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UP Politics: मायावती के ब्राम्हणों पर डोरे डालने से पहले भाजपा, सपा और कांग्रेस भी तैयार

UP Politics: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक देखकर राजनीतिक दलों ने अपनी पैतरेबाजी तेज कर दी है।

Shreedhar Agnihotri
Written By Shreedhar AgnihotriPublished By Dharmendra Singh
Published on: 19 July 2021 11:47 PM IST (Updated on: 19 July 2021 11:48 PM IST)
Brahmin Vote Bank
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सीएम योगी आदित्यनाथ, अखिलेश यादव, मायावती और प्रियंका गांधी (काॅन्सेप्ट फोटो: सोशल मीडिया)

UP Politics: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक देखकर राजनीतिक दलों ने अपनी पैतरेबाजी तेज कर दी है। कभी ब्राम्हणों के बल पर सत्ता हासिल करने वाली बसपा ने चुनावों में बड़ी सफलता मिलते न देख एक बार फिर 14 प्रतिशत वाले इस बड़े वोट बैंक को अपने पाले में करने की कवायद तेज कर दी है। बहुजन समाज पार्टी ब्राम्हण सम्मेलनों के बहाने कथित तौर पर भाजपा से नाराज चल रहे इस वोट बैंक को हथियाना चाह रही है। केवल बसपा ही नहीं यूपी की राजनीति में ब्राम्हणों का हितैषी बनने की होड़ है। हर दल स्वयं को इस वर्ग का सच्चा हमदर्द बताने की कोशिश में है।

कानपुर के बिबरू कांड के बाद से ही सत्ताधारी भाजपा समेत विपक्षी दल सपा, बसपा आौर कांग्रेस अभी से इस मुहिम में जुट गए हैं। जहां योगी सरकार डैमेज कंट्रोल में लगी है वहीं विपक्षी दल हाथ आए इस मौके को गंवाना नहीं चाहते हैं।


मायावती की कोशिश अब फिर से 2007 के विधानसभा चुनाव के प्रयोग को दोहराने की है। उन्हें लगता है कि 'सोशल इंजीनियरिंग' फार्मूले के तहत ब्राह्मण, मुस्लिम और पिछड़ा-दलित कार्ड का लाभ भविष्य की राजनीति में फिर से दोहराया जा सकता है। बसपा मूवमेंट के विस्तार के साथ ही पार्टी प्रमुख मायावती ने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा दिया था और यह नारा काफी कारगर भी सिद्ध हुआ था।
जातीय आधार पर देखा जाए तो यूपी में दलितों की आबादी 15 प्रतिशत और ब्राम्हणों की आबादी 14 प्रतिशत को जोड़ने के साथ ही 54 प्रतिशत पिछड़ा वोट बैंक के और 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट किसी भी दल की किस्मत बदलने के लिए काफी है। मायावती यही प्रयोग फिर से करने के प्रयास में हैं।

मुलायम सिंह यादव पिछड़ों के सबसे बड़े मसीहा माने जाते रहे हैं। अब वह राजनीति में सक्रिय नही हैं जिसके कारण यह बड़ा वोट बैंक भाजपा की तरफ लगातार खिसकता जा रहा है, लेकिन अभी भी एक ऐसा वोट बैंक पिछड़ों का है जो मोदी की नीतियों से नाराज है तो अखिलेश के नेतृत्व क्षमता को लेकर भी संदेह के घेरे में रहता है। मायावती इस नाराजगी का लाभ उठाना चाहती हैं।
बसपा के पास ब्राम्हणों के नेता के तौर पर एकमात्र सतीश चंद्र मिश्र ही हैं। उन्हें ही ब्राम्हण सम्मेलनों को आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। बसपा में अधिकतर ब्राम्हण नेता पार्टी छोड़ चुके हैं अथवा उनको पार्टी से बाहर कर दिया गया है। इस समय सतीश चंद्र मिश्र के बाद पार्टी विधायक विनय तिवारी का ही नाम आता है। जबकि पूर्व कैबिनेट मंत्री नकुल दुबे निष्क्रिय हैं और गोपाल मिश्र की राजनीति में कोई विशेष पहचान नहीं है।

उधर सभी दलों ने अपने दल में 'ब्राम्हण ब्रिगेड' बनाने शुरू कर दिए हैं। इस मामले में फिलहाल भाजपा आगे है। उसके पास सबसे अधिक ब्राम्हण सांसद और विधायक हैं। जबकि अन्य दलो में बहुजन समाज पार्टी अभी पीछे है। जहां भाजपा में सांसदों में सुधांशु द्विवेदी, हरीश द्विवेदी, सुब्रत पाठक, सत्यदेव पचौरी ने मोर्चा संभाल लिया है वहीं प्रदेश सरकार के मंत्रियों की बात की जाए तो डाॅ दिनेश शर्मा, ब्रजेश पाठक, श्रीकांत शर्मा , रामआसरे अग्निहोत्री, सतीश द्विवेदी, आनन्द स्वरूप शुक्ला, नीलकंठ तिवारी आदि जनता को यह बताने में जुट गए हैं कि भाजपा ही उनकी सबसे हितैशी पार्टी है।

मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने परशुराम जी की प्रतिमा बनवाने को लेकर ब्राम्हणों को लुभाने का काम शुरू किया है। समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रीय सचिव प्रो अभिषेक मिश्र और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय के अलावा पार्टी विधायक मनोज पांडेय ब्राम्हणों को लुभाने के लिए तैयार हैं। कांग्रेस ने यूपी विधानसभा में विधानमंडल की नेता आराधना मिश्रा मोना के अलावा पिता पुत्र राजेश पति और ललितेशपति त्रिपाठी को ब्राम्हणों को जोडने की मुहिम में आगे किया है।


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