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डा. श्रीकांत श्रीवास्तव: एक भारत श्रेष्ठ भारत,साझा संस्कृति का शहर जौनपुर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात की है जौनपुर उसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है। इसने समूचे हिंदुस्तान की संस्कृति को अपने में जिया है और पूरी दुनिया को सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया है।
डा. श्रीकांत श्रीवास्तव
गोमती के दोना किनारों पर बसा जौनपुर केवल एक जिला ही नही एक जीवंत इतिहास भी है। लगभग एक शताब्दी तक (1404 से 1505 ई0 उत्तरी भारत की राजधानी रहें इस शहर की ख्याति पूरी दुनिया में थी और इसे शिराजे हिन्द यानी भारत का शिराज कहा जाता था। शिराज शहर ईरान में है जो एक समय ज्ञान के क्षेत्र में वैश्विक केन्द्र माना जाता था।
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1398 के बाद दिल्ली सल्तनत बिखर गयी थी
तैमूर लंग के आक्रमण (1398 के बाद दिल्ली सल्तनत बिखर गयी थी और कई छोंटी-छोटी सल्तनते अस्तित्व में आ गयी थी। इन्ही में जौनपुर भी एक था जिसे शर्की सल्तनत के नाम से इतिहास में जाना जाता है। याहिया बिन अहमद सिरहिपन्दी ने अपनी किताब तारीख मुबारक शाही में लिखा है कि अस्थिरता के कारण दिल्ली के सुल्तान महमूद ने 1394 में अपने योग्य अधिकारी मलिक सरवर को जौनपुर का गर्वनर बनाया था। खुद्दार आदमी होने के कारण मालिक सरवर बराबर दिल्ली सल्तनत का गर्वनर ही बना रहा।
हालाकि वह हर मायने में स्वतंत्र था। वैसे इस तवारीखी शहर की नींव दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने 1359 में उस समय रखी थी जब वह दिल्ली से कलकत्ता जा रहा था और यहां पर जफराबाद में ठहरा था। मुहम्मद खैरूद्दीन ने जौनजुर नामा में लिखा है कि सुल्तान फिरोजशाह को यह शहर काफी अच्छा लगा और उसने अपने भाई जूना खां के नाम पर इस शहर को बसाया।
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तो इसीलिए जौनपुर के राज्य को शर्की राज्य कहा गया
बहरहाल इसका इतिहास काफी पुराना है और यहां पर लम्बे समय तक कई जातियों ने शासन किया था। ख्वाजा सरवर को दिल्ली के सुल्तान ने सुल्तानुल शर्क की उपाधि दी थी। इसीलिए जौनपुर के राज्य को शर्की राज्य कहा गया। सरवर के बाद मुबारक शाह शर्की इब्राहीम शाह शर्कीं मुहम्मद शाह शर्की और हुसैन शाह शर्की ने यहां हुकूमत की।
1494 में दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी और जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह शर्की के बीच बनारस के पास युद्ध हुआ। जिससे हुसैनशाह परास्त हो गया और बंगाल चला गया। बाद में सिकन्दर लोदी 1497 में जौनपुर आया और यहां करीब 6 महीने रूका। उसने शर्कियों की तमाम इमारते गिरा दी तथा इसका नामोनिशान खत्म करने का काम किया। मुगल शासन काल और बाद में ब्रिटिश शासन काल में इस जिले का महत्व धीरे-धीरे सिमटता गया। स्वंतत्रता संग्राम में एक बार फिर जौनपुर ने जोशो खरोश से हिस्सा लिया।
शर्की सुल्तानों ने मिली जुली संस्कृति को बढावा दिया था
जौनपुर की जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है यहां की मिली जुली संस्कृति ।शर्की सुल्तानों ने मिली जुली संस्कृति को बढावा दिया था। इसकी जड़े इतनी गहरी थी जो बाद में तमाम से उतार चढाव के बावजूद बरकरार रही और आज भी एक भारत श्रेष्ठ भारत का नमूना पेश करती है। शर्की सुल्तानों ने जिस शासन प्रणाली की स्थापना की थी उसकी बुनियाद धर्म निरपेक्षता थी।इनके शासन काल की कुछ इमारतें आज भी उपलब्ध है।इब्राहिम शाह शर्की ने यहां की अटाला मस्जिद को बनवाया था।इसके अलावा उन्हीं की बनवाई हुई बड़ी मस्जिद और लाल दरवाजा मस्जिद भी मौजूद है। इन मस्जिदों में जिस स्थापत्य कला का इस्तेमाल हुआ है वह हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है। अटाला मस्जिद फूल और मछली जैसे जो प्रतीक चिन्ह इस्तेमाल हुए है वो हिंदू स्थापत्य कला का नमूना है।
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जौनपुर की झंझरी मस्जिद भी हिंदू स्थापत्य कला का नमूना
जैसा कि खैरुद्दीन मोहम्मद ने लिखा है इसको बनाने वाले कारीगरों में स्थानीय कारीगरों की भी बड़ी भूमिका रही है जिनमें से ज्यादातर हिंदू ही थे।जौनपुर की झंझरी मस्जिद भी हिंदू स्थापत्य कला का नमूना पेश करती है। इब्राहिम शाह शर्की ने सैय्यद सद्र जहां अजमल की इबादत के लिए इस मस्जिद को बनवाया था। जौनपुर का एतिहासिक किला भी भारतीय स्थापत्य कला का एक जीवंत नमूना है।अपने समकालीन अन्य किलों के साथ जहां कई मामले में इसकी समानता है वहीं कुछ मामलों में यह उनसे अलग भी दिखाई पड़ता है। इसका भीतर से जो दृश्य बनता है खासकर सुबह के समय वह हिंदू राजाओं द्वारा बनवाये गये किलों से काफी मिलता जुलता है।
जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने सूफी संतो को भी प्रश्रय दिया
जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने सूफी संतो को भी प्रश्रय दिया था ।इसका नतीजा है कि जौनपुर 15वीं शताब्दी में सूफियों का बहुत बड़ा केंद्र बन गया था ।सूफियों के लगभग सभी सिलसिलें यहां मौजूद थे जिनकी परम्परा आज भी देखी जा सकती है। सुहरावदिर्य सिलसिले के संतो में जहां मकदूम असद्द्दीन आफताबे हिंद और मखदूम सदरुद्ददीन चिराग ए हिंद मशहूर थे वहीं चिश्तिया सिलसिले में ख्वाजा ईशा ताज चिश्ती और ख्वाजा महरुफ चिश्ती जैसे बडे संतो ने जौनपुर में अपनी खानकाहें स्थापित की। इसी समय जौनपुर से बाहर भी कई सूफी संत हुए ।सैय्यद अशरफ जहांगीर सिमनानी ने किछौंछा शरीफ में जबकि सैय्यद अब्दुल रज्जाक ने बांसा शरीफ में अपनी खानकाह बनायीं।
शेख कयामुद्दीन लखनवी और शेख सारंग लखनवी लखनऊ में बसे थे जौनपुर में साबिरिया कलंदरिया और मदारिया सिलसिले भी प्रसिद्द रहे। जौनपुरनामा के मुताबिक मदारिया सिलसिले के संत शाह बद्दीउददीन मदार इब्राहिम शाह शर्की के जमाने में जौनपुर तशरीफ लाये थे। सुल्तान इब्राहिम शाह को जब पता चला कि ये जौनपुर आ रहे है तो वह खुद जौनपुर की सीमा पर उनके स्वागत के लिए पुहंचा और इनकी पालकी में कंधा लगाकर इन्हें सम्मान के साथ जौनपुर लाया। हालांकि नूरुद्दीन जैदी के अनुसार शाह मदार जौनपुर में रुके नहीं थे।
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फकीरउल्लाह ने अपनी मशहूर किताब रागदर्पण में उल्लेख किया...
एक या दो दिन रुकने के बाद फिर आगे बढ गये थे। इन सूफी संतो ने प्रेम और भाईचारे की जो अलख जगायी उसने तमाम हिंदुस्तान की विचारधारा को प्रभावित किया । जौनपुर में काजी शिहाबुद्दीन दौलताबादी जैसे विद्दान भी हुआ करते थे। जिनकी लिखी किताबें दुनिया के तमाम देशों में पढायी जाती थी। शर्की काल में मिली जुली संगीत की विधा भी परवान चढी थी ।
फकीरउल्लाह ने अपनी मशहूर किताब रागदर्पण में इसका उल्लेख किया है। सुल्तान हुसैन शाह शर्की खुद भी बहुत बड़ा संगीतकार था और उसने बारह स्याम की खोज की थी। राग जौनपुरी में मियां की तोडी यहां की खास पहचान रही है। जौनपुर के साहित्यकारों ने भी भारत की एकता और अखंडता को शानदार ढंग से पेश किया है। विद्दापति ठाकुर स्वयं जौनपुर आये थे तथा यहां पर रहे थे। कीर्तिलता मे उन्होंने जौनपुर का रोचक वर्णन किया है।
जौनपुर एक भारत श्रेष्ठ भारत का एक बड़ा उदाहरण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात की है जौनपुर उसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है। इसने समूचे हिंदुस्तान की संस्कृति को अपने में जिया है और पूरी दुनिया को सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया है। आज भी गोमती की लहरें इस संदेश को अपनी कल कल ध्वनि से प्रसारित करती दिखती हैं। गोमती ने जौनपुर के इतिहास को देखा हीं नहीं है बल्कि अपने में जिया भी है। गोमती से बड़ा गवाह दूसरा कोई शायद आज नहीं मिलेगा शेख अब्दुल हक ने रूदौली शरीफ में अपनी खानकाह स्थापित की थी। इनके दर्शन के लिए स्वंय सुल्तान इब्राहिम शाह शर्की ने ही इनकी दरगाह भी बनवायी थी। ये चिश्तिया-साबीरिया सिलसिले के बुजुर्ग थें।
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