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UP Assembly Elections: निशाने पर वोट बैंक, विधानसभा चुनाव के पहले राजनीतिक दल इनको साधने में जुटे

UP Assembly Elections: उत्तर प्रदेश (uttar pradesh vidhan sabha chunav) के इतिहास में यह शायद पहला मौका है जब सभी दलों में चुनाव के पूर्व ही इतनी बेचैनी दिखाई पड़ रही है।

Shreedhar Agnihotri
Written By Shreedhar AgnihotriPublished By Shweta
Published on: 14 Oct 2021 12:54 PM IST
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कॉन्सेप्ट फोटो ( फोटोः सोशल मीडिया)

UP Assembly Elections: यूपी के चुनावी महासमर का बिगुल अभी नहीं बजा है लेकिन युद्ध के लिए सेनाओं के शिविर में बेचैनी साफ दिख रही है। ऐसा लगता है राजनीतिक दल ताल ठोंककर एक दूसरे से यह कह रहे हों कि ''आ देखे जरा किसमें कितना है दम।'' सभी दल सत्ता का सिंघासन हथियाने को आतुर हैं। खास बात यह है कि अगले विधानसभा चुनाव (UP Vidhan Sabha) रूपी इस महायुद्ध में इस बार युवा सेनापतियों के हाथ में ही कमान होगी।

उत्तर प्रदेश (uttar pradesh vidhan sabha chunav) के इतिहास में यह शायद पहला मौका है जब सभी दलों में चुनाव के पूर्व ही इतनी बेचैनी दिखाई पड़ रही है। इसका सीधा कारण केन्द्र और प्रदेश दोनो जगहों पर भाजपा की सत्ता का होना है। साथ ही एक कारण भाजपा का सांगठनिक स्तर पर मजबूत होना भी है। जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह पिछले एक साल से चुनाव मैदान में उतरने के लिए अपनी तैयारी कर रही है।

भाजपा चुनाव (Bjp chunav) के पहले कार्यकर्ताओं को सम्बल प्रदान करने के लिए कई कार्यक्रमों की शुरूआत कर चुकी है। वह अपने कार्यकर्ताओं को बता रही है कि 2017 के मुकाबले इस बार उनके पास भाजपा सरकार की उपलब्धियों को बताने के लिए बहुत कुछ है। इस बार भाजपा विधानसभा चुनाव में पार्टी को 350 सीटों को (bhajpa vidhan sabha chunav seat) जीतने के लक्ष्य को लेकर चुनाव मैदान में उतर रही है। भाजपा न सिर्फ मोदी सरकार (modi sarkar) के पांच साल के कामकाज की उपलब्धियां प्रदेश की जनता तक सफलता पूर्वक पहुंचाने के लक्ष्य के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है। बल्कि योगी सरकार ( yogi sarkar) के जनहित में उठाए गए कामों की भी एक लम्बी श्रृखला है। पार्टी की नीति है कि जनता को बताया जाए कि प्रदेश में 2017 से पहले पिछले 15 सालों में जो भी सरकारें आईं उन्होंने प्रदेश को करीब तीस वर्ष पीछे धकेल दिया।

भाजपा नेतृत्व जनता को इसी बात का भरोसा दिलाने की कोशिश में है कि अगर यह बात लोगों के दिमाग में उतार दी गई। लोगों को यह समझा दिया गया कि अकेले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्हें प्रदेश की जनता के भविष्य की चिंता है। जबकि बाकी सारे विपक्षी नेता सिर्फ सत्ता के लिए योगी सरकार को हटाना चाहते है।

सपा से अलग हुए शिवपाल सिंह यादव को लेकर समाजवादी पार्टी चितिंत दिख रही है। अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव के मिलन की तस्वीर आज तक साफ नहीं हो सकी है। दोनो तरफ से 'कभी हां तो कभी न' की कवायद चलती रहती है। समाजवादी पार्टी भी इस प्रयास में है कि कुछ छोटे दल उसके साथ में आ जाए । पर ओमप्रकाश राजभर के भागीदारी संकल्प मोर्चा में ही छोटे दल लगातार शामिल होते जा रहे हैं। पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में उतर रही भीम आर्मी कई दलों का खेल बिगाड़ सकती है। भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर रावण ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं । पर इतना तय है कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा समेत कई दलों का खेल बिगाड सकते हैं।

संभावना इस बात की है कि चंद्रशेखर उर्फ रावण अगले चुनाव से पहले कोई भी राजनीतिक फैसला बेहद सूझबूझ और भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं को ध्यान में रखकर ही लेगे। आजाद समाज पार्टी के नाम से राजनीतिक दल का गठन करने वाले चंद्रशेखर पहली बार चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। हांलाकि भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर की आठ दलों के भागीदारी संकल्प मोर्चा से जुडने की बात कही जा रही है। पर सीटों के बंटवारे को लेकर यदि बात न बनी तो वह इस गठबन्धन से अलग हो सकते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में अपनी अच्छी खासी पकड़ बना चुकी भीम आर्मी से सबसे अधिक खतरा बहुजन समाज पार्टी को है। उनका दावा है कि इस पार्टी की सरकार में दलितों और कमजोरों का बहुत शोषण हुआ है।

प्रदेश में शिवपाल सिंह यादव के दल से सबसे बड़ा खतरा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और भतीजे अखिलेश यादव को ही है। क्योंकि जिस तरह अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को सत्ता से बेदखल कर उनका अपमान किया। वह भारतीय समाज के लिए अशोभनीय कहा गया। जहां तक कद की बात है तो राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर अखिलेश यादव को शिवपाल सिंह यादव का साथ न मिलने के कारण कमजोर समझा जा रहा है। कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव ने विपक्ष की राजनीति उतनी नहीं की जितनी शिवपाल सिंह यादव ने अपने बडे़ भाई मुलायम सिह यादव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कर चुके है। यह भी तय है कि सत्ता का सिघांसन इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश से तय होगा। यही कारण है कि विपक्षी दलों सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस ने इस क्षेत्र के किसानों की नाराजगी का लाभ उठाने की तैयारी अभी से शुरू कर दी है।

मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत के दौरान केन्द्र और प्रदेश की भाजपा सरकारों के खिलाफ किसानों की नाराजगी को देखते हुए सबसे अधिक उत्साहित राष्ट्रीय लोकदल दिख रहा है। चौ अजित सिंह के निधन के बाद उनके बेटे जयंत चौधरी के नेतृत्व में पहली बार रालोद किसी बडे चुनाव में उतरने जा रहा है। रालोद मान चुका है कि इस चुनाव में उसे बढत मिलने वाली है। वहीं समाजवादी पार्टी को रालोद के साथ गठबन्धन के कारण अपनी नैया पार होते दिख रही है। उधर बसपा सुप्रीमों मायावती भी लगातार केन्द्र और प्रदेश सरकार पर हमलावर होकर अपनी सांगठनिक तैयारियों में जुटी हुई है। प्रबुद्ध सम्मेलनों के जरिए वह 2007 की तरह ब्राम्हणों के बडे़ वोट बैंक पर कब्जा करने के प्रयास में हैं। इसके अलावा उन्होंने पार्को, मूर्तियों, स्मारकों के साथ ही माफिया मुख्तार अंसारी का टिकट काटकर अभी से यह संदेश देना शुरू कर दिया है कि वह गुंडो व माफियाओं से अपनी पार्टी को दूर रखेगी। पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को पहले ही बदल चुकी है और अब प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र की टोह लेने में लगी हुई है। हांलाकि अभी तक प्रत्याशियों की घोषणा नहीं हुई है । पर उम्मीद है कि अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में सबसे पहले बसपा ही अपने प्रत्याशियों की घोषणा करेगी।

पिछले कई विधानसभा चुनाव के बाद यह पहला अवसर है जब विपक्ष में रहते हुए समाजवादी पार्टी के संस्थापक और देश के जाने माने नेता मुलायम सिंह यादव स्वास्थ्य कारणों से राजनीतिक गतिविधियों से अपने आपको काफी दूर किए हुए हैं। यादव परिवार की इसी कमजोरी का लाभ सत्ताधारी दल भाजपा उठाना चाह है। यही कारण है कि भाजपा सरकार शिवपाल सिंह यादव को आलिशान सरकारी बंगला (पूर्व मुख्यमंत्री मायावती) एलाट कर बड़ा दांव खेल चुकी है। भाजपा को पता है कि समाजवादी पार्टी के परम्परागत यादव वोट बैंक को बिखराने के लिए शिवपाल सिंह यादव को बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है।

भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में भी यादव बाहुल्य क्षेत्रों में भी सफलता पाई थी। अब पार्टी की रणनीति आगामी चुनाव में भी यही प्रयोग दोहराने की है। उसे लग रहा है कि पिछले चुनाव में जो सीटे उसके हाथ से निकल गयी थी, उन्हे इस चुनाव में सेक्युलर मोर्चा के सहारे हथिया लिया जाए। इसलिए भाजपा शिवपाल सिंह यादव के सहारे यादव बाहुल्य सीटों मैनपुरी, कन्नौज, फिरोजाबाद, आजमगढ और बदायू आदि क्षेत्रों की विधानसभा सीटों पर कब्जा करना चाह रही है। उधर कांग्रेस में प्रियंका गाधी वाड्रा के सक्रिय राजनीति में उतरने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं में मानो नई जान आ गयी हो। प्रियंका गांधी का जिस तरह से लखनऊ में रोड शो हुआ और उन्होंने लखनऊ में डेरा जमाकर कार्यकर्ताओं की टोह ली। उसके बाद से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को लगने लगा है कि पार्टी एक बार फिर तीन दशक पहले वाली कांग्रेस हो जाएगी। कांग्रेस में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी का ही कार्यकर्ताओं को सहारा है। प्रदेश में काफी लंबे वक्त से राजनीतिक वनवास झेल रही कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को उतारकर अपने 'ब्रम्हास्त्र' का इस्तेमाल तो किया है। पर कार्यकर्ताओं की हताशा को दूर करना प्रियंका वाड्रा के लिए एक बड़ी चुनौती है। प्रियंका को भले ही विधानसभा चुनाव के चश्मे से देखा जा रहा है, । लेकिन कांग्रेस किसी छोर पर प्रियंका गांधी को 2022 में यूपी का सीएम कैंडिडेट बनाने का प्रयास भी कर रही है।

पार्टी में फिलहाल सर्वाधिक मंथन प्रियंका की चुनावी सीट को ले कर हो रहा है। कोशिश है कि उनके लिए ऐसी सीट चुनी जाए जिससे सूबे के साथ-साथ पूरे देश में एक बड़ा संदेश जाए। दरअसल, कांग्रेस को लग रहा है कि ब्राम्हण वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए प्रदेश की चुनावी कमान किसी ब्राम्हण को सौंपी जाए। इसलिए प्रियंका वाड्रा के दौरों के समय विधानमंडल दल की नेता आराधना मिश्रा मोना को बराबर साथ रखा जाता है। लेकिन सियासी रसातल में जा पहुंची कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की प्रियंका गांधी वाड्रा की कवायद को कांग्रेसियों का ही पूरा साथ नहीं मिल रहा है।



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