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UP Election 2022: दलबदल की मारी, वीपी की तिंदवारी
UP Election 2022: बृजेश भाजपा से सपा में चले गए हैं और दलजीत कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गए हैं। दोनों में नए चुनाव चिन्ह के साथ पुरानी भिड़ंत दिख सकती है।
UP Election 2022: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र बनने और प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का अंग रहने से एक समय -वीपी की तिंदवारी- के रुतबे से लैस रहा तिंदवारी विधानसभा (Banda Tindwari Assembly Seat) क्षेत्र इन दिनों दलबदल के दलदल में धंसने को लाचार है। लखनऊ (Lucknow) में उठे दलबदल बवंडर ने तिंदवारी में सब कुछ उलट-पुलट दिया है। स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) के साथ तिंदवारी विधायक बृजेश कुमार प्रजापति (Tindwari MLA Brijesh Kumar Prajapati) के पलटीमार दांव ने उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी पूर्व विधायक दलजीत सिंह (Daljit Singh) को पलटी मारने पर मजबूर किया है। बृजेश भाजपा से सपा में चले गए हैं और दलजीत कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गए हैं। दोनों में नए चुनाव चिन्ह (new election symbols) के साथ पुरानी भिड़ंत दिख सकती है। कोई जीते, कोई हारे। चौदहवां विधायक किसी दलबदल सूरमा को चुनना तिंदवारी विधानसभा क्षेत्र की नियति हो सकती है। सपा और भाजपा के टिकट वितरण में किसी उलटफेर की क्षीण होती संभावना के बीच दलनिष्ठा से बसपा प्रत्याशी बने जयराम सिंह में भी संभावनाएं खोजी जा रही हैं। लेकिन किसी करिश्में पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।
क्षत्रिय बहुलता ने वीपी को खींचा
1974 में विधानसभा क्षेत्र बना बांदा जिले का तिंदवारी इलाका जनसंघ का गढ़ बनकर उभरा। दीपक चुनाव चिन्ह पर जगन्नाथ सिंह परमार पहले विधायक चुने गए। 1977 में भी जनता पार्टी के टिकट पर परमार अगले विधायक निर्वाचित हुए। लेकिन 1980 में दृश्य बदल गया। कांग्रेस के शिवप्रताप सिंह विधायक चुने गए। सूबे में कांग्रेस की सरकार बनी। विश्वनाथ सिंह प्रताप मुख्यमंत्री बने। विधायक बनने के लिए उन्होंने तिंदवारी को चुना। शिवप्रताप सिंह के इस्तीफे से 1981 के उपचुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह पूरी ठसक से विधायक चुने गए। तिंदवारी मुख्यमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र बन गया। इसी के साथ -वीपी की तिंदवारी- बनने का रुतबा 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के फतेहपुर से सांसद बनकर प्रधानमंत्री बनने तक बदस्तूर जारी रहा। 2009 तक फतेहपुर संसदीय क्षेत्र का अंग रहा तिंदवारी विधानसभा क्षेत्र 2014 से हमीरपुर-महोबा संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। इस बीच 1984 में तिंदवारी से कांग्रेस के ही अर्जुन सिंह विधानसभा सदस्य चुने गए। जबकि 1989 में वीपी लहर पर सवार चंद्रभान सिंह उर्फ चंदा भैया जनता दल से विधानसभा पहुंचे।
निषाद बहुल बना नया मिथक
शुरुआती छह चुनावों में बने क्षत्रिय बहुल चुनाव क्षेत्र के मिथक को 1991 में बसपा के विशंभर प्रसाद निषाद न केवल तोड़ने बल्कि तिंदवारी के निषाद बहुल होने का नया मिथक गढ़ने में भी सफल हुए। 1993 में बसपा-सपा प्रत्याशी बन विशंभर निषाद फिर जीते। 1996 में फतेहपुर से बसपा सांसद चुने जाने पर तिंदवारी से अपने करीबी महेंद्र प्रसाद निषाद को बसपा विधायक निर्वाचित कराने में सफल हुए। इस बीच विशंभर निषाद बसपाई से सपाई बने और 2002 में तत्कालीन राज्यमंत्री विवेक सिंह को हराकर तिंदवारी में अपनी धमक बरकरार रखी। विवेक बांदा विधानसभा से तीन बार जीते। लेकिन विवेक का दुर्भाग्य रहा कि वह और उनके पिता विचित्रवीर सिंह में कोई भी तिंदवारी फतह नहीं कर पाया। 2007 में भी तिंदवारी में विशंभर निषाद ने बालू व्यवसाई से नेता बने दलजीत सिंह को हराकर अपना सिक्का कायम रखा।
विशंभर निषाद का पलायन
2012 में कांग्रेस का हाथ पकड़ कर दलजीत ने बाजी पलट दी। विशंभर निषाद के प्रभुत्व को उखाड़ फेंका। फीका पड़ गया क्षत्रिय बहुल मिथक फिर दमक उठा। लेकिन इसकी मियाद ज्यादा नहीं रही। 2017 में दलजीत को पटखनी देकर भाजपा के बृजेश प्रजापति ने कमल खिला दिया। तिंदवारी में पिछड़ा बहुल होने का नया ठप्पा लगा। मुकाबले में सपा की कमान संभाले विशंभर निषाद के तीसरे स्थान पर लुढ़कने से उन पर सवाल उठे। सपा ने राज्यसभा भेजकर विशंभर निषाद की भरपूर हौसलाफजाई की। लेकिन तिंदवारी में लगे झटकों से वह उबर नहीं पाए। यही वजह है कि उन्हें तिंदवारी से पलायन को मजबूर होना पड़ा है। उन्होंने फतेहपुर जिले की अयाह-शाह सीट से सपा टिकट दिलाकर बेटे को विधानसभा भेजने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है।
किसके सिर सजेगा तिंदवारी का ताज
2022 में तिंदवारी का ताज किसके सिर सजेगा यह जानने के लिए सभी को 10 मार्च का इंतजार है। अभी तो बसपा छोड़ दलगत उम्मीदवारों -खबर लिखते समय तक- की घोषणा बाकी है। इससे पहले तिंदवारी विधानसभा क्षेत्र को अभूतपूर्व दलबदल से जूझना पड़ रहा है। शुरुआत तिंदवारी विधायक बृजेश प्रजापति ने की है। वह लखनऊ में भाजपा से सपा की ओर चले मंत्री विधायकों के कारवां में शामिल हुए। स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ अखिलेश यादव का मंच शेयर कर सपा के सिपाही बन गए। इससे पूर्व विधायक दलजीत की मानो मुराद पूरी हो गई। कांग्रेस में रहते आरएसएस के सेवाभाव में खरा उतरने के बावजूद आयकर विभाग के छापों ने दलजीत का भाजपा में प्रवेश मुश्किल बना रखा था। लेकिन विधायक प्रजापति के सपा में जाने से भाजपा ने बंद द्वार खोल दिए हैं। उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने दलजीत को भाजपा की सदस्यता दिलाई है। माना जा रहा है कि बृजेश और दलजीत अपने अपने दल से उम्मीदवार बनकर एक बार फिर आमने-सामने होंगे। हालांकि प्रत्याशियों की अधिकृत घोषणा नहीं होने तक किंतु परंतु के साथ कयासों का दौर भी चलने वाला है। सपा से ज्यादा भाजपा में कयासबाजी है। गठबंधन साथी निषाद पार्टी ने तिंदवारी सीट में दावा जताकर इन कयासों को और हवा दे दी है। पहले से टिकट के प्रबल दावेदार रहे भाजपा जिलाध्यक्ष रामकेश निषाद का दावा और मजबूत हुआ है। भाजपा में कुछ भी हो सकता है। टिकट न मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़ने के दलजीत के पूर्व ऐलान की भी अनदेखी नहीं की जाती। देखना होगा कि टिकट का ऊंट किस करवट बैठता है। हाल-फिलहाल तो तिंदवारी दलबदल सूरमाओं की हलचल से हलाकान नजर आती है।