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घर के कचरे का प्रयोग करें अपने बगीचे में, बनायें उससे कम्पोस्ट
डॉ. किशोर पंवार
लखनऊ : आजकल चारों ओर साफ-सफाई का बोलबाला है। देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। स्वच्छता अभियान में नगरीय प्रशासन और नागरिकों की महती भूमिका है। स्वच्छता सर्वेक्षण 2017 में इन्दौर शहर पूरे देश में सर्वप्रथम आया है। पर अभी इन्दौर स्वस्थ नहीं है। इसे आगे भी नम्बर वन रखना एक चुनौती है। इसका नम्बर वन होना भी इस बात का उदाहरण है कि यदि ईमानदारी से जन प्रतिनिधि, जन सेवक और आमजन कुछ करने का ठान ले तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। स्वच्छ इन्दौर का मतलब है म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट को शहर से उठा कर उसका उचित निपटान करना।
यह सच है कि अब शहर की सड़कें साफ हैं। उनके किनारे कचरों के ढेर नहीं हैं। सड़कों पर धूल का गुबार भी गायब है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि शहर में कचरा पैदा होना बन्द हो गया है। कचरा तो उतना ही पैदा हो रहा है, जितना पहले होता था। पर अब उठता भी उतना है जितना पैदा होता है- लगभग 11000 मिट्रिक टन। पर यह कचरा जाता कहां हैै? ये सारा कचरा शहर से दूर ट्रेचिंग ग्राउंड पर सैकड़ों ट्रकों से ले जाया जाता है। परंतु क्या यह व्यवस्था ठीक है? इस केन्द्रीकृत कचरा संग्रहण व्यवस्था की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
लैंडफिल पर बदबू, धुआं और ढेर सारी हानिकारक गैसें निकलती है। इससे आस-पास रहने वालों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। लैंडफिल से 45 से 60 प्रतिशत मीथेन गैस निकलती है। यह एक हानिकारक ज्वलनशील गैस है। हालांकि इसका संग्रहण कर इसे ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।
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दूसरी गैस कार्बन डाइऑक्साइड भी 40-60 प्रतिशत निकलती है। इसके अलावा 2-5 प्रतिशत नाइट्रोजन भी निकलती है। यदा-कदा इन लैंडफिलों में लगने वाली आग से इन गैसों की मात्रा और बढ़ जाती है। इनके अतिरिक्त इन लैंडफिल स्थानों से बेन्जीन डायक्लोरो-इथेन, कार्बनिक सल्फाइड, विनाइल, क्लोराइड और नाइलीन जैसे कई हानिकारक कार्बनिक पदार्थ निकलते रहते हैं।
मुंबई जैसे शहर के ठोस कचरे को ठिकाने लगाने वाले भरण स्थल 30-40 कि.मी. दूर है, इनकी परिवहन कीमत 16 लाख रुपये प्रतिदिन है। कचरा भरण स्थलों के व्यवस्था, किराये व अन्य खर्च जोड़कर यह कीमत 126 करोड़ रुपये प्रति वर्ष आती है।इस म्यूनिसिपल वेस्ट को जलाना भी कोई उचित उपाय नहीं है। इस शहरी कचरे में 40-60 प्रतिशत तक ज्वलनशील पदार्थ होते हैं। इन्हें जलाने के लिये लगाये गये बड़े इन्सीनरेटर्स महंगे भी हैं और इनसे निकलने वाली हानिकारक गैसों के खिलाफ स्थानीय लोग भी आवाज उठाते हैं।
नई दिल्ली स्थित इन्सीनरेटर्स के साथ ऐसा ही हो रहा है। पीसीबी के अनुसार इससे खतरनाक डायक्सीन गैस निकलती है। शहरी ठोस कचरे के निस्तारण की केन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण हालात यह हो गये हैं कि देश के महानगरों के सभी लैंडफिल अपनी क्षमता खो चुके हैं। दिल्ली का लैंडफिल स्थल लबालब भर चुका है। हाईकोर्ट ने नये लैंडफिल स्थल खोजने के लिये निर्देश दिये हैं। कचरे के पहाड़ के भरभराकर कर गिरने से कुछ मौतें भी हो चुकी है।
सुरसा की तरह विकराल होती इस समस्या का कोई हल भी है क्या? हल तो है पर कोई एक नहीं। इस मानवजनित उपभोक्तावादी संकट से पार पाने के लिये समन्वित प्रयास करने होंगे। कई छोटे-छोटे उपाय अपनाने होंगे। सबसे पहला उपाय है कचरे के स्रोत पर ही सेग्रीगेशन (पृथक्करण) करने की। इसमें नागरिक सूखा कचरा अलग और गीला कचरा अलग रखते हैं। कचरे की छंटाई एक बड़ा मुद्दा है
। यह एक तरह का विकेन्द्रीकरण है। केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल और नीरी, नागपुर की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में म्युसिनल वेस्ट कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में 0.2 किलो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है और अधिक जनसंख्या घनत्व वाले शहरी क्षेत्रों में 0.6 किलो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। नवीन एवं नवीनीकरणीय ऊर्जा मत्रांलय की एक रिपोर्ट बताती है कि शहरी क्षेत्रों में म्यूनिसिपल वेस्ट लगभग 2 लाख टन प्रतिदिन है।
खुशी की बात यह है कि म्यूनिसिपल वेस्ट का लगभग 50-60 प्रतिशत हिस्सा जैव अपघटनशील है। यानी इसका कम्पोस्ट बनाया जा सकता है। कचरा संग्रहण के विकेन्द्रीकरण की दिशा में इन्दौर नगर पालिका निगम ने बड़ा और सराहनीय कदम उठाया है। इसने अपने 500 से अधिक बगीचों में दो-दो कम्पोस्ट पिट बना दिये। अब इन बगीचों के कचरे को लैंडफिल स्थल तक परिवहन नहीं करना पड़ता। इससे एक तो वहां सैकड़ों टन कचरा कम पहुँचेगा। इससे परिवहन का खर्च बचेगा।
बगीचों की साफ-सफाई और कटाई-छंटाई एक रूटीन का कार्य है। अत: बगीचों से ढेर सारा बायोमास प्रति सप्ताह निकलता ही है। बगीचे का यह बायोमास तो 100 प्रतिशत जैव अपघटनशील है। इस कचरे से जो कम्पोस्ट बनेगा वह वहीं काम आ जायेगा। बगीचे का कचरा बगीचे में। कचरे के ढेर में नहीं। कचरे की इस समस्या से निपटने का दूसरा उपाय है कि नगर निगम, जो कार्य बाग-बगीचे में कर रहा है, वह हम अपने-अपने घरों में करें। यदि शहर का हर नागरिक ऐसा करता है तो प्रतिदिन 11,000 टन कचरा, जो कचरा भराव स्थल पर जाता है घर ही कम्पोस्ट बन सकता है।
अगर शहर की आधी आबादी भी यह ठान ले तो समस्या का 50 प्रतिशत निदान तो हो ही जायेगा। इन्दौर के खजराना गणेश मंदिर में किया जा रहा कार्य अनुकरणीय है। इस मंदिर में निकलने वाले हार-फूल-पूजादि से वहीं मंदिर में कम्पोस्ट बनाई जा रही है और गणेशजी के प्रसाद के रूप में बेची जा रही है।
घर से निकलने वाली चाय-पत्ती सब्जियों के छिलके, फल-फूल, हार पूजन सामग्री रोज गिरने वाली हरी-पीली-सूखी पत्तियों से कार्बनिक पदार्थ निकलते हैं, जिनका आसानी से कम्पोस्टिंग किया जा सकता है। कम्पोस्टिंग के तरीके जानने के लिये जरा यू ट्यूब पर सर्च कर लें। ढेरों विडियो आपको मिल जायेगें-घर पर कम्पोस्ट बनाने के संदर्भ में। घरेलू कचरे को सही तरीके से जल्दी सड़ाने -गलाने हेतु बाजार में तरह-तरह के किट उपलब्ध है, इनकी कीमत मात्र 700-800 रुपये से लेकर 2000 रुपये तक है। इस किट में दो प्लास्टिक की बाल्टियाँ और कम्पोस्टिंग के लिये कम्पोस्टर के पैकेट मिलेंगे। घर का कचरा इन बाल्टियों में डालकर रोज दो चम्मच कम्पोस्टिंग पाउडर इस पर छिड़कना है। महीने भर में बढिय़ा कम्पोस्ट तैयार।
(लेखक कृषि विशेषज्ञ हैं)