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Interview: यतींद्र मिश्र की बेबाक राय, आज का लेखक संपादक का मुखापेक्षी नहीं

Gagan D Mishra
Published on: 11 Aug 2017 6:48 PM IST
Interview: यतींद्र मिश्र की बेबाक राय, आज का लेखक संपादक का मुखापेक्षी नहीं
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Interview: यतींद्र मिश्र की बेबाक राय, आज का लेखक संपादक का मुखापेक्षी नहीं

यतींद्र मिश्र हिंदी साहित्य, संस्कृति और कला जगत का एक ऐसा नाम जिसमें विविधताओं की झलक है। कविताओं पर बात करिए तो कई युगों के कवि एक साथ सामने मौजूद से दिखते हैं। सुरों की बात हो तो सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर साक्षात प्रकट होकर अपनी जीवनगाथा सुनाती महसूस होती हैं, गिरिजा देवी की ठुमरी के आलाप भरती नजर आती हैं, सोनल मानसिंह के घुंघुरुओं की खनक सुनाई पड़ती है।

संगीत की बात निकले तो पंडित बिस्मिल्ला खां की शहनाई से निकले राग बरसने लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे यतींद्र जी जैसा शहनाई मर्मज्ञ कोई और नहीं। फिल्म की बात उठे तो गुलजार साहब के गीत और उनका रचना संसार ऐसे उपस्थित होता है कि मानो वह सामने बैठकर ही ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया जिगर मा बड़ी आग है...’ लिख रहे हों। कुल मिलाकर यह कि यतींद्र मिश्र के रचना संसार का फलक इतना बहुआयामी है कि उन्हें किसी एक दायरे में समेटना मुश्किल है।

एक संवेदनशील कवि, एक विवेकशील संपादक, एक अद्भुत अनुवादक, एक गहरे संगीत अध्येता, एक उत्कृष्ट कला समीक्षक, एक समावेशी संस्कृति कर्मी, जन सरोकारों से जुड़े एक समाजसेवी और न जाने क्या-क्या...। इतनी सारी विशेषताओं से भरे यतींद्र जी वैसे तो राज परिवार से हैं और उनका लालन-पालन सुख सुविधाओं के बीच हुआ है लेकिन उनकी विनम्रता देख कोई यह कह नहीं सकता है कि राज प्रासाद वैभव उन्हें कभी लुभाता होगा। कम शब्दों में जब उनका परिचय जानिए तो कहते हैं, मैं मूलत: साहित्यिक व्यक्ति हूं।

विश्वविख्यात अयोध्या नगरी में 12 अप्रैल 1977 को जन्में यतीन्द्र मिश्र ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातक की उपाधि हासिल की है। उनका शैक्षिक कैरियर कैसा रहा होगा, इसी से पता चलता है कि परास्नातक की उपाधि के साथ उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला था। उन्होंने फैजाबाद के राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की। पढ़ाई के समय से ही वह साहित्य और संस्कृति के प्रति आकर्षित रहे हैं।

उनके कविता संग्रहों ड्योढ़ी पर आलाप, यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएं, के साथ ही विख्यात शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां, सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर, जाने माने गीतकार गुलजार पर लिखी किताबें साहित्य, संगीत और संस्कृति जगत में खासी चर्चित हैं। संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका के संपादन का दायित्व भी अब उन पर आन पड़ा है। जिस पर वह कहते भी हैं कि प्रयाग शुक्ल जैसे सुविज्ञ कलापारखी के बाद उस पत्रिका का संपादन मेरे लिए एक बड़ी चुनौती है। रचनाकर्म की वजह से ही अयोध्या से लखनऊ, मुंबई और दिल्ली के बीच उनकी यायावरी बनी रहती है। वह जहां भी जाते हैं कविता, कला संस्कृति और संगीत साधकों से ही घिरे रहते हैं। वह दुनियादार भी हैं, पर इन्हीं के इर्द गिर्द।

अयोध्या में रहकर भी वह उस अयोध्या में ही रमे रहते हैं जो राजनीति से दूर है। यतींद्र मिश्र के रचना कर्म और उनके सरोकारों पर वरिष्ठ पत्रकार रतिभान त्रिपाठी ने उनसे लंबी बातचीत की है।

प्रस्तुत है बातचीत के अंश-

आप तकरीबन बीस सालों से साहित्य और संस्कृति जगह से जुड़े हैं। देश का साहित्य किस दिशा में जा रहा है।

- यह सही है कि मैं बीस सालों से साहित्य जगत में जरूर रमा हुआ हूं और इसी दीन दुनिया में रहना पर पर देश का साहित्य कहां जा रहा है, इस बारे में मैं कुछ कह पाने में खुद को सक्षम नहीं मान सकता। हां, आज की युवा पीढ़ी बहुत लिख रही है। काफी लोकतांत्रिक है। बहुत विषयों पर लिखा जा रहा है। बहुत सी बाउंड्रीज टूटी हैं। लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं। उनमें खुलकर बात हो रही है। कविता, कहानी, निबंध समेत अनेक विषयों पर व्यापक चर्चा हो रही है। लोग दादी नानी के किस्से लिखे जा रहे हैं। विभिन्न विषयों पर काम हो रहा है। मिथक पर काम हो रहा है, इतिहास पर काम हो रहा है। राजनीति पर लिखा जा रहा है। लिखने पढऩे का एक अच्छा माहौल बना है।

लिटरेचर फेस्टिवल्स को आप किस रूप में देख रहे हैं। कुछ सालों से यह चर्चा में आए हैं।

- मुझे लगता है कि साहित्य, कला संस्कृति के नाम पर कुछ भी हो, होते रहना चाहिए। इससे समाज जुड़ता है, बनता है। मुझे तो जयपुर और लखनऊ साहित्य उत्सवों में शामिल होने का मौका मिला है। निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह फेस्टवल ऐसे अवसर हैं जहां सब खुली बात करते हैं। सहमति-असहमति के अवसर मिलते हैं। ऐसे फोरम होने चाहिए। बड़े प्रकाशन घरानों ले जब अपने यहां से साहित्यिक प्रकाशन बंद किए तो लोगों के लिए कुछ ठीक नहीं लगा पर जब ये प्रकाशन बंद हुए तो इस तरह के फोरम आए। अब तो ब्लॉग और सोशल मीडिया का दौर है। आज पहले से ज्यादा लोग लिख रहे हैं।

यानी परंपरागत साहित्य प्रतिष्ठानों के मुकाबले आज के नए माहौल को आप बेहतर मान रहे हैं।

- जी हां। आज का लेखक किसी साहित्यिक संपादक का मुखापेक्षी नहीं है कि वह अच्छी रचना भेजे और लौटती डाक से संदेशा आ जाए कि इसे प्रकाशित नहीं किया जा सकता। अब तो कई मंच हैं। सोशल मीडिया और दूसरे फोरम के जरिए हजारों लाखों लोगों तक आप अपनी रचना आसानी से पहुंचा सकते हैं। रचना दमदार है तो प्रकाशन घराने आपके पास खुद पहुंचेंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो अमीश त्रिपाठी और देवदत्त पटनायक जैसे युवा लेखक देश दुनिया में इतनी धूम नहीं मचा रहे होते।

आप कविताएं लिखते रहे लेकिन संगीत अचानक संगीत और कला के मर्मज्ञों पर कैसे कलम चलाने लगे।

- संगीत मुझे बचपन से लुभाता रहा है। उसके प्रति आकर्षण मेरा कोई नया नहीं। इसीलिए मैंने गिरिजा देवी जी, बिस्मिलला खां साहब और लता जी पर काम किया। समाज और देश के लिए इनका योगदान इतना बड़ा है कि इन्हें कुछ किताबों में नहीं बांधा जा सकता। मेरी किताबों में इनके कुछ पहलू जरूर उजागर हुए हैं। जब मैं लेखन में आया था तो यह एफिडेविट तैयार करके नहीं आया था कि इस पर लिखूंगा, इस पर नहीं लिखूंगा। मेरे मन को मेरे रचनाकार को जो अच्छा लगेगा, वह करूंगा।

आपने गुलजार साहब पर यार जुलाहे काम किया है। आप उन्हें किस रूप में देखते हैं।

- गुलजार साहब को मैं एक बहुत ही प्रबुद्ध व्यक्ति के रूप में देखता हूं, जो फिल्मी दुनिया में रहने के बावजूद उनकी कविता उतनी ही सरस और लालित्यपूर्ण है जितने कि दूसरे स्थानों पर मौजूद लोगों की। सिनेमा में रहकर भी एक गंभीर काम कर रहे हैं। गुलजार साहब लिखते हैं कि आंखों को कोई भीगा नहीं लगता, सपनों की कोई सरहद नहीं होती। ऐसी बात कौन कह सकता है।

सिनेमा जगत से जुड़े लोगों को खांटी रचनाकार अलग नजरिए से क्यों देखते हैं।

- मेरा नजरिया इससे अलग है। जो लोग साहित्य जगत, सिनेगा जगत और कला जगत को खांचे डाल कर, विभाजित करके साहित्य की ऐसी तैसी की जाती है, वह गलत हैं। यह उनकी अपनी समस्या होगी। अच्छी रचना, अच्छा लेखन किसी का मोहताज नहीं होता। अच्छी रचना हमेशा पढ़ी जाएगी। अच्छा संगीत हमेशा सुना जाएगा। कोई कुछ भी कहे। आपका अपना पाठक वर्ग है। आप गुलजार साहब को ही ले लीजिए। उनके जो पाठक हैं, जो सुनने वाले हैं, वह उनकी शर्तों पर बने हुए लोग हैं। वह दूसरों की शर्तों पर बने हुए लोग नहीं हैं जो कि उन्हें स्वीकारें या खारिज करें। मैं खुद हिंदी साहित्य का विद्यार्थी हूं लेकिन मैंने विविध विषयों पर काम किया है। मैंने गिरिजा देवी पर और बिस्मिल्ला खां पर काम किया है तो लता मंगेशकर और सोनलमान सिंह पर भी काम किया है। अगर आप मेरे बिस्मिल्ला खां वाले काम को स्वीकार कर रहे हैं तो लता मंगेशकर वाले और गुलजार साहब वाले काम को भी स्वीकारना पड़ेगा।

आपने अब तक जो कुछ सृजित किया है, उसमें आपको खुद अपना कौन का काम बेहतर लगता है।

- मुझे बेहतर के अर्थ में कुछ भी नहीं लगता । इसे मेरी विनम्रता या कुछ और न माना जाए। जब काम पूरा होता है तो बाद में लगता है कि अरे इसमें तो यह भी हो जाता तो और अच्छा रहता। बस मेरे काम करते करते एक चीज जरूर आई है कि मेरा धैर्य बढ़ा है। थोड़ी मेरी मेहनत भी बढ़ी है। पर मैं संतुष्ट नहीं हूं। मुझे मौका मिले तो मेरी लता मंगेशकर जी की जो 440 पेज की किताब है, उसे और कई वाल्यूम में लिखूं।

क्या आपको यह नहीं लगता कि दक्षिण और दूसरी भाषाओं पर हिंदी में और काम होना चाहिए।

- बिल्कुल होना चाहिए। चाहे पूर्वोत्तर का साहित्य हो या दक्षिण का। विभिन्न भाषाओं के लेखकों, रचनाकारों, संगीतकारों और कला मर्मज्ञों के बारे में हिंदी में काम होना चाहिए। जब तक व्यापक हिंदी समाज यह नहीं जानेगा कि दूसरी भाषा में क्या हो रहा है। हम उनके करीब कैसे पहुंच सकते हैं।

आपको क्या लगता है कि कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में क्या कुछ नहीं हो रहा है, जो होना चाहिए।

- मुझे लगता है कि कला संस्कृति के क्षेत्र में जिन लोगों का योगदान है, जिन्होंने समाज को आगे बढ़ाने में मदद की है, उनके जीवन पर काम होना चाहिए। लोगों को पता चलना चाहिए कि कितने संघर्षों के बाद वह अपने एक बड़े मुकाम तक पहुंचे। यह लोगों के लिए प्रेरणादायी होगा।

आप राज परिवार में जन्मे हैं, आपको क्या लगता है कि आपको वही करना चाहिए था, जो आप कर रहे हैं।

- आप यह तय नहीं करते सकते कि आपका जन्म कहां होग और आपका परिवार कौन सा होगा। मुझे नहीं लगता कि अगर मैंने राज परिवार से अलग कहीं जन्म लिया होता तो कुछ और कर रहा होता। वहां भी यही कर रहा होता, जो आज कर रहा हूं। मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक कहना चाहूंगा कि जिस राज परिवार का वंशज हूं, वहां मैंने बचपन में ही कला, संस्कृति और साहित्य के बारे में एक दृष्टि मिल जाती है। बहुत कम उम्र में मैंने यह देख लिया था कि मेरे परिवार में इन सबका बड़ा सम्मान भी रहा है। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि बड़ा होना कलाकार होना है, बड़ा होना साहित्यकार होना है, बड़ा होना प्रबुद्ध होना है।

अयोध्या एक बड़ा नाम। उसको लेकर इतनी राजनीति हो रही है। लोग सुरक्षा घेरे में रहते हुए वहां के लोग परेशान रहते हैं। आपके नजरिए से उस विवाद का समाधान किस रूप में हो सकता है।

- मुझे लगता है कि इसके लिए मैं उचित व्यक्ति नहीं हूं। मैं समझता हूं कि गोस्वामी तुलसीदास ने जो कहा है कि सियाराम मय सब जग जानी करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी। तो एक अयोध्यावासी होने के नाते राम को जो उदात्त महानायक का चरित्र है, सबको समेकित करने की जो भावना है, मैं उसका समर्थक हूं। तो यह जानता हूं कि देश में अमन चैन होना चाहिए। समाज में समरसता का भाव होना चाहिए। परस्पर प्रेम होना चाहिए। यही देश को आगे ले जाएगा, समाज को आगे बढ़ाएगा। बाकी जो राजनीतिक बातें हैं, वह दूसरे जानते होंगे।

रचना संसार: यतीन्द्र मिश्र के तीन कविता-संग्रह ड्योढ़ी पर आलाप, यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएं हैं। जानी मानी शास्त्री उप शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी, नृत्यांगना सोनल मानसिंह एवं शहनाई उस्ताद बिस्मिल्ला खां पर उनकी प्रामाणिक पुस्तकें हैं। प्रदर्शनकारी कलाओं पर निबन्धों की एक किताब ‘विस्मय का बखान’ तथा कन्नड़ शैव कवयित्री अक्क महादेवी के वचनों का हिन्दी में पुनर्लेखन ‘भैरवी’ नाम से प्रकाशित हुआ है।

फिल्म निर्देशक एवं गीतकार गुलज़ार की कविताओं एवं गीतों के चयन क्रमश: ‘यार जुलाहे’ तथा ‘मीलों से दिन’ नाम से सम्पादित हैं। ‘गिरिजा’ का अंग्रेजी, ‘यार जुलाहे’ का उर्दू तथा अयोध्या श्रृंखला कविताओं का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है।

पुरस्कार और सम्मान : यतीन्द्र मिश्र को 64वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में उनकी पुस्तक लता:सुर-गाथा के लिए पुरस्कृत किया गया है। यह पुस्तक लता मंगेशकर और उनके बीच छह वर्षों तक चले लम्बे संवाद के अंशों पर आधारित है। इसके साथ ही रजा पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् युवा पुरस्कार, हेमन्त स्मृति कविता सम्मान, महाराणा मेवाड़ सम्मान भी मिल चुका है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की कनिष्ठ शोधवृत्ति एवं सराय, नयी दिल्ली की स्वतंत्र शोधवृत्ति भी मिली हैं।

यात्राएं: साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के सिलसिले में भारत के अनेक प्रमुख नगरों, स्थानों समेत अमेरिका, इंग्लैण्ड, मॉरीशस और अबुधाबी की यात्राएं कर चुके हैं।

सामाजिक सरोकार : वह अयोध्या में रहते हैं लेकिन देश के हर कोने से जुड़े रहने की कोशिश करते हैं। समन्वय व सौहार्द के लिए विमला देवी फाउण्डेशन न्यास के माध्यम से कई तरह की सांस्कृ तिक गतिविधियां संचालित करते हैं।



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