Lucknow: मूक-बधिर व मेंटली चैलेंज्ड आयशा है नेशनल स्तर की शूटर, पैराओलंपिक की चल रही तैयारियां

Lucknow: दृष्टि सामाजिक शैक्षणिक बहुउद्देश्यीय कल्याणकारी संस्थामें महिला एवं बाल कल्याण विभाग द्वारा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को देखभाल हेतु भेजा जाता है।

Ashutosh Tripathi
Published on: 3 Sep 2022 10:15 AM GMT (Updated on: 3 Sep 2022 10:15 AM GMT)
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निशाना साधती मूक बधिर छात्रा (न्यूज नेटवर्क)

Lucknow News: 'जब हौसलों में जान हो, जीने का अरमान हो, पहाड़ जैसी मुसीबतों को मसलकर बढ़ने का जज़्बा हो, तब भगवान ख़ुद फरिश्ता बनकर ज़मीं पर आपका साथ निभाता है।' ये पंक्ति है लखनऊ की उस सामाजिक संस्था के लिए, जो मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की ज़िंदगी संवारने का काम कर रही है। इस संस्था का नाम है 'दृष्टि सामाजिक शैक्षणिक बहुउद्देश्यीय कल्याणकारी संस्था'। जहां महिला एवं बाल कल्याण विभाग द्वारा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को देखभाल हेतु भेजा जाता है। लेकिन, ये विरले ही देखने को मिलता है कि कोई संस्था उन्हें अपना मानकर, उन्हें एक आम इंसान से भी ज़्यादा काबिल बनाए। मग़र, इस संस्था में मेंटली चैलेंज्ड बच्चे उन सभी कलाओं के धनी हैं, जिसमें एक सामान्य इंसान को भी निपुण होने के लिए बहुत मेहनत करना पड़ता है।



मूक-बधिर आयशा राष्ट्रीय स्तर की शूटर

संस्था के निदेशक अथर्व बहादुर बताते हैं कि साल 2012 में हमारे पास एक 5 या साढ़े पांच वर्ष की एक बच्ची आई, जिसका नाम आयशा था। वो मानसिक रूप से विकलांग होने के साथ ही देख व सुन भी नहीं सकती थी। लेकिन, मेरी व कंपनी की संयुक्त निदेशक शालू सिंह की देखरेख में उसका प्रशिक्षण शुरू हुआ। आज वो राष्ट्रीय स्तर की शूटर है और एक बेहतरीन चित्रकारी भी करती है। कई सारे मंत्री व विधायक हमारे यहां आए, जिन्होंने आयशा की सराहना भी की है। अथर्व के मुताबिक, आयशा अपने सभी कार्य ख़ुद करती है। उसे गाने भी याद होते हैं। वो पढ़ाई भी करती है। अथर्व बहादुर ने बताया कि हम उसे पैराओलंपिक में भेजने के लिए तैयार कर रहे हैं।



240 बच्चों का हो रहा भरण-पोषण

अथर्व ने बताया कि दृष्टि सामाजिक संस्था के दो पार्ट हैं। एक डे-स्कूल है, जहां 350-400 बच्चे आते हैं। वहीं, 240 बच्चे में शेल्टर होम में रहते हैं। जिसके लिए सरकार द्वारा हमें प्रति बच्चा 2 हजार रुपये मिलते हैं। लेकिन, उससे कहीं ज़्यादा हमारा खर्च होता है। क्योंकि, बच्चों को दौरे पड़ते हैं तब वो अपने आप को काटने लगते हैं। चीजें तोड़ने लगते हैं। पेशाब व मल त्याग कर देते हैं। जिससे उन्हें डायपर पहनाना पड़ता है। रोज़ाना एक बच्चे पर कम से कम 4-5 डायपर खर्च होते हैं।



किस तरह से तैयार करते बच्चों को?

अथर्व ने बताया कि जब बच्चे हमारे पास आते हैं, तब उन्हें हम एक महीने तक सारी चीज़ें सिखाते हैं। फ़िर, जब उनका रुझान किसी एक क्षेत्र में बढ़ता है, तब हम उसी क्षेत्र में उसको तैयार करते हैं। हमारा जानकीपुरम विस्तार में एक कैफे भी चलता था, जहां हम बच्चों को ले जाते हैं। वहां पर स्पेशल एजुकेटर होती हैं। जो उन्हें सारी चीजें सिखाते हैं। उन्होंने बताया कि इसके पीछे हमारा मक़सद उन्हें बाहरी दुनिया के तौर-तरीके सिखाना होता है। उस कैफे में ये बच्चे काम करते हैं। ये बच्चे पूर्णतया सामान्य इंसानों की तरह कैफे चलाते हैं। अथर्व के मुताबिक, संस्था में जरदोजी, हैंडलूम, शॉल और आर्टिफिशियल चूड़ियों सहित कई तरह के काम होते हैं।



पत्रकारिता छोड़कर शुरू की संस्था

दृष्टि सामाजिक संस्था की शुरुआत साल 1990 में हुई थी। जब फ्रीलांस जर्नलिस्ट के रूप में 23 वर्षीय नीता बहादुर अपने असाइनमेंट की कवरेज के लिए, मोहान रोड़ स्थित एक ब्लाइंड स्कूल में गई थी। जहां न तो कोई स्टॉफ था। न कोई सुविधाएं। वहां बस बच्चे आते थे और चले जाते थे। उसके बाद नीता बहादुर दो-तीन दिन तक लगातार वहां गईं और घर में अपने पारिवारिक जनों से बातचीत कर पत्रकारिता को छोड़ दिया। उसके बाद, नीता बहादुर ने 400 ब्रेल बुक्स और 600 ऑडियो कैसेट तैयार किए। जिसमें उन्होंने अपनी आवाज़ में 10 एवं 12वीं का पाठ्यक्रम रिकॉर्ड किया और ब्रेल बुक्स में हाईस्कूल व इंटरमीडिएट का लिखित में पूरा पाठ्यक्रम था।

Prashant Dixit

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