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जन्मदिन विशेष: संस्कृत भाषा,बाल विवाह,विधवा विवाह,नव चेतना के वाहक — ईश्वरचंद विद्यासागर
विद्यासागर के कृतित्व की कहानियां रोचक और सोचने पर मजबूर करती है। एक मानव में लेखक, अनुवादक, प्रकाशक, दया,करुणा और सुधार के प्रति अथक लग
लखनऊ: विद्यासागर के कृतित्व की कहानियां रोचक और सोचने पर मजबूर करती है। एक मानव में लेखक, अनुवादक, प्रकाशक, दया,करुणा और सुधार के प्रति अथक लगन सब कुछ तो था। उस समय का भारतीय समाज कुरीतियों और अंधविश्वास के आकंठ में डूबा हुआ था। बाल विवाह और विधवा विवाह की जटिल सामाजिक समस्यायें भारतीय जनजीवन का हिस्सा बन गईं थी। लोक परम्परा की गहरी जड़ों से इन कुरीतियों को हटा कर नए समाज और प्रगतिशील समाज की कल्पना करना भी भयावह था। इनसे लड़ने का मनोबल उस समय किसी में न था।
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ऐसे वक्त में समाज में स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध विगुल फूकनें का काम किसी महामानव के ही बस का था। राजा राम मोहन राय ने इन कुरीतियों के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दिया था। और उनके उत्तराधिकारी के रूप में इस काम बीड़ा उठाया ईश्वरचंद नाम के उस मानव ने जो बचपन में होनहार तो था पर आर्थिक तौर कमजोर। कुशाग्र बुद्धि के मालिक विद्यासगर ने शैक्षिक बाधओं का इस तरह निस्तारण किया कि सहयोग स्वरूप उन्हे छात्रवृत्ति मिलने लगी। अभी तो इनका सफर शुरू ही हुआ था। अपने परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से ही ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। वर्ष 1839 में ईश्वर चन्द्र ने सफलता पूर्वक अपनी क़ानून की पढ़ाई संपन्न की।
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वर्ष 1841 में मात्र इक्कीस वर्ष की आयु में उन्होंने संस्कृत के शिक्षक के तौर पर 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में पढ़ाना शुरू कर दिया। पाँच साल बाद 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' छोड़ने के पश्चात ईश्वर चन्द्र विद्यासागर 'संस्कृत कॉलेज'में बतौर सहायक सचिव नियुक्त हुए। पहले ही वर्ष उन्होंने शिक्षा पद्धति को सुधारने के लिए अपनी सिफारिशें प्रशासन को सौप दीं। लेकिन उनकी रिपोर्ट ने उनके और तत्कालीन कॉलेज सचिव रसोमय दत्ता के बीच तकरार उत्पन्न कर दी,जिसकी वजह से उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। लेकिन 1849 में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को साहित्य के प्रोफ़ेसर के रूप में 'संस्कृत कॉलेज' से एक बार फिर जुड़ना पड़ा।
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इसके बाद 1851 में वह इस कॉलेज के प्राधानचार्य नियुक्त किए गए,लेकिन रसोमय दत्ता के अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को 'संस्कृत कॉलेज' से त्यागपत्र देना पड़ा, जिसके बाद वह प्रधान लिपिक के तौर पर दोबारा'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में शामिल हुए।सुधारक के रूप में विद्यासागर को राजा राममोहन राय का उत्तराधिकारी माना जाता हैं। इन्होने विधवा पुनर्विवाह के लिए आंदोलन किया और सन 1856 में इस आशय का अधिनियम पारित कराया। 1856-60 के मध्य इन्होने 25 विधवाओ का पुनर्विवाह कराया। इन्होने नारी शिक्षा के लिए भी प्रयास किए और कुल 35 स्कूल खुलवाए।
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नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही कलकत्ता में एवं अन्य स्थानों में बहुत अधिक बालिका विद्दालयों की स्थापना हुई। उस समय हिन्दु समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत ही सोचनीय थी। उन्होनें विधवा पुनर्विवाह के लिए लोगमत तैयार किया। अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक विधवा से ही किया। उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया। विद्यासागर एक दार्शनिक,शिक्षाशास्त्री,लेखक,अनुवादक,मुद्रक,प्रकाशक, उद्यमी,सुधारक एवं मानवतावादी व्यक्ति थे। उन्होने बांग्ला भाषा के गद्य को सरल एवं आधुनिक बनाने का उनका कार्य सदा याद किया जायेगा।
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उन्होने बांग्ला लिपि के वर्णमाला को भी सरल एवं तर्कसम्मत बनाया। बंगला पढ़ाने के लिए इन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया। संस्कृत कॉलेज में पाश्चात्य चिंतन का अध्ययन भी आरंभ किया।
अपनी सहनशीलता, सादगी तथा देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध और एक शिक्षाशास्त्री के रूप में विशिष्ट योगदान करने वाले ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ।