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बार-बार फेल हो रही विपक्षी एकता का मतलब

raghvendra
Published on: 30 Aug 2019 8:01 AM GMT
बार-बार फेल हो रही विपक्षी एकता का मतलब
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श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 2014 में सत्ता संभालने के बाद उनके खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशें हर बार नाकाम साबित हो रही हैं। हाल ही में काफी मशक्कत के बाद विपक्षी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर के हालात जानने वहां गया लेकिन वहां से वापस किए जाने के बाद विपक्ष को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी। भारतबंद, ईवीएम और भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन से दोचार होने के नाम पर विपक्षियों का एक बड़ा झुंड दिल्ली के जंतर-मंतर में इकट्ठा होने से लेकर विभिन्न नेताओं के घरों पर लंबी-लंबी बैठकें कर चुका है, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।

कश्मीर से बैरंग लौटाया

हाल ही में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाए जाने के बाद वहां उत्पन्न स्थिति का जायजा लेने के लिए विपक्षियों का एक झुंड बीते शनिवार को जम्मू-कश्मीर पहुंचा, लेकिन विपक्षी नेताओं को एयरपोर्ट से ही बैरंग लौटा दिया गया। इस झुंड की अगुवाई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सांसद राहुल गांधी व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद कर रहे थे।

इसके अलावा इस प्रतिनिधिमंडल में सीपीआई (एम), सीपीआई, तूणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, जनता दल (लोकतांत्रिक),जनता दल (सेक्युलर),राष्ट्रीय जनता दल समेत कुछेक और छुटभैय्ये क्षेत्रीय दल शामिल थे। इस प्रतिनिधिमंडल को रोके जाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि इन सबके वहां जाने से स्थितियां बिगड़ सकती हैं जबकि इन नेताओं का कहना था कि यदि वहां सबकुछ सामान्य है तो उन्हें वहां जाने से क्यों रोका जा रहा है।

2014 में निकली हवा

2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 11 गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा दलों ने मिलकर एक गठबंधन तैयार किया था जिसमें सीपीआई, सीपीआई (एम), फारवर्ड ब्लाक,रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, जेडीयू, बीजद, अन्नाद्रमुक, झारखंड विकास मोर्चा, जेडीएस और असमगण परिषद शामिल थे।

गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों के नाम पर बने इस गठबंधन में शामिल चुनाव आने तक कुछ दल भाजपा के साथ कुछ कांग्रेस के साथ खड़े हो गए और राष्ट्रीय दलों को हाशिए पर रखने के सारे दावों की हवा निकल गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजग को बहुमत मिलने के बाद विपक्ष हताश हो गया था। इसके बाद 2015 में 15 अप्रैल को जनता दल के दोनों धड़ों के अलावा राजद, इनेलो, सजपा व सपा ने एक होने का निर्णय लिया था।

कई बार मिल चुकी है विफलता

इसी तरह लोकसभा चुनाव से करीब छह माह पूर्व 2018 में 11 सितंबर को सारे विपक्षी दलों ने महंगाई के खिलाफ व्यापक स्तर पर भारत बंद का आयोजन किया। जंतर-मंतर पर राहुुल गांधी सहित विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों ने इसमें हिस्सा लिया। विपक्ष के अथक प्रयासों के बावजूद भारत बंद का यह आयोजन मेगा शो नहीं बन पाया। हालांकि लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष का इसे बड़ा शो माना जा रहा था, लेकिन इसमें शामिल दलों और उसके नेताओं के सारे दावे हवा-हवाई साबित हुए।

ऐसा नहीं कि विपक्षी एकता के सारे प्रयास आजकल में शुरू हुए हों। हर बार के लोकसभा चुनाव में इस तरह के प्रयोग होते रहे हैं। मौके पर जुटे नेताओं ने हर बार सारे मतभेदों को भुलाकर भाजपा को सबक सिखाने की बात कही, लेकिन चुनाव आने तक सारे नेता बिखर गए। इस बैठक में पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा, शरद यादव, नीतीश, लालू व मुलायम सहित क्षेत्रीय दलों के बाकी दिग्गज भी जुटे थे। इसी तरह का एक बड़ा जुटान यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पांच नवंबर 2016 को समाजवादी पार्टी के रजत जयंती के मौके पर लखनऊ में हुई थी जिसमें लोकदल, जनता दल, इनेलो सहित कुछेक अन्य क्षेत्रीय दल शामिल थे।

इस साल और अगले साल चार-पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने को हैं। इन राज्यों में कहीं भाजपा तो कहीं भाजपा गठबंधन की सरकार है। विपक्ष के सामने एक बार फिर अपनी एकता दिखाने की चुनौती है। देखना होगा कि राज्यों में होने वाले इन चुनावों को लेकर कौन-कौन दल कहां एक साथ आते हैं और कहां अपनी एकता का परचम लहराते हैं।

चुनाव आयोग में नहीं मिली कामयाबी

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ईवीएम पर सवाल उठाते हुए इसी तरह राजनीतिक दलों का एक प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग पहुंचा था जिसमें कांग्रेस,टीडीपी, बीएसपी, सीपीआई, सीपीआई (एम), आप, टीएमसी, सपा,डीएमके, आरजेडी, नेसीपी आदि पार्टियां शामिल थीं। इन दलों और उसके नेताओं ने ईवीएम पर सवाल उठाते हुए बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाने की मांग की थी, लेकिन चुनाव आयोग ने विपक्षी दलों की इस तरह की आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया था। जिस समय विपक्षी दलों द्वारा यह मांग की जा रही थी तभी राजनीतिक विश्लेषकों ने यह घोषणा कर दी थी मुद्दाविहीन विपक्ष को इस बार फिर मात मिलने वाली है और फिर वही हुआ जिसकी संभावना व्यक्त की जा रही थी। विपक्ष के लाख प्रयास के बाद भी विपक्ष इस चुनाव में भी औंधे मुुंह गिरा।

विपक्ष की एकता में मायावती साथ नहीं

विपक्ष की एकता में कई बार ऐसे मौके आए जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने ‘एकला चलो रे’ का रास्ता अपना लिया। हाल ही में जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाया तो इसका कुछ दलों ने तो विरोध किया लेकिन बसपा ने सत्ता पक्ष का साथ दिया। इसके कई दिनों बाद जब कश्मीर में जनता को आ रही दिक्कतों की बात आई तो विपक्षी दलों ने कश्मीर दौरा करना चाहा लेकिन मायावती का साथ जाना तो दूर उन्होंने इस दौरे पर ही सवाल खड़े कर दिए। मायावती ने कहा कि ‘बिना अनुमति’ कांग्रेस और अन्य पार्टियों के नेताओं को कश्मीर नहीं जाना चाहिए था। सभी पार्टियों को थोड़ा इंतजार कर लेना चाहिए। बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर हमेशा ही देश की समानता, एकता व अखण्डता के पक्षधर रहे हैं। इसलिए वे जम्मू-कश्मीर राज्य में अलग से अनुच्छेद 370 का प्रावधान करने के कतई भी पक्ष में नहीं थे। इसी खास वजह से बसपा ने संसद में इस धारा को हटाये जाने का समर्थन किया।’

सुप्रीम कोर्ट की बात का समर्थन करते हुए मायावती ने कहा कि देश में संविधान लागू होने के लगभग 69 वर्षों के उपरान्त अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद अब वहां पर हालात सामान्य होने में थोड़ा समय अवश्य ही लगेगा। इसका थोड़ा इंतजार किया जाए तो बेहतर है। मायावती ने पूछा, हाल ही में बिना अनुमति के कांग्रेस व अन्य पार्टियों के नेताओं का कश्मीर जाना क्या केन्द्र व वहां के गवर्नर को राजनीति करने का मौका देने जैसा कदम नहीं है? वहां पर जाने से पहले इस पर भी थोड़ा विचार कर लिया जाता, तो यह उचित होता।

ममता की राजनीति

बीते साल दिसंबर में जब कोलकाता में टीएमसी नेता ममता बनर्जी की अगुवाई में विपक्ष की एक रैली हुई थी तो मंच पर 21 नेता मौजूद थे। इस रैली में कांग्रेस की ओर से मल्लिकार्जुन खडग़े और अभिषेक मनु सिंघवी मौजूद थे। मंच पर ममता बनर्जी के हावभाव से लग रहा था कि वह खुद को विपक्ष की नेता के तौर पर देख रही हैं और राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं करना चाहतीं। ममता जब दिल्ली आईं तो उन्होंने राहुल गांधी को ज्यादा भाव नहीं दिया और यहां तक पश्चिम बंगाल तक में कांग्रेस का टीएमसी के साथ गठबंधन नहीं हो पाया। इस साल और अगले साल चार-पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है। इन राज्यों में कहीं भाजपा तो कहीं भाजपा गठबंधन की सरकार है। विपक्ष के सामने एक बार फिर अपनी एकता दिखाने की चुनौती है। देखना होगा कि राज्यों में होने वाले इन चुनावों को लेकर कौन से दल कहां एक साथ आते हैं और कहां अपनी एकता का परचम लहराते हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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