Kalyan Singh: कोई भी कीमत चुकाने को तैयार, लेकिन तेवर बदलना नहीं सीखा

कल्याण सिंह एक ऐसे नेता का नाम है जिसने अपने सिद्धांतों और नीतियों के आगे झुकना नहीं सीखा था। चाहे इसके लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी ही क्यों न हो वह उसे कुर्बान करने से पीछे नहीं हटे।

Ramkrishna Vajpei
Written By Ramkrishna VajpeiPublished By Shashi kant gautam
Published on: 21 Aug 2021 6:26 PM GMT
Kalyan Singh is the name of a leader who did not learn to bow down to his principles and policies
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कल्याण सिंह: फोटो- न्यूजट्रैक

Kalyan Singh: कल्याण सिंह एक ऐसे नेता का नाम है जिसने अपने सिद्धांतों और नीतियों के आगे झुकना नहीं सीखा था। चाहे इसके लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी ही क्यों न हो वह उसे कुर्बान करने से पीछे नहीं हटे। लेकिन जनहित को उन्होंने हमेशा अपनी राजनीति में सर्वोपरि रखा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को फर्श से अर्श पर ले जाने वाले चंद लोगों में कल्याण सिंह का नाम सबसे ऊपर है।

रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान अपने तेवरों से वह हिन्दू हृदय सम्राट बन गए लेकिन अपनी अख्खड़ता के चलते भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से टकराने से भी नहीं चूके। इसके लिए भारी कीमत चुकाई लेकिन झुके नहीं। यहां तक कि चिर प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह के साथ चले गए लेकिन तेवर तब भी नहीं बदले। जिसके चलते मुलायम का साथ भी ज्यादा नहीं निभ सका। वह कल्याण ही क्या जिसके तेवर बदल जाएं।

इसीलिए अपनी दूसरी पारी में जब वह भाजपा में वापस आए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया तो यहां भी यह उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक अख्खड़ता ही थी कि वह एक नया कीर्तिमान बनाकर हटे। जिस राजस्थान में 52 साल में 40 राज्यपाल बने हों वहां वह पांच साल पूरे करने का रिकार्ड बनाकर हटे। पूरे कार्यकाल में वह मुख्यमंत्री पर हावी रहे और मनमानी नहीं करने दी।

कल्याण सिंह: फोटो- न्यूजट्रैक


जिद्द उनकी सफलता की सीढ़ी भी बनी

कल्याण सिंह के स्वभाव में जुझारूपन और जिद्द रही और यही जिद्द उनकी सफलता की सीढ़ी भी बनी। 1962 में अतरौली सीट से वह पहली बार चुनाव लड़े और हार गए लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी पांच साल बाद फिर चुनाव हुए और वह जीते और यह ऐसी जीत थी कि इसके बाद वह लगातार आठ बार अतरौली से सीट से जीते।

1989-90 में जब मंडल और कमंडल की सियासत सिर चढ़कर बोल रही थी। देश में अगड़ा पिछड़ा हो रहा था तो भाजपा के तत्कालीन चाणक्य गोविंदाचार्य के सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूले से कल्याण सिंह को नई उड़ान मिली। कल्याण सिंह एक बार जो उठे तो इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

कल्याण सिंह के कुशल नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार सत्ता का स्वाद चखा। हालांकि उस समय तक भाजपा का एक बड़ा वर्ग सत्ता पाने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था लेकिन कल्याण सिंह सावधान से सत्ता पा जाना और बरकरार रखना दोनों के अंतर को बखूबी जानते थे इसलिए शुरुआत के तीन चार महीने तक उन्होंने सबसे दूरी बनाकर सरकारी मशीनरी की खामियों का अध्ययन किया।

नौकरशाही को अपने सामने कभी सिर नहीं उठाने दिया

वह जानते थे कि यदि वह चूक गए तो नौकरशाही उन्हें अपनी उंगलियों पर नचाएगी। पूरी तैयारी के साथ उन्होंने जब शासन चलाना शुरू किया तो नौकरशाह जो मंत्रियों को अपने हिसाब से चलाने के आदी हो चुके थे वह कल्य़ाण सिंह के कक्ष में घुसने से घबड़ाने लगे। इसके बाद कल्याण सिंह ने नौकरशाही को अपने सामने कभी सिर नहीं उठाने दिया। इस दौर में एक खास बात यह हुई कि कल्याण सिंह भाजपा में पिछड़ी जातियों का चेहरा बनकर स्थापित हो गए। उनकी टक्कर का कोई दूसरा नेता सूबे में था ही नहीं।

कल्याण सिंह: फोटो- सोशल मीडिया

अपनी पहली सरकार में कल्याण सिंह माफियाओं के लिए काल बन गए। सूबे से सारे माफिया या तो पलायन कर गए या जेल मे डाल दिये गए। लेकिन दूसरी बार सत्ता में आने पर उनके द्वारा कुंडा के राजा भैया को मंत्री बनाना भाजपा के तमाम नेताओं को अखर गया हालांकि कल्याण सिंह ने सबके विरोध के बावजूद राजा भैया के उस अहसान को चुकाया जो उन्होंने मायावती के समर्थन वापसी के बाद किया था।

कल्याण सिंह: फोटो- सोशल मीडिया


कुसुम राय को लेकर विवादों में आये थे कल्याण सिंह

लेकिन इसके बाद कल्याण सिंह का समय विपरीत हो गय़ा और वह कुसुम राय को लेकर वह विवादों में आ गए। आरोप लगा कि कल्याण सिंह सरकार के तमाम फैसले कुसुम राय लेती थीं लेकिन कल्याण सिंह पर नेताओं के विरोध का कोई असर नहीं हुआ। जिसके चलते अंत में उनका अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता से भी टकराव हो गया लेकिन कल्याण सिंह ने झुकना तो जैसे सीखा ही नहीं था। कल्याण सिंह को केंद्र की राजनीति में आने का मौका दिया गया लेकिन वह विरोधियों के दबाव में फैसला लेने को तैयार ही नहीं थे। जिसकी कीमत उन्हें भाजपा से बाहर होकर चुकानी पड़ी।

उन्होंने अलग पार्टी भी बनाई। जिस मुलायम सिंह यादव का विरोध कर वह नेता के रूप में उभरे थे उनके साथ भी खड़े हुए लेकिन अंत में पुनः भाजपा में वापस आए। कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया। यूपी बोर्ड जो कि नकल माफिया के चंगुल में आ गया था ये कल्याण सिंह जैसे नेता की ही दूरदर्शिता थी कि नकल विरोधी कानून कानून लाकर परीक्षाओं की शुचिता लौटाई। आज कल्याण सिंह बेशक नहीं हैं लेकिन उनका राजनीतिक सफर एक रील की तरह घूम रहा है।

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