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Firaq Gorakhpuri: फिराक गोरखपुरी को इस चीज ने बना दिया फिराक, जिसने इतिहास रच दिया

Firaq Gorakhpuri: फ़िराक गोरखपुरी को उर्दू साहित्य की महानतम शख़्सियतों में शुमार किया जाता है।

Ramkrishna Vajpei
Written By Ramkrishna VajpeiPublished By Dharmendra Singh
Published on: 27 Aug 2021 6:15 PM GMT (Updated on: 27 Aug 2021 7:20 PM GMT)
Firaq Gorakhpuri birth anniversary
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फ़िराक गोरखपुरी (फोटो: सोशल मीडिया)

Firaq Gorakhpuri Birth Anniversary: फ़िराक गोरखपुरी को उर्दू साहित्य की महानतम शख़्सियतों में शुमार किया जाता है। जोश मलिहाबादी फ़िराक़ को मीर तक़ी मीर और ग़ालिब के बाद उर्दू का सबसे बड़ा शायर मानते थे। फ़िराक़ साहब ने ख़ुद के बारे में शेर अर्ज किया है आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो, जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है। इस एक शेर से उनके क़द और शख़्सियत का अंदाज़ा हो जाता है।

रघुपति सहाय का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर जिले के बनवारपुर गांव में एक संपन्न और शिक्षित परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी बुनियादी शिक्षा पूरी की और फिर उर्दू, फारसी और अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्री हासिल की। बाद में उन्होंने उर्दू शायरी में उत्कृष्टता के शुरुआती लक्षण दिखाए और साहित्य के प्रति हमेशा आकर्षण दिखाया। उनके समकालीनों में अल्लामा इकबाल, फैज़ अहमद फैज़, कैफ़ी आज़मी और साहिर लुधियानवी जैसे प्रसिद्ध उर्दू शायर शामिल थे। फिर भी वे कम उम्र में ही उर्दू शायरी में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हो गए थे।
रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक गोरखपुरी कैसे जुड़ा इसकी भी रोचक दास्तां है। जानकारी के मुताबिक, अगस्त 1916 में जब मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर गए तो उस समय वह अक्सर फिराक के पिता गोरख प्रसाद 'इबरत' के साथ उनके आवास लक्ष्मी निवास तुर्कमानपुर में बैठकी किया करते थे। ऐसे में फिराक को भी उनका सानिध्य मिलना स्वाभाविक था। इसी समय एक समय एक अवसर पर प्रेमचंद के पास एक पत्रिका आई, उन्होंने इसे फिराक को पढ़ने को दिया। इसमें उर्दू के मशहूर लेखक नासिर अली 'फिराक' का नाम प्रकाशित था। रघुपति सहाय को नासिर के नाम में जुड़ा 'फिराक' भा गया और उन्होंने उसे अपना तखल्लुस बनाने का फैसला कर लिया और इस तरह रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक जुड़ गया।

साहित्य और उर्दू के प्रति गहरा लगाव रखने वाले फिराक पढ़ने में बहुत मेधावी थे। उन्हें प्रांतीय सिविल सेवा (पी.सी.एस.) और भारतीय सिविल सेवा (ब्रिटिश भारत) (आई.सी.एस.) के लिए चुना गया था, लेकिन उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का पालन करने के लिए इस्तीफा दे दिया, जिसके लिए वे 18 महीने के लिए जेल भी गए थे। बाद में वह कांग्रेस में भी शामिल हुए लेकिन चौरीचौरा कांड के बाद महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला उनकी फितरत को रास नहीं आया और उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 1930 में उन्होंने एमए किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गए।
उन्होंने अपनी अधिकांश कविताएं उर्दू में लिखीं, जिसमें उनकी महान रचना गुल-ए-नगमा भी शामिल थी, जिसने उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार, ज्ञानपीठ और उर्दू में 1960 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिलाया। जब उन्हें ज्ञानपीठ में एक लाख रुपये की राशि पुरस्कार स्वरूप मिली तो एक शायर ने उनसे पूछा कि फिराक साहब आप इतने रुपयों का क्या करेंगे। फिराक साहब ने तपाक से कहा अरे इतने पैसे तो मुझसे मंच पर भी नहीं सम्हलते। मैने आयोजकों से कहा है कि इन्हें गरीब छात्रों में बांट दें जो पढ़ नही पा रहे या अपना लक्ष्य नहीं हासिल कर पा रहे।

उनका एक और किस्सा मशहूर है कि एक बार इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाने का प्रस्ताव किया। जिस पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा था कि आनंद भवन से मेरे रिश्ते मोतीलाल नेहरू के समय से रहे हैं। आपका मेरे लिए जो स्नेह है वह मेरे लिए सौ राज्यसभा सदस्य होने के बराबर है।
फिराक गोरखपुरी ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई जैसे सभी पारंपरिक छंदों में पारंगत थे। उन्होंने उर्दू कविता के एक दर्जन से अधिक खंड, उर्दू गद्य के आधा दर्जन, हिंदी में साहित्यिक विषयों पर कई खंड, साथ ही साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर अंग्रेजी गद्य के चार खंड लिखे। उनकी जीवनी, फिराक गोरखपुरी: द पोएट ऑफ पेन एंड एक्स्टसी, उनके भतीजे अजय मानसिंह द्वारा लिखित, 2015 में रोली बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई थी। उन्हें अखिल भारतीय रेडियो द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और निर्माता एमेरिटस में अनुसंधान प्रोफेसर का पद दिया गया था। लंबी बीमारी के बाद 3 मार्च 1982 को नई दिल्ली में उनका निधन हो गया।
उनके कुछ शेर पेश हैं
'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी'
हम भी 'फ़िराक़' कम नहीं
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आदमी को आदमी दरकार है
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं


Dharmendra Singh

Dharmendra Singh

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