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बीआरडी मेडिकल कॉलेज : अगस्त नहीं, अक्टूबर में मर रहे मासूम

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Published on: 27 Oct 2017 8:47 AM GMT
बीआरडी मेडिकल कॉलेज : अगस्त नहीं, अक्टूबर में मर रहे मासूम
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पूर्णिमा श्रीवास्तव की रिपोर्ट

गोरखपुर। बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज में आक्सीजन की कमी से हुए मासूमों की मौतों के सभी गुनहगार जेल पहुंच चुके हैं। मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर, दवा से लेकर चिकित्सकीय उपकरणों के पहुंचने के दावे हो रहे हैं, लेकिन मौत के आकड़े सूबे के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह के उस विवादित बयान को भी झुठलाने में लगे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि अगस्त में तो मौतें होती ही हैं। हकीकत यह है कि बीआरडी मेडिकल अगस्त से अधिक मौतें सितम्बर में हो चुकी हैं। अब अक्टूबर पिछले दो महीनों के आंकड़े को तोड़ता दिख रहा है। हालांकि कार्रवाई के नाम पर तेजी दिख रही है। भ्रष्टाचार, प्राइवेट प्रैक्टिस, कर्तव्यपालन में लापरवाही के आरोप में मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ राजीव मिश्रा, उनकी पत्नी डॉ पूर्णिमा, बाल रोग विभाग के चिकित्सक डॉ.कफील समेत छह लोग जेल भेजे जा चुके हैं। निचली अदालत से इनकी जमानत खारिज भी हो चुकी है।

22 तक 339 मासूमों की मौत

गत 10 और 11 अगस्त को बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से बाल रोग विभाग में 36 से अधिक मासूमों की मौत के बाद प्रदेश सरकार से लेकर मेडिकल कॉलेज प्रशासन सवालों के घेरे में आ गया था। ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली पुष्पा सेल्स कंपनी ने 69 लाख से अधिक के बकाए के कारण ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी जिसके चलते मासूमों ने घुट-घुटकर दम तोड़ दिया। मामला उछलने के बाद मेडिकल कॉलेज पहुंचे स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने पूर्व के आकड़ों के साथ यह दावा किया कि बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त में होने वाली मौतें नई नहीं हैं। अगस्त में तो मौतें होती ही हैं। आकड़े तस्दीक करते हैं कि अगस्त माह में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 415 मासूमों की मौतें हुईं, सितम्बर में यह आकड़ा 433 तक पहुंच गया। अक्टूबर में मासूमों की मौत का आकड़ा सितम्बर को पार करता दिख रहा है। 22 अक्टूबर तक मेडिकल कॉलेज में 339 मासूमों की मौतें हो चुकी हैं। छोटी दिवाली और दिवाली के दिन जब सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ अयोध्या से लेकर वनटांगियां ग्राम में दिवाली मना रहे थे तब मेडिकल कॉलेज में 400 से अधिक माता-पिता अपने कुलदीपक को बुझने से बचाने की जंग लड़ रहे थे। इन दो दिनों में 50 से अधिक मां की गोद सूनी हो गई।

मासूमों की मौत के कई कारण

मेडिकल कॉलेज में मौतों की बड़ी वजह इंसेफेलाइटिस को ही माना जाता है, लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि बमुश्किल 20 फीसदी बच्चे ही इंसेफेलाइटिस से मर रहे हैं। जाहिर है इतनी बड़ी संख्या में मासूमों की मौत के पीछे कातिल कोई और भी है। यह कोई नया वायरस हो सकता है तो संक्रमण भी। व्यवस्था की खामी हो सकती है तो अप्रशिक्षित डॉक्टरों की फौज भी। वार्डों के आइसोलेशन में हो रही लापरवाही को भी विशेषज्ञ बड़ी वजह मान रहे हैं। मेडिकल कॉलेज के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ.रमाशंकर शुक्ला कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज में भर्ती होने वाले बच्चे पूर्वांचल, नेपाल के तराई और बिहार के सीमावर्ती जिलों के होते हैं। गरीबी के बीच पलने वाले बच्चों को मेडिकल कॉलेज पहुंचने में देरी भी हो जाती है। हालत ज्यादा बिगडऩे पर ही लोग यहां पहुंचते हैं। बीआरडी मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्राचार्य बाल रोग विशेषज्ञ डॉ केपी कुशवाहा का कहना है कि मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस से लडऩे वाले पेशेवर चिकित्सकों की कमी अभी तक दूर नहीं हुई है। गांव और कस्बा स्तर के अस्पतालों में जब तक प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं रखे जाएंगे तब तक स्थितियां सुधरने वाली नहीं हैं। मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर पीके सिंह का दावा है कि मेडिकल कॉलेज में चिकित्सकों, दवाओं से लेकर चिकित्सकीय उपकरणों की कोई कमी नहीं है। हालात बेहतर हो रहे हैं।

प्रयासों के बाद भी कम नहीं हो रहा मौतों का आंकड़ा

योगी सरकार ने मेडिकल कॉलेज की सूरत बदलने के लिए तेजी से कदम उठाने का दावा किया है। कागजों में यह बदलाव दिख भी रहे हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब सीएम से लेकर डीएम और मेडिकल कॉलेज प्रशासन देने में अक्षम है कि आखिर बच्चों की मौतों का आकड़ा क्यों माह दर माह बढ़ता जा रहा हैं। मौतों के चलते मुश्किल में फंसी योगी सरकार ने पुष्पा सेल्स का बकाया भुगतान कर दिया। मेडिकल कॉलेज में पर्याप्त ऑक्सीजन की व्यवस्था कर दी गई है। लगभग हर तीसरे दिन लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर यहां पहुंच रहे हैं।

यहां हर दिन औसतन 1400 मिलीलीटर लिक्विड ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है और इसके लिए 9000 मिलीलीटर का बड़ा ऑक्सीजन टैंक मौजूद है। नए बंदोबस्त के मुताबिक अब 3000 मिलीलीटर ऑक्सीजन शेष रहते ही टैंक को फिर से भर दिया जाता है। इसके अलावा जंबो सिलेंडर की शक्ल में भी ऑक्सीजन का वैकल्पिक प्रबंध है। प्रदेश के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों से 20 डॉक्टरों की तैनाती बाल रोग विभाग में कर दी गई। इसके साथ ही एनआईसीयू प्रोजेक्ट के तहत वर्षों से लंबित 7 करोड़ 28 लाख रुपये को भी सितम्बर में अवमुक्त कर दिया गया। गोरखपुर जिला महिला अस्पताल से 8, टाडा मेडिकल कॉलेज से 12 और यूनिसेफ से 25 नये वार्मर भी मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग में लगा दिए गए। दवाएं भी पर्याप्त मात्रा में मंगा ली गईं।

इतना ही नहीं अखिलेश सरकार में 400 करोड़ की लागत से बन रहे 500 बेड वाले बाल रोग संस्थान के आधे-अधूरे निर्माण के बाद भी डॉक्टरों और पैरा मेडिकल स्टॉफ की नियुक्ति की कवायद तेज हो गई है। मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने इस संस्थान के लिए 1659 डॉक्टरों और पैरा मेडिकल स्टॉफ की नियुक्ति का प्रस्ताव प्रदेश सरकार को भेज दिया है। इनमें 175 डॉक्टर, 450 नर्स, टेक्नीशियन समेत अन्य स्टॉफ शामिल है। सरकारी दावों के बीच उच्च न्यायालय के इलाहाबाद खंडपीठ के निर्देश पर विधिक सेवा प्राधिकरण की एक न्यायमूर्ति भी बच्चों की मौत की वजह जानने और समझने के लिए दो बार दौरे कर चुकी कर चुकी है। खंडपीठ की तरफ से कोई स्पष्ट आदेश आना शेष है।

हकीकत का सामना नहीं करना चाहता कोई

ऑक्सीजन त्रासदी के बाद भी मेडिकल कॉलेज में अपेक्षित सुधार होता नहीं दिख रहा है। इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारी से निपटने के लिए विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी अभी भी पूरी नहीं हो सकी है। पैरा मेडिकल स्टॉफ की अभी भी भारी कमी है। अभी भी एनआईसीयू में एक बेड पर दो से तीन बच्चों को रखना पड़ रहा है। एनआईसीयू के विस्तार का प्रस्ताव अभी भी ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। पीडियाट्रिक आईसीयू (पीआईसीयू) का अपग्रेडेशन फाइलों में बंद है।

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में जारी है मौतों का सिलसिला, 48 घंटो में 42 मौतेप्रिवेंटिव मेडिसिन एवं रिहैबिलिटेशन सेंटर (पीएमआर) के कर्मचारियों को पिछले 18 महीने से वेतन ही नहीं मिल रहा है। पिछले दिनों दिवाली से पहले इन कर्मचारियों को एक माह का वेतन मिला, लेकिन एरियर का अभी भी उन्हें इंतजार है। ऑक्सीजन कांड के बाद कार्यवाहक प्रिंसिपल बने डॉ पीके सिंह ने अगस्त में ही कहा था कि वित्त अधिकारी अवकाश पर हैं। इसलिए वेतन नहीं मिल पा रहा है। वित्त अधिकारी भी आ गए, लेकिन कर्मचारियों के खाते में वेतन नहीं पहुंचा। 10 अगस्त के बाद एनआईसीयू के लिए नए वॉर्मर को इंस्टॉल कर दिया गया, लेकिन बढ़े बेड के लिए नर्सों की व्यवस्था नहीं हो सकी।

सैनिक कल्याण निगम की ओर से जिन छह नर्सों की ड्यूटी लगाई गई थी वे ड्यूटी पर आई ही नहीं। मेडिकल कॉलेज में तमाम वार्डों में कुत्ते घूमते मिल जाएंगे। एपिडेमिक वार्ड में इंसेफलाइटिस व अन्य बीमारियों से ग्रस्त वयस्क मरीज भर्ती होते हैं। यहां के कई एसी काम नहीं कर रहे है। कमरें सिर्फ नाम के लिए आइसोलेशन का दर्जा पाए हुए हैं। गर्मी से परेशान तमाम मरीज खुद पंखे की व्यवस्था करते नजर आते हैं।

एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोप रहे जिम्मेदार

ऑक्सीजन से मौतों के बाद सरकार भले ही खुद को संजीदा होने का दावा करे, लेकिन हकीकत यह है कि सभी एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोप रहे हैं। मेडिकल कॉलेज के प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक (सीएमएस) और बाल रोग विभागाध्यक्ष के बीच अभी भी पत्र युद्ध चल रहा है। लड़ाई इस बात को लेकर है कि इंसेफलाइटिस की रिपोर्टिंग कौन करे। अभी तक मेडिकल कॉलेज का सीएमस आफिस ही मौतों की रिपोर्टिंग करता रहा है, लेकिन अब सीएमएस कह रहे हैं कि बाल रोग विभाग इसकी जिम्मेदारी उठाए। बालरोग विभाग की अध्यक्ष का पक्ष है कि हम बच्चों के इलाज करे या फिर रिपोर्टिंग। पिछले दिनों मेडिकल कॉलेज प्रशासन की लापरवाही को लेकर डीएम ने कॉलेज के प्रिंसिपल को व्यवस्था सुधारने को लेकर कड़ा पत्र लिखा। प्राचार्य ने पत्र को सीएमएस को रेफर कर पल्ला झाड़ लिया।

डीएम भी नहीं सुधार सके हाल

ऑक्सीजन त्रासदी के लिए गोरखपुर के डीएम राजीव रौतेला को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा था। डीएम सिर्फ बैठकों और कमेटियों के जरिए ही बीआरडी की बदहाली को ठीक करने में जुटे हैं। आक्सीजन की कमी से हुई मौतों के बाद डीएम ने सहायक सिटी मजिस्ट्रेट पंकज श्रीवास्तव के नेतृत्व में चार सदस्यीय कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में सहायक मुख्य चिकित्सा अधिकारी, सहायक नगर आयुक्त और मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक शामिल थे। कमेटी को रोज सुबह पहुंचकर व्यवस्था के बाबत रिपोर्ट देनी थी। अगस्त में कमेटी ने पांच दिनों तक रिपोर्ट दी जिसमें मेडिकल कॉलेज प्रशासन की दुव्र्यवस्था प्रकाश में आयी। डीएम राजीव रौतेला के मेडिकल कॉलेज प्रशासन के साथ बैठक भी की लेकिन सुधार नहीं ला सके।

डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टॉफ की स्थिति

बीआरडी के बाल रोग विभाग में इंसेफेलाइटिस प्रभावित मरीजों के इलाज के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत 300 डाक्टर और पैरामेडिकल स्टॉफ की तैनाती है जिनमें 31 डाक्टर और शेष पैरामेडिकल स्टॉफ है। इसके अलावा विभाग में भर्ती दूसरी बीमारी के मरीजों के लिए 20 डाक्टरों समेत 100 कर्मचारी बीआरडी मेडिकल कॉलेज की तरफ से तैनात हैं।

दवा की स्थिति

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस मरीजों के परिजन व्यवस्था से संतुष्ट दिखते हैं। बिहार के सिवान जिले के राजकिशोर सिंह अपने 7 साल के बेटे महेश को लेकर मेडिकल कॉलेज में हैं। उनका कहना है कि वार्ड में 90 फीसदी से अधिक दवाएं मिल रही हैं। वहीं महराजगंज के घुघली निवासी पशुपति पाण्डेय अपनी 8 साल की बिटिया मनीषा का इंसेफेलाइटिस वार्ड में इलाज करा रहे हैं। उनका कहना है कि जूनियर डॉक्टरों का व्यवहार ठीक नहीं है। अलबत्ता दवाओं की कमी नहीं है। वहीं इंसेफेलाइटिस वार्ड से इतर शिशु गहन चिकित्सा कक्ष, एपेडमिक वार्ड और वार्ड नंबर छह में सुविधाओं का जबर्दस्त टोटा है। देवरिया के विजय गुप्ता अपने 5 दिन के बच्चे का शिशु गहन चिकित्सा कक्ष में इलाज करा रहे हैं। उनका कहना है कि 90 फीसदी दवाएं बाहर से खरीदनी पड़ रही हैं। रोज कम से कम हजार रुपये की दवा बाहर से खरीदनी पड़ रही है।

मेडिकल कॉलेज की स्थिति

बीआरडी मेडिकल कालेज में एमबीबीएस की सीटों की संख्या को 50 से बढ़ाकर 100 कर दिया गया। तीन साल पहले बढ़ी सीटों को लेकर डाक्टरों की तैनाती नहीं की गई जिसके बाद कालेज की मान्यता पर संकट है। मान्यता बचाने के लिए पांच प्रोफेसर समेत 22 शिक्षकों की तत्काल जरूरत है। कालेज प्रशासन ने 13 नए पदों के सृजन का प्रस्ताव भी शासन को भेज रखा है। एनॉटमी, बायोकेमेस्ट्री, फार्माकोलॉजी, फोरेंसिक मेडिसिन, साईकेट्री और डेंटिस्ट्री विभाग तो बगैर प्रोफेसर के ही चल रहे हैं।

इसके अलावा संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर के 14 पद रिक्त हैं। असिस्टेंट प्रोफेसर के छह पद रिक्त है। नाक, कान और गला रोग विभाग में शिक्षकों के पद खाली है। एनॉटमी और बायोकेमेस्ट्री में नान मेडिकल शिक्षकों की अधिकता है। बीआरडी में करीब तीन दर्जन पीएमएस के डॉक्टर बतौर शिक्षक संबद्ध हैं। पिछली सपा सरकार के कार्यकाल के अंतिम तिमाही में इनमें से कुछ शिक्षकों की संबद्धता खत्म कर दी गई। वह शिक्षक आज तक वापस नहीं आए। इससे शिक्षकों की कमी का ग्राफ और गिर गया। मेडिकल कॉलेज में क्लीनिकल और नॉन क्लीनिकल विभागों में करीब 45 शिक्षक संविदा पर कई वर्ष से तैनात हैं। इनमें से कुछ ओवरएज हो चुके हैं।

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