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भुल्लन भइया से पद्मश्री बेकल उत्साही तक का सफर

"मैं तुलसी का वंश हूं और बलरामपुर का संत हूं" कि तर्ज पर अपनी पहचान पेश करने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही बेशक अब इस दुनिया मे नहीं हैं, लेकिन वो अपनी कविताओं, शायरी व लेखों में वो आज भी जिंदा है।

Dharmendra kumar
Published on: 27 Jan 2019 2:40 PM GMT
भुल्लन भइया से पद्मश्री बेकल उत्साही तक का सफर
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बलरामपुर: "मैं तुलसी का वंश हूं और बलरामपुर का संत हूं" कि तर्ज पर अपनी पहचान पेश करने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही बेशक अब इस दुनिया मे नहीं हैं, लेकिन वो अपनी कविताओं, शायरी व लेखों में वो आज भी जिंदा है।

पद्मश्री बेकल उत्साही का जन्म 1924 में तत्कालीन जिला गोंडा की उतरौला तहसील के गांव रमवापुर ग्राम में हुआ था इनके पिता का नाम लोधी मोहम्मद जफर खां था उनके पिता एक बड़े जमींदार थे लेकिन कभी भी इनका दिल जमीदारी में नहीं लगा। पद्मश्री बेकल उत्साही के बचपन का नाम मोहम्मद शफी खान था और वहां के लोग प्यार से उन्हें "भुल्लन भैया" कहकर बुलाया करते थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा दीक्षा प्राइमरी स्कूल से ग्रहण कर यह बलरामपुर आ गए और बलरामपुर में स्थित एमपीपी इंटर कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने हिंदी विशारद की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। इस दौरान खुद के भीतर छुपी प्रतिभाओं को कागज पर उकेरते हुए उन्होंने शायरी के क्षेत्र में अपना कदम रख दिया। साहित्य की जानकारी और हिंदी, उर्दू, संस्कृत तथा अरबी फारसी पर मजबूत पकड़ रखने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही ने 1945 में अपना पहला शेर पढ़ा।

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छात्र जीवन से ही अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही ने तत्कालीन बलरामपुर स्टेट के एक अंग्रेज मैनेजर की "हैट" को फुटबॉल बनाकर खेला जिसके बाद नाराज अंग्रेज मैनेजर ने उनको जेल यात्रा करा दी। साल 1953 में वो नेपाल चले गए और नेपाल कांग्रेस में शामिल होकर वहां की राजशाही व तानाशाही का पुरजोर विरोध किया। तत्पश्चात 1954 में यह सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेंद्र देव के साथ तमाम आंदोलनों में हिस्सा लिया इसी के दौरान इन्हें फतेहगढ़ व बहराइच में जेल यात्रा भी करनी पड़ी। बेकल उत्साही को उत्साही की उपाधि एक प्रचार कार्यक्रम के दौरान पं जवाहर लाल नेहरू ने दी थी।

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सिर्फ कलम ही नहीं बन्दूक भी चलाना जानते थे "बेकल"

बलरामपुर से अपनी पढाई पूरी करने के बाद वो भारतीय फौज में भर्ती हुए और देश सेवा की परिवार को इनका नौकरी करना नागवार गुजरा और माँ की तबियत ज्यादा ख़राब बता कर इनको परिवार ने वापस बुला लिया और बेकल ने नौकरी छोड़ दी और वापस चले जाए।

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राजनीति की चकाचौंद से दूर रहना चाहते थे बेकल फिर भी बने सांसद

साल 1986 के दौर में साहित्य क्षेत्र से राज्यसभा सांसद के तौर पर उनका नाम मनोनीत किया गया राजनीति में रुचि ना लेने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही ने अपने लंगोटिया यार जमील अहमद एडवोकेट इस बात को साझा करते हुए बताया कि मुझे राज्यसभा सांसद के तौर पर मनोनीत करने के लिए सूचना प्राप्त हुई है साथ ही दिल्ली बुलाया गया है दिल में जाने की इच्छा नहीं थी लेकिन लंगोटिया यार रहे जमील अहमद एडवोकेट के तमाम प्रयास के बाद वह दिल्ली जाने को राजी हुए और जमील अहमद ने उन्हें खुद गोंडा तक पहुंचाया जहां से वह दिल्ली गए और राज्यसभा सांसद बनकर बलरामपुर लौटे। साल 1986 से 1992 तक बेकल उत्साही साहब राज्यसभा के सदस्य बने रहें।

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जब एक चायवाले बच्चे को उढ़ा दी थी अपनी कीमती शाल

बेकल उत्साही के साथी रहे जखामंत अली (लड्डू मुंशी एडवोकेट) में अपनी यादों को साझा करते हुए बताया कि ऐसी शख्सियत धरती पर कभी कभी जन्म लेती है। मुझे वह दौर याद है जब हमें एक मुशायरे में गोला गोकरननाथ पहुंचना था रास्ते में लखीमपुर खीरी हम चाय पीने के लिए उतरे ठंडी का महीना था और चाय लाने वाला बच्चा ठंड से कांप रहा था। बेकल उत्साही ने जब उसे देखा तो चाय की प्याली उसके हाथ से लेकर खुद के कंधे पर रखा एक बेहतरीन शाल बच्चे को उढा दिया। यह देख कर मेरी आंखें नम हो गई। समय के बड़े पक्के रहे पद्मश्री बेकल उत्साही ने खुद की उपस्थिति को हमेशा ही दर्शाया एक बार की बात है महाराष्ट्र के अकोला में मुशायरे का आयोजन था और मैं पहुंचना था रास्ते में उनकी गाड़ी खराब हो गई गर्मी का मौसम था किसी ने लिफ्ट भी नहीं दी तब बेकल साहब ने एक ट्रक को रुकवाया और उसमे जगह न होने के कारण उसके बोनट पर ही सवार हो गए। गर्म बोनट और चिल्लाती गर्मी में किसी तरह अकोला पहुंचे और अपने शायरी से अकोला में मुशायरे में मौजूद तमाम लोगों का दिल जीत लिया।

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जानिए कैसे हुआ था बेकल साहब का इंतकाल

बेकल साहब लाजपतनगर दिल्ली में अपने आवास के बाथरुम में गिर गए थे और सर में गंभीर चोट आने के कारण होने डॉक्टर राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां डॉक्टरों की हर मुमकिन कोशिश के बावजूद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। शायरी से अपनी पहचान पूरी दुनिया में बनाने वाले पद्मश्री बेकल उत्साही के इस दुनिया से रुखसत होने की खबर सुनते ही साहित्य क्षेत्र में शोक की लहर दौड़ गई उनको जानने वाला कोई भी रहा हो, हर हिंदू मुसलमान की आंखें नम हो गई जाते जाते बेकल साहब ने अपने परिवार से अपनी अंतिम इच्छा जाहिर करते हुए खुद को अपने मकान के सामने पड़ी दो गज जमीन में दफन करने की बात कहकर इस दुनिया से रुखसत हो गए।

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भरा पूरा परिवार था बेकल साहब का

पद्मश्री बेकल उत्साही के परिवार मे उनके दो लड़के सज्जन तथा अजीज उर्फ़ अज्जन सहित चार बेटियां शन्नु, शब्बू, डा0 सूफिया व मुनिजा शामिल है।

Dharmendra kumar

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