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दिवाली एक रंग अनेक, इसीलिए कहते हैं- अजब दिवाली, गजब दिवाली
योगेश मिश्र
बुंदेलखंड में दिवाली का रिश्ता श्रीकृष्ण के दैत्य नरकासुर के वध से जुड़ता है। लेकिन नैमिषारण्य में दिवाली पर दीपदान होता है लेकिन पटाखे होली पर बजते हैं। रामपुर के आस-पास के कई इलाकों में दिवाली आशंकाओं की रात बनकर आती है।
पुलिस भी इन जुआडिय़ों पर ज्यादा गौर नहीं फरमाती। जुआ खिलाने वाले दावे से कहते हैं कि उनकी ऊपर तक सेटिंग है। यह इसलिए भी सच माना जा सकता है क्योंकि अभी तक इन फड़ों पर पुलिस की नजर नहीं पड़ी है। कभी अगर ज्यादा शोर-शराबा मचा तो कोरम पूरा करने के लिए कार्रवाई करनी पड़ी। बहराइच शहर के सत्ती कुंआ, बडीहार, छावनी, ब्रह्मीपुरा, कानून पिपुरा, धनकुट्टीपुरा, नाजिरापुरा, अकबरपुरा और छोटी बाजार में आमतौर पर फड़ सजती हैं।
बुंदेलखंड में दीपावली का अलग सांस्कृतिक महत्व है। यहां के सुदूर गांवों में घोर अभाव के बीच जी रहे लोग परम्परागत ढंग से घरों को दिवाली पर लीप-पोत कर तैयार करते हैं। नरक चौदस को लेकर प्रचलित कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने इसी दिन दैत्य नरकासुर का वध कर उसके कारागार में बंद सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई थी। नतीजतन कुंवारी कन्याओं का समूह गांवों के बाहर स्थित नदी, तालाब और कुंओं पर स्नान करने जाता है। लौट कर ये लड़कियां लीपे-पुते घर को चूना, गेरू और पीली मिट्टी से सजाती हैं। वह एक छोट और एक बड़ा पत्थर रखती हैं। बड़े पत्थर का सजाया जाता है। दीप जलाकर पूजा किया जाता है। पकवान चढ़ाया जाता है। फिर बड़े पत्थर को उठाकर छोटे पत्थर पर पटक दिया जाता है।
दरअसल बड़ा पत्थर श्रीकृष्ण और छोटा पत्थर नरकासुर का प्रतीक है। इस तरह नरकासुर का वध होता है। रात में दीप जलाकर खुशियां मनाई जाती है। भैयादूज के साथ ही पांच दिन चलने वाले दीपावली पर्व का समापन होता है। इस पर्व से जुड़े मौनिया नृत्य का बुंदेलखंड में अनोखा रिश्ता है। मौनिया से आशय मौन धारण करने से है। मूलत: पशुओं की देखरेख से जुड़े लोग इसमें हिस्सा लेते हैं। धनतेरस की सुबह से ही वह मौन धारण करते हैं। अगर गलती से भी मौन भंग हो जाए तो उसके परिजन उसे क्षमा नहीं करते। उसे अर्थदंड भुगतना पड़ता है।
व्रत के दौरान मौनिया को सिर्फ दूध और शकरकंद पर रहना पड़ता है। यहां गोधन पूजन की विशेष परंपरा है। हर घर के आंगन में गोबर से गोधन बनाया जाता है। जिसको अजब-गजब शक्ल दी जाती है। दिनभर के पूजा-पाठ के बाद शाम को मौनियों की टोली हाथ में मोर पंख का एक मूठा और गाय के बालों से बनी रस्सी का थामे समां बाधते नजर आते हैं। इस दिन गायन का संबंध कृष्ण लीला से होता है। इसमें ढोलक, नगडिय़ा, बांसुरी, झींका और मजिरा वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। लोग मौनियों के साथ की टोली को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ देकर स्वागत करते हैं।
नैमिषारण्यं में पटाखे दीपावली पर नहीं होली पर बजते हैं। यहां दिवाली के दिन सिर्फ दीप दान होता है। अट्ठासी हजार ऋषियों की तपस्थली कहे जाने वाली नैमिषारण्य में दिवाली की छटा होली पर देखी जा सकती है। बलिया में एक ऐसा मंदिर है जहां दिवाली के दिन बिहार में बनी शराब चढ़ाने का चलन है। उत्तर प्रदेश-बिहार की सरहद पर जिला मुख्यालय से चालीस किलोमीटर दूर दुर्जनपुर में दिवाल और नवरात्र के मौके पर लोग यहां अपनी मन्नत लेकर दूर-दूर से आते हैं। पर श्रद्धालुओं के हाथ में मिष्ठान नहीं बल्कि बिहार में बनी महुए की शराब होती है। अगर यहां से गुजरे तो आस-पास महुए की गंध महसूस की जा सकती है। हालांकि मंदिर के पुजारी शराब तो दूर लहसुन-प्याज से भी परहेज करते हैं।
सिफली अमल (तंत्र-मंत्र) करने वालों के लिए दिवाली आवश्यकताओं की रात बनकर आती है। इस तबके में माना जाता है कि अगर दिवाली के दिन भोजन में मांस नहीं हुआ तो बुरी आत्माएं सालभर परेशान करेंगी। इससे बचने के लिए कुछ घरों के दरवाजों और कमरों की चौखटों पर सिरस के हरे पत्ते लगा दिए जाते हैं। कहीं-कहीं ताबीज और गंडे बंधे भी दिखते हैं। कुछ लोग घर के चारों कोनों पर कीले लगा देते हैं। बुरी बलाओं को दूर भगाने के लिए मकान की छतों पर हड्डियां बिखरने का टोटका किया जाता है।