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सूरते हाल: लोगों के सपनों से खेल रहा गोरखपुर विकास प्राधिकरण

raghvendra
Published on: 25 Jan 2019 8:11 AM GMT
सूरते हाल: लोगों के सपनों से खेल रहा गोरखपुर विकास प्राधिकरण
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर: वैसे तो किसी भी विकास प्राधिकरण का काम लोगों की आवासीय जरूरतों को पूरा करना, शहर का सुनियोजित विकास करना होता है, लेकिन मुख्यमंत्री के शहर का विकास प्राधिकरण लोगों के सपनों से खेल रहा है। जीवन भर की पूंजी लगाकर जीडीए में प्लॉट और फ्लैट की बुकिंग कराने वाले लोग अफसरों के भ्रष्टाचार के चलते कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाने को मजबूर हैं। 10 हजार से अधिक परिवारों को जीडीए के भ्रष्टाचार के चलते दिन में भी बुरे सपने आते हैं।

शहर में मेडिकल कॉलेज के पास मानबेला में किसानों की जमीन कौडिय़ों की भाव में कब्जाने वाला जीडीए पिछले डेढ़ दशक से सिर्फ सपने दिखा रहा है। ताउम्र की पूंजी लगाकर जमीन के टुकड़े की उम्मीद करने वाले लोग तो धोखा खा ही रहे हैं, किसानों के हाथ में भी झूठे आश्वासन के सिवा कुछ नहीं आया। वर्ष 2005 में जीडीए ने मानबेला में करीब 500 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की थी। समझौते के आधार पर जमीन अधिग्रहण करने वाले जीडीए का किसानों ने विरोध किया तो उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं। किसान आज भी मुआवजे की रकम के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

दिलचस्प यह है कि किसानों से जमीन लिये बिना ही जीडीए ने 2009 में करीब 58 एकड़ में राप्तीनगर विस्तार योजना लांच कर दी। योजना के 896 आवंटियों से 60 करोड़ से अधिक की रकम वसूलकर जीडीए ने विकास कार्यों पर 10 करोड़ खर्च भी कर दिये, लेकिन 10 साल गुजरने के बाद भी लोगों को अपनी जमीन पर कब्जा नहीं मिल सका है। आवंटियों ने राप्तीनगर विस्तार संघर्ष समिति बनाकर जीडीए के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। दो साल पहले ही हाईकोर्ट ने सभी आवंटियों को कब्जा देने का आदेश देते हुए रिपोर्ट तलब की, लेकिन जीडीए अभी तक 90 फीसदी से अधिक लोगों को जमीन का कब्जा नहीं दे सका है।

जीवन भर की पूंजी देने पर भी कब्जा नहीं

राप्तीनगर विस्तार संघर्ष समिति के अध्यक्ष मधुसूदन ओझा कहते हैं कि रेलवे से सेवानिवृत्त होने के बाद पूरी रकम जीडीए के पास जमा कर दी ताकि एक आशियाना मिल सके। लेकिन जीडीए के अफसर बिल्डरों से भी बुरा बर्ताव कर रहे हैं। प्लॉट की उम्मीद में किसी ने बैंक से लोन लिया तो किसी ने पैतृक जमीन व जेवर बेचकर जीडीए को पैसा दिया।

हम उस भूखंड पर कोई निर्माण नहीं करा सकते। रजिस्ट्री का शुल्क तीन गुना बढ़ गया है, मकान बनवाने की लागत में कई गुना वृद्धि हो चुकी है। बिना किसी गलती के इन सबका खामियाजा हमें भुगतना पड़ेगा। इस योजना में प्लॉट लेने वालों में 7 जजों, 6 आईपीएस अधिकारियों के साथ ही प्रशासनिक अफसर भी शामिल हैं, लेकिन वह जीडीए की मनमानी के सामने बेबस हैं।

योगी के समर्थक रहे किसानों से भी ठगी

मानबेला में 1500 से अधिक किसानों की जमीनों का अधिग्रहण हुआ है। शुरुआत में जीडीए किसानों को 28 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मुआवजा दे रहा था जिसका पुरजोर विरोध हुआ। तब बतौर सांसद योगी आदित्यानाथ ने भी किसानों का समर्थन किया। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों में उम्मीद जगी। जिला प्रशासन और किसान मजदूर संघर्ष समिति के बीच वार्ता के बाद 70 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर मुआवजा पर सहमति बन गई, लेकिन जब मुआवजा देने की बात आई तो जीडीए किसानों को पहले दिए गए मुआवजे पर ब्याज जोडक़र कुल मुआवजे में से उसे घटाने लगा।

इस पर किसान भडक़ गए और समिति द्वारा किए गए समझौते पर इनकार कर दिया। किसानों की दलील थी कि 70 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर का मतलब हुआ 64 रुपए वर्ग फीट जमीन। जब मानबेला क्षेत्र में 1000 से 1500 रुपये वर्ग फीट पर जमीन बिक रही है तो हमें 64 रुपये वर्ग फीट की दर से मुआवजा देने में दिक्कत क्यों हो रही है। किसान नेता बरकत अली व शकील अहमद कहते हैं कि अधिग्रहण के समय डीएम सर्किल रेट 50 रुपये वर्ग फीट था, लेकिन जीडीए ने 10 रुपये वर्ग फीट के दर से जमीन का अधिग्रहण किया। अधिकारी मुख्यमंत्री की मंशा पर ही पलीता लगा रहे हैं।

झील के वेटलैंड को बेचकर भरा खजाना

पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के कार्यकाल में जीडीए के अधिकारियों ने 1600 हेक्टेयर में फैली रामगढ़ झील के वेटलैंड की अनदेखी कर जमीनों की बिक्री से अपना खजाना भरा। पूर्व कुलपति प्रो.राधेमोहन मिश्रा समेत एनजीटी में तीन मामलों की सुनवाई के बाद कोर्ट ने पूरे प्रकरण को लेकर हाईपॉवर कमेटी गठित की। अब उसकी संस्तुतियों से सैकड़ों लोगों की रात की नींद उड़ी हुई है।

एनजीटी की हाईपॉवर कमेटी ने झील के 500 मीटर दायरे में किसी प्रकार के निर्माण पर रोक लगा दी है। एनजीटी के फरमान से जीडीए और प्राइवेट बिल्डरों के करोड़ों के प्रोजेक्ट पर ग्रहण लग गया है। 500 आवास वाली लोहिया एन्क्लेव योजना पर पूरी तरह ग्रहण लग गया है। जीडीए की बेशकीमती 42 एकड़ जमीन भी इस दायरे में आ गई है। पैडलेगंज, चंपा देवी पार्क और देवरिया बाईपास पर कई बिल्डरों की बेशकीमती जमीन है। बिल्डर शोभित दास और लोटस निक्को ग्रुप के फाइव स्टार होटल के प्रोजेक्ट भी एनजीटी फरमान के बाद लटक गए हैं।

करोड़ों रुपये लेकर जीडीए ने मल्टीस्टोरी लेक व्यू आवासीय योजना लोगों को फ्लैट का आवंटन भी कर दिया है, अब इसके निर्माण पर ही संकट आ गया है। एनजीटी की हाईपावर कमेटी ने तो वेट लैंड के 50 मीटर के दायरे में बने 393 निर्माणों को ध्वस्त करने का फरमान जारी कर रखा है। इनमें से तमाम मकान 100 साल पुराने हैं तो कई ने जीडीए से मानचित्र स्वीकृत करा रखा है। जीडीए सचिव राम सिंह गौतम का कहना है कि वेटलैंड को लेकर आदेश नया है जबकि योजनाएं पुरानी। किन परिस्थितियों में पूर्व में योजनाएं बनीं, यह बताना संभव नहीं है। फिलहाल 500 मीटर के दायरे में किसी प्रकार के मानचित्र स्वीकृति और निर्माण कार्य पर रोक लगा दी गई है।

खुद की लेटलतीफी, वसूली आवंटियों से

जीडीए की शायद ही कोई योजना हो जिसमें विवाद की काली छाया न हो। ताजा विवाद 500 फ्लैट वाले लोहिया एन्क्लेव को लेकर है। चार साल पहले जीडीए ने आवंटियों को दो साल के अंदर फ्लैट देने का लिखित प्रपत्र दिया था। करीब 4 साल का समय गुजरने को है, अभी तक निर्माण कार्य पूरा नहीं हो सका है। उल्टे जीडीए ने 3 वर्ग मीटर एरिया बढऩे की बात कहते हुए करीब 4 लाख जमा करने की नोटिस थमा दी है। उपभोक्ता मामलों के अधिवक्ता बृज विहारी श्रीवास्तव का कहना है कि वर्ष 2013 में ऐसे ही मामले में सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है।

कानपुर विकास प्राधिकरण बनाम योगेन्द्र नाथ भट्ट के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत अपने आदेश में कहा है कि विकास प्राधिकरण या प्राइवेट बिल्डर बढ़े हुए प्लाट या लैंड एरिया का नये रेट पर भुगतान नहीं ले सकता है। आवंटी विंदा राय, बृजेश आदि का कहना है कि मकान का किराये के साथ फ्लैट की किस्त जमा करनी पड़ रही है। दोहरे बोझ के बाद जीडीए ने 4 लाख और जमा करने का नोटिस भेज दिया। फ्लैट नहीं लेने कि बात पर जीडीए के अधिकारी 10 फीसदी रकम काटकर धनवापसी की बात कह रहे हैं।

आवंटी आरके श्रीवास्तव और मनोज श्रीवास्तव का कहना है कि जीडीए को फ्लैट का एरिया बढ़ाने से पहले आवंटियों को जानकारी देनी चाहिए। 44 महीने बाद हमें पता चल रहा है कि फ्लैट का एरिया बढ़ा दिया गया है। जीडीए ने पहले करीब 28 हजार वर्ग मीटर के दर से रकम ली थी। अब यह एक लाख रुपये वर्ग मीटर की दर मांगी जा रही है।

दो दशक में भी विकास नहीं

जीडीए द्वारा 15 से 20 वर्ष पूर्व निर्मित की गई 11 कालोनियां अपनी खामियों के चलते नगर निगम को स्थानांतरित नहीं हो सकीं। इनमें बुद्धविहार पार्ट ए, बी, सी, सिद्धार्थ इन्क्लेव, सिद्धार्थ इन्क्लेव विस्तार, सिद्धार्थपुरम, लेकव्यू, बुद्ध विहार व्यावसायिक, आम्रपाली, सिद्धार्थपुरम विस्तार, राप्तीनगर फेज द्वितीय, ललितापुरम व ललितापुरम विस्तार कालोनियां शामिल हैं। जीडीए के अफसर इन कालोनियों में कभी सडक़ बनाते हैं तो नाली टूटी मिलती है।

स्ट्रीट लाइट लगाते हैं तो जलभराव की समस्या सामने आ जाती है। सिद्धार्थपुरम में रहने वाले अतुल वर्मा का कहना है कि घर के सामने का खाली प्लॉट तालाब में तब्दील है। मच्छरों के चलते कालोनी में किसी न किसी घर में बीमार जरूर मिल जाते हैं। जीडीए की कालोनियों में बने 95 ओवरहेड में से बमुश्किल 35 से ही पानी की आपूर्ति होती है।

अवैध निर्माण में अव्वल है गोरखपुर

जीडीए के अफसरों के भ्रष्टाचार के चलते अवैध निर्माण के मामले में पूरे प्रदेश में अव्वल है। शासन ने पिछले दिनों जो सूची जारी की थी, उसके मुताबिक सर्वाधिक मानचित्र गोरखपुर विकास प्राधिकरण में ही निरस्त किए गए हैं। अभी तक जीडीए ने कुल 20 हजार से अधिक अवैध निर्माणों के ध्वस्तीकरण का आदेश जारी चुका है, शायद ही कोई निर्माण हो जिस पर कार्रवाई हुई है। गोरखपुर में 500 से अधिक नर्सिंग होम जीडीए के अफसरों के संरक्षण में आवासीय मकानों में संचालित हो रहे हैं। ये कब सील होते हैं, कब खुल जाते हैं इसे सिर्फ जीडीए के जिम्मेदार ही जानते हैं।

शहर के प्रमुख बाजार गोलघर, सिविल लाइंस, बेतियाहाता में 100 से अधिक शॉपिंग काम्पलेक्स में पार्किंग के स्थान पर दुकानों का संचालन हो रहा है। अफसरों की बेपरवाही से शहर में 100 से अधिक अवैध कालोनियां विकसित हो चुकी हैं। जीडीए के इंजीनियरों की शह पर विकसित हुई इन कालोनियों में मूलभूत सुविधाएं भी नहीं है। समय-समय पर शासन द्वारा कालोनियों को नियमित करने का आदेश होता है, लेकिन चंद महीनों में सबकुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है। 1992 से अब तक 50 से अधिक कालोनियों का विकास जीडीए द्वारा ले-आउट एप्रूव करने के बाद हुआ। एक भी कालोनी ने अभी तक पूर्णता प्रमाण पत्र नहीं लिया। प्राधिकरण के मुख्य अभियंता संजय कुमार सिंह रटारटाया जवाब देते हैं कि अवैध कालोनियों को नियमित करने के लिए कालोनियों का सर्वे पूरा हो गया है। शासन को रिपोर्ट भेज दी गई है। इतना ही नहीं शहर में बने मॉल में भी बिना पूर्णता प्रमाण पत्र के ही नामी-गिरामी कंपनियों के शो-रूम खुल गए हैं।

सरकार की योजनाओं और पत्रकारों को भी नहीं छोड़ा

जीडीए के अफसरों ने केन्द्र और प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री आवास योजना को लेकर भी फिक्रमंद नहीं हैं। मानबेला और खोराबार में 1500-1500 आवास को लेकर टेंडर हो चुका है। लेकिन अभी तक आवंटन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है। लाभार्थियों का डूडा के कार्यालय से लेकर जीडीए तक शोषण हो रहा है। मुख्यमंत्री की मंशा के बाद जीडीए ने मानबेला में 492 आवास वाले पत्रकारपुरम की योजना को लांच किया। योजना में प्रोफेशनल को भी जगह देकर मुख्यमंत्री की मंशा को पलीता लगाने वाले अफसर पंजीकरण के पांच महीने बाद भी निर्माण कार्य नहीं शुरू करा सके हैं। गोरखपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष मार्कण्डेय मणि त्रिपाठी का कहना है कि जीडीए के अफसर मुख्यमंत्री की मंशा के विपरीत काम कर रहे हैं। इस बाबत पूरा मामला मुख्यमंत्री से लेकर प्रमुख सचिव के संज्ञान में ला चुके हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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