TRENDING TAGS :
दावतों तबलीग के लिए भी औरतों का बाहर निकलना नाजायज- सत्तर साल पहले का फतवा
पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर आज मुसलमान औरतें भी आजादी के नाम पर अपने परिवार व बच्चों को छोड़ घरों से बाहर निकल गई हैं। जिसके दुष्परिणाम स्वरूप आए दिन औरतों के साथ होने वाले अपराध समाचार पत्रों की हैडिंग बने दिखाई देते हैं।जबकि इस्लाम ने औरतों का दावतो तबलीग (दीन के प्रचार प्रसार) के लिए भी घर से बाहर निकलना पसंद नहीं किया है।इस सम्बंध में विश्व प्रसिद्ध
सहारनपुर: पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर आज मुसलमान औरतें भी आजादी के नाम पर अपने परिवार व बच्चों को छोड़ घरों से बाहर निकल गई हैं। जिसके दुष्परिणाम स्वरूप आए दिन औरतों के साथ होने वाले अपराध समाचार पत्रों की हैडिंग बने दिखाई देते हैं।जबकि इस्लाम ने औरतों का दावतों तबलीग (दीन के प्रचार प्रसार) के लिए भी घर से बाहर निकलना पसंद नहीं किया है।इस सम्बंध में विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद भी करीब सत्तर साल पहले फतवा जारी कर चुका है।
देश की राजधानी दिल्ली निवासी हाफिज अब्दुल रहीम ने सन 1950 में दारुल उलूम देवबंद के इफ्ता विभाग से सवाल किया था कि ‘क्या औरतों का दावतों तबलीग (दीन के प्रचार प्रसार) के लिए सफर करना (घर से बाहर निकल कर एक जगह से दूसरी जगह जाना) दरुस्त है? जबकि सफर में महरम (जिससे खून का रिश्ता हो) उनके साथ हो?’ इस सवाल के जवाब में दारुल उलूम देवबंद ने फतवा जारी कर कहा था कि मोहम्मद साहब व सहाबा के दौर में औरतें सफर नहीं करती थीं और न मोहम्मद साहब ने व सहाबा ने औरतों को तबलीग के लिए सफर करने का हुक्म दिया। इससे सिद्ध होता है कि औरतों का तबलीग के लिए सफर करना जायज नहीं। खेरुल कुरून (मोहम्मद साहब व सहाबा के समय) में तबलीग (दीन का प्रचार प्रसार) मर्दों के जिम्मे था और औरतें पर्दे में रहकर मसले व दीन की बातें सीखती थीं। और मर्दों की ही जिम्मेदारी थी कि वह अपनी औरतों को दीन की बातें सिखाएं।
फतवे में स्पष्ट कहा गया है कि जब उस खेर के जमाने में यह सूरते हाल थी तो इस शर व फितनों (असमाजिकता) के समय में औरतों का तबलीग के लिए सफर करना, चाहे महरम ही साथ क्यों न हो कैसे जायज हो सकता है। फतवे में कहा गया है कि मर्द दावतों तबलीग के लिए सफर करें, आम तौर पर औरतों का तबलीग के लिए सफर करना फितने के दरवाजे को खोल देना है। मुस्लिम महिलाओं के सम्बंध में करीब सत्तर साल पहले दारुल उलूम देवबंद से जारी हुए फतवे पर तत्कालीन सदर मुफ्ती सैयद मेंहदी हसन के दस्तखत मौजूद हैं। इस महत्वपूर्ण फतवे की तसदीक मजाहिर उलूम सहारनपुर के सदर मुफ्ती सईद अहमद साहब व नाजिमे आला मौलाना अब्दुल लतीफ साहब ने भी की है।