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स्वामी चिन्मयानंद सरस्वतीः लखनऊ विश्वविद्यालय से रहा नाता बने क्रांतिकारी
Chinmayananda saraswati: 8 मई 1916 को एक बच्चे का जन्म हुआ, जैसे अन्य बच्चे पैदा होते हैं इसका भी जन्म हुआ।
Chinmayananda saraswati: 8 मई 1916 को एक बच्चे का जन्म हुआ, जैसे अन्य बच्चे पैदा होते हैं इसका भी जन्म हुआ। एक सामान्य और सम्भ्रांत माता-पिता से जन्मे - एक वकील पिता, एक गृहिणी माँ, बालन सभी बच्चों की तरह स्कूल गए; वह बाद में अंग्रेजी साहित्य में डिग्री हासिल करेगा, ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उतरेगा, जेल जाएगा, भयानक रूप से बीमार पड़ जाएगा, उसके लिए जेल से बाहर निकाल दिया जाएगा, एक अजीब महिला द्वारा बचाया जाएगा, एक समाचार पत्र के लिए लिखना शुरू किया जाएगा। उग्र भाषण और योजना और भी अधिक उग्र उजागर करती है और फिर, अचानक वह सब छोड़ देती है, क्योंकि उनमें से किसी ने भी उसे उसके जन्म का उद्देश्य नहीं समझाया। यही युवक आगे चलकर हिन्दू समाज का पथ प्रदर्शक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती हुआ और चिन्मय मिशन की स्थापना की। स्वामी चिन्मयानंद के निर्वाण दिवस 3 अगस्त पर आइये जानते हैं इनकी खास बातें।
डा.किरीट एम पाठक के मुताबिक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक चिंतक तथा वेदान्त दर्शन के विश्व प्रसिद्ध विद्वान थे। इन्होंने सारे भारत में भ्रमण करके देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए स्वामी चिन्मयानंद ने 'गीता ज्ञान-यज्ञ' प्रारम्भ किया और 1953 में 'चिन्मय मिशन' की स्थापना की। जो कि समाज सेवा और वेदांत के लिए काम करने वाली संस्था है। इस समय देश में चिन्मय मिशन के 175 केन्द्र और विदेशों में लगभग 40 केन्द्र कार्य कर रहे हैं। इन केन्द्रों पर लगभग 150 स्वामी एवं ब्रह्मचारी कार्य में लगे है। इनके अनुयायियों की संख्या हर वर्ष बढ़ रही है। स्वामी चिन्मयानंद ने उपनिषद, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्याएं लिखीं। 'गीता' पर लिखा गया उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।
बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का लखनऊ से गहरा नाता रहा। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का माता पिता का दिया नाम बालकृष्ण था। इसी नाम से वह 1940 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र बने थे और यहीं से उन्हें एमए और कानून की परीक्षाएं पास कीं। लेकिन अपनी रुचि के कारण अंग्रेजी साहित्य पढ़ने में अधिक समय दिया। इन्हीं दिनों 1942 में बालकृष्ण स्वतंत्रता आंदोलन में भी कूदे और जेल भी गए। लखनऊ विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद बालकृष्ण ने कुछ दिन तक पत्रकारिता की। उनके लेख मिस्टर ट्रैम्प के छद्म नाम से प्रकाशित हुआ करते थे। इन लेखों के जरिये वह सरकार पर कटाक्ष किया करते थे और देश की गरीब शोषित जनता की आवाज उठाया करते थे।
1947 में बालकृष्ण ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद से मिले जिन्होंने इनका जीवन बदल दिया। इसके बाद बालकृष्ण ने संन्यास ले लिया और स्वामी चिन्मयानंद बन गए। इनके गंभीर चिंतन और मनन को देखते हुए स्वामी शिवानन्द जी ने इन्हें स्वामी तपोवन के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। जो कि उत्तरकाशी में रहते थे। वहां रहकर चिन्मयानंद ने लगभग 8 वर्ष तक वेदांत का अध्ययन किया। तपोवन महाराज एक घण्टे नित्य पढ़ाते थे। शेष समय शिष्य मनन - चिन्तन में व्यतीत करता था। यह अध्ययन बौद्धिक तो था ही, किन्तु व्यावहारिक भी था। शिष्य को अपनी गुरु के शिक्षा अनुसार संयमी, विरक्त और शान्त रहने का अभ्यास करना होता था। इसके परिणामस्वरूप, स्वामी चिन्मयानंद का स्वभाव बिल्कुल बदल गया। जीवन और जगत् के प्रति उनकी धारणा बदल गई। चिन्मयानंद बनने के बाद उनका जीवन मुख्य रूप से ज्ञान यज्ञ के आयोजनों पर केंद्रित रहा जिसके चलते उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई। उन्होंने लगभग 95 पुस्तकें लिखीं। साल 1992 में उन्हें हिन्दू आफ द ईयर और हिन्दू रेनेसेंस अवार्ड से नवाजा गया। स्वामी चिन्मयानन्द ने 3 अगस्त 1993 को अमेरिका के सेन डियागो नगर में महाप्रयाण किया और अमर हो गए।