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बिन कांग्रेस बेदम गठबंधन, तीन राज्यों में मिली जीत ने बढ़ाई सियासी हैसियत
योगेश मिश्र
लखनऊ: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावी नतीजों से जो संदेश निकलते हैं उन्हें ईमानदारी से पढ़ा जाए तो यह साफ है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बिना किसी विकल्प की कोई हैसियत नहीं बनती है। बिन कांग्रेस किसी गठजोड़ का कोई मतलब नहीं निकलता है क्योंकि इस जीत ने पार्टी के भीतर नेता के तौर पर राहुल की स्वीकार्यता बढ़ा दी है। दूसरे दलों में भी राहुल की स्वीकार्यता की जगह खुद ब खुद बनी दिखने लगी है। इन नतीजों ने राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा किया है। कल तक अजेय भाजपा के सामने दूर-दूर तक कोई विकल्प नजर न आने का दावा बेमानी हुआ है। लोकसभा चुनाव वैसे तो पूरे देश में लड़ा जाता है। लेकिन इस बार के लोकसभा के चुनाव का मैदान उत्तर प्रदेश होगा क्योंकि शून्य पर पहुंची बसपा को अस्तित्व की तलाश है। इकाई तक सिमट गई समाजवादी पार्टी को शिवपाल सिंह यादव के अलग होने के बाद अपनी बढ़ी हुई हैसियत का अंदाज कराने की चुनौती है। सपा और बसपा के बीच लोकसभा के लिए सीटों पर समझौता तकरीबन अंतिम रूप पा चुका है। लेकिन हालिया चुनावी परिणामों ने इन दोनों दलों के नेताओं- अखिलेश और मायावती को गठबंधन में कांग्रेस के लिए जगह बनाने के लिए मजबूर कर दिया है। वह भी सम्मानजनक जगह बनाने के लिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो सपा और बसपा के मंसूबों को गठजोड़ के बाद भी पंख लग पाना मुश्किल है।
छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ लडऩे के बाद भी बसपा 3.9 फीसदी, 4 फीसदी और 5 फीसदी वोटों पर सिमट कर रह गई, जबकि समाजवादी पार्टी को केवल मध्य प्रदेश में 1.3 फीसदी वोट हाथ लगे हैं। मध्य प्रदेश की बिजावर सीट ने सपा की लाज बचाई। सपा ने 52 प्रत्याशी मध्य प्रदेश और 17 छत्तीसगढ़ में उतारे थे। बसपा ने राजस्थान में बेहतर प्रदर्शन किया और 6 सीटें जीती। मध्य प्रदेश और राजस्थान संघ के ताकत वाले राज्य हैं। पांच में से चार राज्यों में नई सत्ता के मार्फत जनता ने यह संदेश दे दिया है कि मतदाता बदलाव चाहता है। उत्तर प्रदेश में बदलाव का मतलब सपा और बसपा नहीं हो सकते। उसमें कांग्रेस के चेहरे की दरकार होगी। क्योंकि बीते २८ साल से सूबे के लोगों ने कांग्रेस सरकार देखी ही नहीं। दूसरे अखिलेश और मायावती प्रधानमंत्री पद के दावेदार तो होंगे ही नहीं। लेकिन इस बात को भी कांग्रेस नजरअंदाज नहीं कर सकती है कि मोदी के उत्कर्ष काल में भी सपा और बसपा नेता प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नहीं थे। परंतु इन्हें क्रमश: २२.३५ और १९.७७ फीसदी वोट मिले थे।
गणित आंकड़ों का
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 71 सीटें जीत कर 42.63 फीसदी वोट हासिल किए थे। उसके सहयोगी अपना दल को 1.01 फीसदी वोट और दो सीटें हाथ लग गई थी। समाजवादी पार्टी को 22.35 फीसदी वोट मिले थे और सिर्फ पांच सीटें उसकी झोली में गई थी। 19.77 फीसदी वोट पाने के बावजूद बसपा का खाता नहीं खुल पाया था। जबकि कांग्रेस 7.53 फीसदी वोट पाकर दो सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी। आरएलडी को 0.86 फीसदी वोट मिले थे, पर उसका भी खाता नहीं खुला। वोटों की संख्या के लिहाज से देखें तो भाजपा को 3,43,18,854 वोट मिले। जबकि सपा और बसपा दोनों को मिला दिया जाए तो इनकी संख्या 3,39,03,161 बैठती है। इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 312 सीटें हासिल की और उसे 39.67 फीसदी वोट हाथ लगे। जबकि बसपा को 22.23 फीसदी वोट और 19 सीटें मिली। सपा को 21.82 फीसदी वोट और 47 सीटें मिली। कांग्रेस को 6.25 फीसदी वोट और 7 सीटें ही मिल पाई। राष्टï्रीय लोकदल ने 1.78 फीसदी वोट पाकर एक सीट पर विजय हासिल की। इस चुनाव में सपा और बसपा के वोट जोड़ दिये जाएं तब वे भाजपा से तकरीबन 38 लाख वोट आगे निकल पाते हैं। जबकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट को जोड़े बिना सपा और बसपा अकेले भाजपा का विकल्प बनते नहीं दिख रहे हैं।
गठबंधन से हो सकता है फायदा
वैसे तो राजनीति में विज्ञान की तरह दो और दो चार नहीं होते हैं, लेकिन दो और दो के 22 होने की संभावना को भी सियासत में नकारा नहीं जा सकता। गठबंधन में ऐसे ही फार्मूलों को आदर्श समझा जाता है। सूबे की सियासत में इसकी संभावनाओं को टटोला जाए तो गणित, विज्ञान और राजनीति विज्ञान के इस फार्मूले का जोड़-घटाव यहां जरूरी और मौजूं हो जाता है। दरअसल, बीते उपचुनावों में प्रदेश की कैराना, गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट भाजपा से छिन गईं। खास यह है कि 2014 में इन तीनों सीटों पर भाजपा को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिला था। इन उपचुनावों में सपा को बसपा व अन्य विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था। ये नतीजे आने के बाद से ही प्रदेश में महागठबंधन के ताने-बाने बुने जाने लगे। सीटों के बंटवारे को लेकर कशमकश शुरू हुई।
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2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों को आधार मानकर देखा जाए कि यदि 2019 में भी भाजपा और विपक्षी दलों को 2014 जितने ही वोट मिलें और विपक्षी दल एक साथ मिलकर चुनाव लड़ें तो ज्यादातर सीटों पर विपक्षी दलों को मिले वोटों की संख्या भाजपा को मिले वोटों की संख्या से ज्यादा होगी। हालांकि हर चुनाव का अपना मिजाज और माहौल होता है। एक चुनाव का दूसरे चुनाव से तुलना संभव नहीं है, पर पृष्ठभूमि पिछला चुनाव और पिछले चुनावी नतीजों से चुनी गई सरकार के कामकाज से ही तैयार होती है।
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2014 चुनाव में जगदंबिका पाल 298845 वोट पाकर डुमरियागंज सीट से जीते। बसपा के मुहम्मद मुकीम 195257 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे। जबकि पूर्व विधानसभाध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय की साइकिल पर 174778 वोटरों ने मुहर लगाई। इस सीट पर यदि कांग्रेस को छोड़ दिया जाए और बसपा अपने वोट सपा को ट्रांसफर करती है तो यह आंकड़ा 370035 तक पहुंचता है। यह जगदम्बिका पाल को मिले वोटों से ज्यादा है। इसी तरह इलाहाबाद सीट पर श्यामा चरण गुप्ता को 313772 वोट मिले थे। सपा के कुंवर रेवती रमन सिंह को 251763 और बसपा की केशरी देवी को 162073 वोट मिले। यदि इस सीट पर बसपा या सपा अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर करते हैं तो यह आंकड़ा 413836 तक पहुंचता है, जो श्यामा चरण गुप्ता को मिले 313772 वोटों से ज्यादा है। वैसे देखा जाए तो 2009 में बसपा ने 20 सीटों पर परचम लहराया था।
47 सीटों पर हाथी रनरअप रहा। वहीं 2014 में बसपा के खाते में एक भी सीट नहीं आ सकी, पर उसके प्रत्याशी 34 सीटों पर दूसरे नम्बर पर रहे। 2014 के चुनाव में सपा के मुकाबले अलीगढ़, सलेमपुर और धौरहरा सीटों पर बसपा प्रत्याशी करीब दो हजार वोटों के अंतर से पीछे रह गए। जबकि हरदोई, सुल्तानपुर, भदोही, संतकबीरनगर में सपा के मुकाबले बसपा प्रत्याशी करीबन 20 हजार वोटों से पीछे रह गए थे। संभल सीट पर भाजपा के सत्यपाल सिंह को विजय मिली थी। उन्हें कुल 360242 वोट मिले थे। सपा के डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क 355068 वोटों के साथ रनरअप रहे थे। सिर्फ 5174 मतों के अंतर की वजह से यह सीट सपा के हाथ से निकल गई थी। बसपा के अकीलउर्र रहमान खान को 252640 वोट मिले थे। सपा-बसपा के वोटों को ही मिला लिया जाए तो 607708 तक वोटों का आंकड़ा पहुंचता है।
सुल्तानपुर सीट से वरुण गांधी 410348 वोट पाकर सांसद बने। इसी सीट पर बसपा के पवन पांडे को 231446 वोट और सपा के शकील अहमद को 228144 वोट मिले थे। विपक्ष के दोनों प्रत्याशियों का वोट जोडऩे पर यह 459590 हो जाएगा जो वरुण गांधी को मिले वोटों से ज्यादा है। बांदा सीट पर बीजेपी के भैरो प्रसाद मिश्रा को 342066 वोट मिले थे। बसपा के आर के सिंह पटेल को 226278 वोट और सपा के बाल कुमार पटेल को 189730 वोट मिले थे। इनका योग भी 416008 होता है जो भैरो प्रसाद मिश्रा को मिले मतों से ज्यादा है।
भदोही सीट से भाजपा के वीरेंद्र सिंह 403544 वोट पाकर संसद पहुंचे थे। यहां से बसपा के राकेश धर त्रिपाठी को 245505 वोट और सपा की सीमा मिश्रा को 238615 मत मिले थे। यदि इनके वोट को जोड़ा जाए तो यह 484120 हो जाएगा जो वीरेंद्र सिंह को मिले मतों से ज्यादा है। खीरी लोकसभा सीट पर भाजपा के अजय कुमार को विजयश्री मिली थी। उन्हें कुल 398578 वोट मिले थे जबकि बसपा के अरविंद गिरि को 288304 और सपा के रवि प्रकाश वर्मा को 160112 मत मिले थे। इनके मतों का योग भी अजय कुमार को मिले मतों से ज्यादा है। कांग्रेस छह सीटों पर रनर थी और उसे सहारनपुर में 65 हजार वोटों से हार मिली। जबकि सपा को रामपुर में 23,435, संभल में 5,174, इलाहाबाद में 62,009, बस्ती में 33,562, लालगंज में 63,086, गाजीपुर में 32,452 वोटों से मुंह की खानी पड़ी। बसपा ने सीतापुर सीट 51,027 वोटों से गंवाई।
मोदी-राहुल ही राष्ट्रीय नेता
पैन इंडिया सिर्फ दो ही ऐसे नेता हैं जिनकी देश में फालोइंग है। उसे कम या ज्यादे किसी भी खांचे में आप फिट कर सकते हैं। किसी भी नेता को कितना भी नंबर घटा-बढ़ाकर दे सकते हैं। ये नेता हैं- नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी। नरेंद्र मोदी इस समय पूरे भारत में जनाधार वाले सबसे बड़े नेता हैं। उन पर जनता का अटूट विश्वास है। गुजरात में उन्होंने खांटी हिंदुत्व की प्रयोगशाला में विकास की बड़ी इबारत लिखी थी। वे सर्वाधिक अस्पृश्य नेता थे। नतीजतन, जनता ने उन्हें सर माथे पर बिठाया।
2014 के चुनाव के समय से ही राहुल गांधी भी सर्वाधिक उपहास पाने वाले नेता बने। उत्तर प्रदेश में उनकी अगुवाई में हुए तीन चुनावों में पार्टी लगातार जनाधार खोती चली गई। 2017 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन करके पार्टी का पलीता ही लगा दिया। उनकी पार्टी सात सीटों पर सिमट गई।
आजादी के बाद से यह कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन कहा जा सकता है, लेकिन राहुल ने मोदी से सबक लेकर पप्पू का लबादा उतारने के लिए जंग जारी रखी। राहुल और नरेंद्र मोदी के लोकप्रियता के बीच का ग्राफ भी 14-18 के बीच में काफी कम हुआ है।
कांग्रेस के बिना गठबंधन की मुश्किलें
जब राहुल गांधी लगातार विजय अभियान पर हों, उनकी पार्टी बढ़त पर हो, कांग्रेस मुक्त भारत के जुमले पर विराम लग गया हो, वह सदन के अंदर और बाहर प्रधानमंत्री मोदी से दो-दो हाथ करते हों, फिर अखिलेश और मायावती अपने गठबंधन में उन्हें जगह नहीं देती हैं तो कांग्रेस का कोई नुकसान नहीं करती हैं। कांग्रेस दो से ऊपर ही आएगी मगर सपा और बसपा कोई बड़ा करिश्मा कर पाएंगी, यह कहना मुश्किल होगा क्योंकि यादव और जाटव के बीच इतने दिनों की प्रतिद्वंदिता है कि मायावती का कहना जाटव मान लेगा पर यादव जाटव को वोट करेगा, यह यक्ष प्रश्न है। कांग्रेस के बिना बने गठबंधन को लेकर अल्पसंख्यक भी विभ्रम की स्थिति में होगा। सत्ता विरोधी रुझान के वोटों का केंद्र कोई एक बन पायेगा, यह भी संभव नहीं होगा।
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दलित एक्ट को लेकर नाराज चल रही अगड़ी बिरादरी सिर्फ घर बैठ जायेगी पर भाजपा के खिलाफ एकजुट विपक्ष के बिना नहीं जाएगी क्योंकि उसे सरकार बनाने और बिगाडऩे के श्रेय की आदत है। इस गठबंधन के लिए राष्टï्रीय लोकदल, ओम प्रकाश राजभर और सोने लाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल भी जरूरी होंगी क्योंकि गठबंधन में सीटों के बंटवारे में सपा और बसपा के उम्मीदवार जिनकी सीट दूसरे दल में चली जाएगी वे हाथ पर हाथ धर कर बैठेंगे, यह सोचना भी गलत होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद भी उत्तर प्रदेश में तकरीबन तीन साल भाजपा की सरकार रहेगी। आज की तारीख में सिर्फ राजनीति करने वाला नेता दुर्लभ है। हमारे राजनेताओं के इतने धंधे हैं कि उन्हें तीन साल की शेष बची सरकार में अपने धंधे के फलने-फूलने की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि प्रदेश की भाजपा सरकार को इसके लिए खुद को काम करने वाली सरकार के रूप में बदलना होगा क्योंकि मंत्री कार्यकर्ताओं और विधायकों का ही काम नहीं कर रहे हैं।
उतार फेंका ‘पप्पू’ का लबादा
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे ठीक उस दिन आए हैं जब राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने एक साल हुए हैं। एक साल में उन्होंने काफी दूरी तय की है। उन्होंने पप्पू का लबादा उतार कर फेंका है। कभी पप्पू के फेल होने का जो जुमला था उसे राहुल ने पलटकर रख दिया है। इसके लिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के ही तरकश के तमाम तीरों का इस्तेमाल किया है। कभी मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहते थे। राजेंद्र प्रसाद, गोविंद बल्लभ पंत, सरदार पटेल, पुरुषोत्तम दास टंडन, मदन मोहन मालवीय, रविशंकर शुक्ल, कमलापति त्रिपाठी कांग्रेस के हिंदू मन थे। इंदिरा गांधी भी हिंदू प्रतीकों से काम लेने लगी थीं, लेकिन बीते दो-तीन दशकों में कांग्रेस तुष्टिकरण पर उतर आई थी।
नतीजतन, हिंदू राष्ट्रवाद के उभार में उसे बड़ी दिक्कत झेलनी पड़ी। पर राहुल ने भाजपा के हिंदुत्व की मिलकियत के दावे को तोडऩे में जी-जान लगा दिया। वे सोमनाथ मंदिर गये, कैलाश मानसरोवर गये, खुद को शिवभक्त बताया। गुजरात चुनाव में खुद को जनेऊधारी हिंदू के रूप में पेश किया। इन तीन राज्यों के चुनाव में वे खुद को ब्राह्मण साबित करने के लिए उन्होंने अपना गोत्र दतात्रेय बताया। हालांकि उनके इस कोशिश का उपहास यह कहकर भाजपा में उड़ाया गया कि कांग्रेस के पास हिंदुत्व का क्लोन है। राहुल गांधी ने नोटबंदी, जीएसटी और विकास के मामलों में भाजपा को घेरकर आक्रामक और महत्वाकांक्षी नेता के तौर पर खुद को पेश किया। पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में राहुल ने मोदी मैजिक और शाह के सिक्के के सामने खुद को चुनौती के तौर पर पेश किया। एक ऐसे समय में जब दूर-दूर तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं दिख रहा था तब राहुल विकल्प बनने के लिए खुद को पेश कर रहे थे। इसका उन्हें फायदा मिला वह जीत के रंग में रंगे। कांग्रेस के हाथ ऐसे समय जीत लगी जब उसके सामने हार के अंबार लगे हुए थे।