मुख्यमंत्री बने। इनके मंत्रिमंडल में रहने वाले चंद्रभानु गुप्ता, चौधरी चरण सिंह, कमलापति त्रिपाठी और हेमवतीनंदन बहुगुणा सभी बाद में यूपी के मुख्यमंत्री बने।
- कहते हैं सम्पूर्णानंद कभी जनता के बीच वोट मांगने नहीं जाते थे।
- कहा जाता है कि गांधी जी की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' उन्होंने ही लिखी थी।
- यह भी कहा जाता है कि हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास सबसे पहले संपूर्णानंद ने ही लिखा था।
- संपूर्णानंद योग और दर्शन से हमेशा ही जुड़े रहे। वह मानते थे कि योग कामधेनु की तरह है, जो मांगोगे इससे मिलेगा।
- 10 जनवरी 1969 को सम्पूर्णानंद का वाराणसी में निधन हो गया।