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Bulandshahr News: बुलंदशहर सिकंद्राबाद में दशहरे के दिन नही होता रावण दहन, जानें क्या है कारण
Bulandshahr News: बताते है कि ग्रेटर नोएडा के बिसरख में रावण का जन्म हुआ था इसीलिए वहां रावण दहन नही बल्कि रावण को प्रखंड ज्ञानी पंडित मानकर वहां रावण की पूजा की जाती है।
Bulandshahr News: बताते हैं कि ग्रेटर नोएडा के बिसरख में रावण का जन्म हुआ था, इसीलिए वहां रावण दहन नही बल्कि रावण को प्रखंड ज्ञानी पंडित मानकर वहां रावण की पूजा की जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दिल्ली से महज 50 किलोमीटर दूर स्तिथ जनपद बुलंदशहर के सिकंद्राबाद क्षेत्र के गांव सराय घासी में दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता है। क्यों कि सिकंद्राबाद के सरायघासी में रावण के पुतले का दहन चौदस, यानि दशहरा के चार दिन बाद किया जाता है।
सिकंद्राबाद में 4 दिन रही थी रावण की देह
सिकंद्राबाद के बुजुर्ग लोग और श्री रामलीला कमेटी के सदस्यों की मानें तो जब भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था तो रावण की पत्नी मंदोदरी अपने पति रावण को जीवित कराने के लिए मेरठ जनपद के गांव गंगोल में अपने पिता म्यासुर के पास ले जा रही थी।
बताते हैं कि सिकंद्राबाद के सराय घासी में रावण को दशहरे के दिन जिंदा माना जाता है। इस अनोखी एवं प्राचीन प्रथा के पीछे किवदंती है रावण की पत्नी मंदोदरी असुर राज म्यासुर एवं अप्सरा हेमा की पुत्री थी। मंदोदरी का जन्मस्थान मेरठ जनपद के गांव गंगोल हुआ था। असुर राज म्यासूर ज्योतिष एवं वास्तुशास्त्र के ज्ञाता थे। बताया जाता है कि मंदोदरी के पिता म्यासुर के पास जीवनदायनी ऐसी जड़ी बूटियां थी, कि वो मृत शरीर को 8 पहर के अंदर अंदर आने वाले व्यक्ति के प्राण बचा सकती थी। यह बात मंदोदरी जानती थीं। मंदोदरी भगवान श्री राम द्वारा रावण वध के तुरंत बाद अपने पति रावण के शरीर को एक विमान में रख कर अपने पिता म्यासुर के घर के लिए निकल पड़ीं थी।
मंदोदरी ने किया तप
लंका से मेरठ आते हुए सिकंद्राबाद के सराय घासी के ऊपर आकर मंदोदरी रास्ता भूल गयीं और वहीं पर विमान उतार कर घोर तप करने लगीं। चार दिन बाद जब उनके तप का कोई फल नहीं निकला । तब उन्होंने मान लिया कि अब रावण को जिंदा नहीं किया जा सकता। तब मृत होने के चार दिन पश्चात रावण के पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया गया था। यहां के लोग इस बात का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि सराय घासी में रावण के पुतले का दहन आज भी दशहरे के चार दिन पश्चात ही किया जाता है। यहां के लोगों के लिए यह प्रथा आज भी विरासत का हिस्सा है।