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जयंती विशेष: गांधी जी के तीन बंदर को लोग कितना समझ पाए
योगेश मिश्र
लखनऊ: कर्म का धर्म से सीधा रिश्ता है। कर्म का जीवन से भी सीधा रिश्ता है। यही कारण है कि हमारे सभी ग्रंथों से शिक्षा और दीक्षा मिलती है कि सदकर्म किए जाएं। हमारे महापुरुष भी कहते हैं- ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भारतीय दर्शन, धर्म और अध्यात्म की इस भावना को और अधिक विस्तार देते हैं। वह बुरा न करने के साथ-साथ, बुरा न देखने और बुरा न सुनने की बात भी कहते है। गांधी जी ने अपनी इस बात को तीन बंदरों के प्रतीक से समझाया है। गांधी के तीन बंदर इतने आम हैं कि उनका नाम आते ही अपने हाथ से आंख, मुंह और कान बंद किए एक कतार में बैठे तीन बंदरों का बिंब हमारी आंख के सामने स्वतः ही तैरने लगता है।
बंदरों और मनुष्यों का डीएनए 98 फीसदी मिलता है। दुनिया में मनुष्य और बंदर दो ही ऐसे प्राणी हैं, जो केले का छिलका उतार कर खाते हैं। बंदर केले को उल्टा छीलता है, मनुष्य सीधा छीलता है। गांधी बंदर को बुरा न बोलने, बुरा न देखने, बुरा न सुनने का प्रतीक बनाते हुए शायद यह याद नहीं रख पाए। पर यह गांधी की कोई गलती नहीं थी। बुरा न सुनने, बुरा न देखने और बुरा न बोलने वाले बंदरों के काम करने वाले दोनों हाथ आंख, कान और मुंह पर लगे हैं। ऐसे में इस प्रतीक से यह तो आशय निकलता ही है कि ‘बुरा न देखने, न सुनने, न बोलने’ वाले बंदर बुरा नहीं कर रहे होंगे। बुरा नहीं कर सकेंगे। क्योंकि उनके दोनों हाथ जो बुरा करते हैं वे फंसे हुए हैं बुरा करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक तीनों बंदर चीन से होते हुए पहुंचे थे। चीन का एक प्रतिनिधिमंडल जब महात्मा गांधी से मिलने आया था, तब उस प्रतिनिधि-मंडल ने बापू को ये तीन बंदर भेंट किए थे, जो वहां पर बच्चों के खिलौने के तौर पर काम आता है। सन् 1617 में जापान के निक्को स्थित तोगोशु समाधि पर सबसे पहले इन बंदरों को उत्कीर्ण कराने का प्रमाण मिलता है। हालांकि जापान में भी यह माना जाता है कि तीनों बंदर चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस के थे, जो 8वीं शताब्दी में चीन से जापान पहुंचे थे। तोगोशु शिंटो मजार है। तोकुगावा लेयासु को यहां दफनाया गया है। तोकुगावा शुगोनेट राजवंश के संस्थापक थे। इस राजवंश का 1603-1868 तक राजतंत्र था। जापान में इस तरह की 130 तोगुशु समाधियां हैं।
जापान में उस कालखंड में शेंटो संप्रदाय का बोलबाला था जिसमें बंदरों को खासा सम्मान दिया जाता था। बुद्धिमान माना जाता है। हर बारह साल पर यहां ‘इयर आफ मंकी’ मानाया जाता है । 16 वें साल पर बंदरों से जुड़ा ‘कोशिन’ नामक एक खास पर्व भी मानाया जाता है। तीन बंदरों को समविकी सारु कहा जाता है, जो सरुताहितोनो निकोतो या कोशिन के सेवक माने जाते हैं। कोशिन जापान में पथ के देवता (गाड आफ रोड्स) माने जाते हैं।
गांधी ने जीवन और समाज पथ के लिए जब इन तीनों बंदरों को प्रतीक के रुप में चुना होगा तब निःसंदेह उनके दिमाग में ये तीनों बंदर जीवन पथ के देवता के रुप में ही उभरें होंगे। उन्हें लगा होगा कि अगर आदमी बुरा बोलना, बुरा देखना और बुरा सुनना बंद कर दे तो समाज और जीवन बहुत सुंदर हो सकता है। एक अच्छे और अद्भुत पथ पर अग्रसर हो सकता है। महात्मा गांधी के जीवन में तीनों बंदरों का सृजन सेवाग्राम आश्रम प्रवास के दौरान हुआ। महात्मा गांधी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह साबरमती आश्रम तब ही लौटेंगे जब देश को आजाद करा लेंगे। दांडी मार्च के बाद भी देश को आजादी नहीं मिली ऐसे में जमना लाल बजाज ने गांधी के लिए सेवाग्राम आश्रम की जगह दी ताकि साबरमती आश्रम छोडने का संकल्प उनका बना रहे और वह आजादी की लडाई भी लड़ सकें।
जंगे आजादी के दौरान बापू से मिलने जो भी नेता जाता था वे सब उनके आश्रम में ही रुकते थे। सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ऐसे व्यक्ति थे जो रुकते सर्किट हाउस में थे। पर गांधी आश्रम में पहुंचने पर गांधी जी सबसे संडास साफ कराते थे। इस काम को करने से नेहरू को भी छूट नहीं मिली थी। संडास मराठी शब्द है जिसका अर्थ मल होता है। गांधी का मानना था कि जब संडास साफ करोगे तभी अहंकार टूटेगा।
एक बार उनकी पत्नी कस्तूरबा ने संडास साफ करने से मना कर दिया था, तो गांधी जी ने पल भर के अहिंसा का मार्ग तज दिया था। हालांकि बाद में बा ने गांधी के फरमान पर अमल कर दिया था। जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी संडास साफ करने को अहं टूटने से जोड़कर देखते हों, वही उन बंदरों का प्रतीक चुनते हों, जिनके बुरा न करने के बारे में बंदरों से कोई संदेश निःसृत न होता हो !
चीनी दार्शनिक कन्फूशियस ने भले ही तीन बंदर चुने। पर 500 ईसा पूर्व में लगे हाथ यह भी साफ कर दिया था कि- जो सच्चाई के विरुद्ध है ऐसे कर्म भी मत करो। बुरे कर्म मत करो। चीन ने राष्ट्रपिता गांधी को कन्फूशियस को समग्रता में नहीं सौंपा इसीलिए गांधी संडास साफ करने के कर्म से अहंकार तो तोड़ते रहे पर तीनों बंदरों से कोई संदेश बुरा न करने के लिए नहीं दे पाए। कन्फूशियस और जापान से पहले बुद्ध के अष्टांग मार्ग में तीनों बंदर के संदेश निहित है, बुरा न करने के संदेश भी निहित हैं। इससे आगे के भी चार संदेश निहित हैं।
मनुष्य आम तौर पर ऐसे ही अर्थ ग्रहण करता है, जो उसे भाते हैं। ऐसे ही संदेश पढ़ता है, जो उसे लाभ पहुंचाते हैं। यही वजह है कि कनफूशियस ने बुद्ध के अष्टांग मार्ग के आधे हिस्से को नहीं अपनाया। जापान ने कन्फूशियस के चौथाई हिस्से को नहीं अपनाया है। चीन ने गांधी को कनफूशियस का तीन चौथाई हिस्सा बताया। हम गांधी के किसी नसीहत को नहीं मान रहे हैं। उनके किसी आदर्श पर नहीं चल रहे हैं। उनकी राह हमें अब नागवार गुजरने लगी है। यह कितना विरोधाभासी है कि जैसे-जैसे दुनिया में गांधी की प्रासंगिकता बढ़ रही है वैसे वैसे हमारे जीवन में गांधी और उनके आदर्श गैरजरुरी लगने लग रहे हैं।
बुरा नहीं देखने वाला- मिजारू बंदर। बुरा नहीं सुनने वाला- किकाजारु बंदर। बुरा नहीं बोलने वाले-इवाजारु बंदर। तीनों मिलकर भी आप्रासंगिक हो उठे हैं। बुरा नहीं करने वाला संदेश इन तीनों बंदरों में नदारद हैं। हमें बस अब यही दिख रहा है। हमें लग रहा है कि अगर बापू बुरा नहीं करने की सीख देते तो समाज और जीवन और सुंदर हो जाता। हम इस गफलत के शिकार हैं कि हम उनके इस संदेश को जरुर मान लेते। वह भी तब जब हमने बापू के किसी संदेश को नहीं माना है। उसके किसी भी कर्म, धर्म और मर्म पर चलना कूबूल नहीं किया है।