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अनायास नहीं विश्वविद्यालयों में सियासत के रंगों को लेकर उठ रही बहस

raghvendra
Published on: 29 Dec 2017 11:24 AM GMT
अनायास नहीं विश्वविद्यालयों में सियासत के रंगों को लेकर उठ रही बहस
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पूनम श्रीवास्तव

गोरखपुर। विश्वविद्यालयों में सियासत के रंगों को लेकर देश में उठ रही बहस अनायास नहीं है। जिस प्रकार जेएनयू में लाल सलाम का प्रभाव दिखता है, उसी तरह पूर्वांचल के सबसे महत्वपूर्ण दीनदयाल उपाध्याय, गोरखपुर विश्वविद्यालय में केसरिया रंग का प्रभाव साफ नजर आने लगा है।

योगी आदित्यनाथ के गृह जिले के यूनिवर्सिटी कैंपस में भगवा रंग कुछ अधिक ही चटख होता दिख रहा है। पिछले नौ महीने में एकाएक यहां के शिक्षकों की महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती, पुरस्कारों की बारिश और संघ पृष्ठभूमि के विचारकों की बढ़ी आमदरफत इसे तस्दीक भी कर रही है।

साहित्य अकादमी

बात चाहे पुरस्कारों की हो या फिर विभिन्न विश्वविद्यालयों में बतौर कुलपति तैनाती की गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को जिस प्रकार तरजीह मिल रही है उसे योगी इफेक्ट से ही जोडक़र देखा जा रहा है। गोरखपुर के प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं। उनका कार्यकाल आगामी फरवरी माह में पूरा हो रहा है। प्रो. तिवारी के कार्यकाल पूरा होने से पहले गोरखपुर यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के दो प्रोफेसरों का अकादमी में प्रवेश हो चुका है।

यूपीए के कार्यकाल में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बनाए गए प्रो. तिवारी ने गोरखपुर यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो चित्तरंजन मिश्रा को सदस्य नामित किया है। प्रो. मिश्रा सामाजवादी सोच के पैरोकार माने जाते हैं। वहीं योगी सरकार की तरफ से हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष और बुन्देलखण्ड विवि, झांसी के कुलपति प्रो सुरेन्द्र दुबे को भी इस महत्वपूर्ण आम सभा का सदस्य चुना गया है। दोनों का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा।

प्रदेश हिन्दी संस्थान

साहित्य आकादमी को देश का प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है तो प्रदेश में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान। योगी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद ही आरएसएस की पृष्ठभूमि के जुड़े प्रो सदानंद गुप्त को संस्थान का अध्यक्ष नामित किया गया। मूलत: झारखंड के रहने वाले प्रो गुप्त ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में करीब 33 वर्षों तक अपनी सेवा दी। वह गीता प्रेस से निकलने वाली कल्याण पत्रिका से जुड़े रहे। प्रो सदानंद गुप्त की अध्यक्षता में बीते दिनों भारत भारती पुरस्कार की घोषणा हुई तो उसका भी जुड़ाव गोरखपुर से ही दिखा।

पांच लाख रुपये पुरस्कार राशि वाली भारत भारती पुरस्कार से डॉ. प्रकाश दीक्षित को नवाजा गया। विभिन्न भाषओं पर काम करने वाले डॉ दीक्षित का संबंध गोरखपुर से रहा है। यहीं नहीं उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य संस्थान में गोरखपुर का वर्चस्व और बढ़ गया है।

संस्था की 42 सदस्यीय साधारण सभा में साहित्यकार डॉ वेद प्रकाश पांडेय, महाराणा प्रताप पीजी कालेज, जंगल धूसड़ के प्राचार्य डा. प्रदीप राव, पूर्व रेल अधिकारी और व्यंग्यकार रणविजय सिंह तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. ईश्वर शरण को बतौर सदस्य शामिल किया गया है। यहीं नहीं योगी के सरंक्षकत्व वाले महाविद्यालय के प्राचार्य डा. प्रदीप राव को संस्थान की कार्यकारणी में भी शामिल किया गया है। इन सभी के मुख्यमंत्री से रिश्ते जगजाहिर हैं।

योगी के सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने के चंद दिनों बाद ही विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति प्रोफेसर विजय कृष्ण सिंह की तैनाती के बाद भी कैंपस के केसरिया होने का कयास लगने लगा था। प्रो सिंह योगी के सरंक्षकत्व वाले महाराणा प्रताप शिक्षण परिषद के उपाध्यक्ष और पूर्व कुलपति प्रो यूपी सिंह के बेटे हैं।

प्रोफेसर वीके सिंह ने भी खुद को भगवा रंग में रंगने में तनिक देरी नहीं की। कुलपति आवास के बाहर का नेम प्लेट का भगवा रंग पूरी कहानी खुद ब खुद कह देता है। यहीं नहीं विश्वविद्यालय के निर्णयों में भी योगी इफेक्ट साफ दिखता है। योगी के प्रबंधकत्व वाले महाविद्यालय पहले से ही संयुक्त प्रवेश परीक्षा और स्वकेन्द्र परीक्षा प्रणाली को हटाने की वकालत करते रहे हैं। विवि प्रशासन ने दोनों निर्णयों को लागू कर साबित कर दिया है कि वह मंदिर की पसंद और नापंसद का कितना ख्याल रख रहे है।

52 लाख की लागत से स्थापित हुई पंडित दीन दयाल की प्रतिमा

गोरखपुर विश्वविद्यालय में दो साल पूर्व ही दीन दयाल उपाध्याय की प्रतिमा स्थापना को लेकर सहमति बन गई थी। लेकिन कार्ययोजना ने प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद रफ्तार पकड़ ली। मुंबई से तैयार होकर आयी पं. दीनदयाल उपाध्याय की आदमकद प्रतिमा का पिछले सितम्बर माह में राज्यपाल राम नाईक और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोकार्पण किया। 9 फिट ऊंचे चबूतरे पर लगी आदमकद प्रतिमा के चबूतरा के लिए 28 लाख तो प्रतिमा निर्माण पर 24 लाख रुपये खर्च हुए हैं।12 फीट उंची कांसे की प्रतिमा 1100 किलो की है।

गोरखपुर विश्वविद्यालय को अचानक मिलने लगा सम्मान

गोरखपुर विश्वविद्यालय से जुड़े शिक्षकों को अचानक सम्मान मिलना भी अनायास नहीं है। यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रो रजनीकांत पांडेय सिद्धार्थ यूनिवर्सिटी के कुलपति बने तो प्रो राजेन्द्र प्रसाद यादव इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय के पहले कुलपति होने का गौरव हासिल किया। दोनों कुलपतियों को पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कुलपति की कुर्सी समाजवादी सोच को आगे बढ़ाने को लेकर इनाम में दी थी।

दोनों कुलपति योगीराज में भी खुद को गोरखपुर का बता कर कुर्सी पर मजबूती से काबिज हैं। योगीराज में कुछ प्रोफेसर की बतौर कुलपति नियुक्ति हो गई है तो कुछ कतार में नजर आ रहे हैं। संघ की जमीन से जुड़े प्रो सुरेन्द्र दुबे बुंदेलखंड यनिवर्सिटी के कुलपति नियुक्त हुए हैं। वहीं भूगोल विभाग में आचार्य और संघ से जुड़े प्रो. केएन सिंह का नाम कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में काफी आगे चल रहा है।

वीर बहादुर के कार्यकाल में भी अचानक होने लगी थीं नियुक्तियां

गोरखपुर के रहने वाले वीर बहादुर सिंह जब प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो अचानक गोरखपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के पंख लग गए थे। प्रो बीबी विशेन रूहेलखंड यूनिवर्सिटी के कुलपति बने थे तो प्रो सीबी तिवारी मेरठ यूनिवर्सिटी के। इसी क्रम में प्रोफेसर अतुल चंद बनर्जी को फैजावाद यूनिवर्सिटी का कुलपति नियुक्त किया गया था।

वीर बहादुर सिंह के समय ही प्रो यूपी सिंह पूर्वांचल यूनिवर्सिटी के कुलपति बने तो प्रो एनके सान्याल राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी के कुलपति बनने का गौरव हासिल किया। शान्ति स्वरूप भटनागर पुरस्कार विजेता और गोरखपुर यूनिवर्सिटी में रसायन विज्ञान में प्रोफेसर आरपी रस्तोगी को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। इसी क्रम के प्रो. एसपी नागेन्द्र को लखनऊ विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया था।

गोरक्षपीठ आगे शेष पीठ पीछे

नाथ सम्प्रदाय के साथ ही धर्म और अध्यात्म विषय पर बेहतर शोध के लिए दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में गोरक्षपीठ की स्थापना की जा रही है। पीठ में निदेशक के साथ करीब 42 पद सृजित होने हैं। वाणिज्य विभाग के पुराने बिल्डिंग को गिराकर भव्य गोरखपीठ की स्थापना की जानी है।

विश्वविद्यालय प्रशासन मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप वाले गोरक्षपीठ को लेकर जहां काफी सक्रिय दिख रहा है, वहीं राजनीतिक और एकेडमिक वजहों से पूर्व स्थापित पीठ का बुरा हाल है। गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रस्तावित दीनदयाल उपाध्याय पीठ का अता पता नहीं है। इसी तरह हिन्दी विभाग में प्रेमचंद पीठ, संस्कृत में राहुल संस्कृतायन पीठ, शिक्षा विभाग में प्रस्तावित किये गए मदन मोहन मालवीय पीठ का अतापता नहीं है।

मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में राजनीति शास्त्र विभाग में कांशीराम पीठ खोले जाने की कवायद तेजी से हुई लेकिन सरकार के जाते ही सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया।

व्याख्यानों में संघ की पृष्ठभूमि से जुड़े वक्ताओं की बढ़ी पूछ

सत्ता की कमान का असर यूनिवर्सिटी में होन रहे व्याख्यानों पर भी दिख रहा है। संघ से जुड़े राकेश सिन्हा, भाजपा के प्रवक्ता और एकेटीयू में मैकेनिकल डिपार्टमेंट में प्रोफेसर सुघांशु त्रिवेदी, एकात्म मानववाद शोध केन्द्र नई दिल्ली के निदेशक डॉ महेश चन्द्र शर्मा सरीखे वक्ताओं का अचानक यूनिवर्सिटी कैंपस में दस्तक देने के अपना संकेत है, अपना संदेश।

हिन्दी का दलालपथ बन गया गोरखपुर : प्रो गणेश पांडेय

गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व आचार्य और साहित्यिक पत्रिका यात्रा के संपादक प्रो. गणेश पांडेय गोरखपुर के साहित्यकारों के एकाएक सम्मान और पुरस्कारों को लेकर बेहद तल्ख दिखते हैं। उनका फेसबुक वाल गोरखपुर से दिल्ली तक के साहित्यकारों के बीच चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। पिछले दिनों प्रो गणेश पांडेय ने यहां तक लिख दिया कि आज की तारीख में हिन्दी का सबसे बड़ा दलालपथ और किन्नरलोक गोरखपुर में है! दिल्ली बद से ज्यादा

बदनाम है।

पिछले दिनों सुरेन्द्र दुबे और चित्तरंजन मिश्र को साहित्य अकादमी में जगह मिली तब भी उनके द्वारा की गई टिप्पणी सुर्खियों में रहीं थी। उन्होंने लिखा कि सुरेन्द्र दुबे जी और चित्तरंजन मिश्र जी के बारे में कुछ भी कहने लायक नहीं है। संघ समर्थित लेखकों की बढ़ी कद्र पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि दिल्ली के तोप और तमंचा छाप प्रगतिशील लेखकों को मुंह छिपाने के लिए बिल ढूंढ़ लेना चाहिए।

संघ से जुड़ी पाषाण प्रतिभाएं साहित्य अकादमी में पहुंच रही हैं। भाजपा शासित राज्य सरकारों से जो नाम भेजे गये , वे मुख्यमंत्रियों की साहित्यिक निरक्षरता का प्रमाण हैं।

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के प्रति हमलावर गणेश पांडेय ने तो यहां तक लिख दिया कि जैसे अपराधियों के भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पैदा करने के लिए राजनेता दोषी होते हैं, उसी तरह हिन्दी के अपात्र लोगों के भीतर अतिशय साहित्यिक महत्वाकांक्षाएं पैदा करने के लिए विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी जैसे लेखक दोषी होते हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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