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विडम्बना : बदलाव की बयार ने कुलियों को ही बना दिया बोझ

raghvendra
Published on: 25 Jan 2018 4:20 PM GMT
विडम्बना : बदलाव की बयार ने कुलियों को ही बना दिया बोझ
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर। पिछले 21 जनवरी को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने-अपने क्षेत्र में बेहतर काम करने वाली 112 महिलाओं को सम्मानित किया था। इनमें जयपुर की महिला कुली मंजू भी शामिल थीं। मंजू ने जब अपनी दुश्वारियों को जुबां पर लाईं तो वहां मौजूद लोगों के साथ खुद राष्ट्रपति की आंखें भी नम हो गयीं। इसके बाद राष्ट्रपीित ने कहा कि मैं कभी इतना भावुक नहीं हुआ, जितना बेटी मंजू की कहानी सुनकर हुआ।

मंजू भाग्यशाली थीं कि उनकी बातों को खुद राष्ट्रपति ने सुना और शाबासी भी दी। लेकिन देश के बड़े स्टेशनों पर हजारों कुली ऐसे हैं जिनका दर्द सुनने वाला कोई नहीं है। नई-नई तकनीक और बदलाव ने हजारों कुलियों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट पैदा कर दिया है। दूसरों का बोझ उठाने वाले कुली बदलाव की बयार में खुद बोझ बन अपने वजूद की लड़ाई लडऩे को अभिशप्त नजर आ रहे हैं।

कुली हमारे रोज की जिंदगी से जुड़ा किरदार है। इसीलिए जब दक्षिण के सुपर स्टार जब राजनीति में दखल देते हैं तो सबसे पहले सोशल मीडिया पर यह बताने की होड़ मचती है कि संघर्ष के दिनों में उन्होंने कुली का काम किया था। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन हों या फिर गोविन्दा रूपहले पर्दे पर कुली के चरित्र को निभाने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। लेकिन आधुनिकता के दौर में रोज आ रहे बदलाव से खुद बोझ बने कुली आज आंदोलन की राह पर हैं।

गोरखपुर स्टेशन पर तैनात 184 कुली रेलवे स्टेशन पर ई रिक्शा के संचालन का जमकर विरोध कर रहे हैं। रेलवे प्रशासन को ज्ञापन देकर कुलियों ने ई रिक्शा पर रोक लगाने की मांग की है। उनका कहना है कि गोरखपुर में पहली जनवरी से ई रिक्शा चल रहा है। ई रिक्शा के चलते उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। दरअसल आधुनिक हो रहे रेलवे ने स्टेशनों पर कई बदलाव किये हैं जिसका असर कुलियों के रोजगार पर पड़ा है।

गोरखपुर जंक्शन पर वर्ष 2012 में प्लेटफार्म नम्बर एक पर कैब-वे का निर्माण हुआ था तो कुलियों ने नहीं सोचा था कि यह उनके रोजगार को तोड़ देगा। इससे करीब 25 फीसदी यात्री सीधे ट्रेन की बोगियों तक पहुंच जाते हैं। इसके साथ ही बाजारों में उपलब्ध ट्रॉली बैग के जरिये लोग खुद अपना सामान आसानी से लेकर आ-जा रहे हैं। प्रमुख स्टेशनों पर स्वचालित सीढ़ी ने कुलियों की डिमांड पर काफी प्रभाव डाला है। इसके साथ ही गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर लगे लिफ्ट से यात्रियों को सामान लाने-ले जाने में सहूलियत हुई है।

रही सही कसर पहली जनवरी से शुरू हुई पे एंड यूज ई-रिक्शा ने पूरी कर दी। इसके जरिये महज 20 रुपये में ट्रेन तक पहुंचा सकता है। एनई रेलवे मजदूर यूनियन के महामंत्री केएल गुप्ता कुलियों की समस्याओं को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। उनका कहना है कि गोरखपुर में ही 184 कुली तैनात हैं। कुलियों को रेल मंत्रालय से सिर्फ आश्वासन ही मिला है। कुलियों को चतुर्थ श्रेणी में नौकरी, चिकित्सा, वारिस हस्तानांतरण और विश्रामालय की सुविधा मिलनी चाहिए।

कभी बिकता था बिल्ला

वर्ष 1972 में अमिताभ बच्चन के जब कुली फिल्म में 786 नंबर के बिल्ले के साथ कुलियों के किरदार को निभाया था तो फिल्म सुपरहिट हुई थी। तब से लेकर पिछले कुछ वर्षों तक आलम यह था कि कुली के बिल्ला की बोली लगती थी। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने जब कुलियों को गैंगमैन बनाने का फैसला लिया तो कुलियों में उम्मीद की किरण जगी थी। पिछले दिनों एक बार फिर रेलवे की तरफ से इन्हें नई पहचान देने का दावा किया जा रहा है। रेलवे प्रशासन का दावा है कि कुलियों की नई पहचान अब सहायक के रूप में होगी। नाम ही नहीं इनकी वर्दी भी अब लाल की जगह नीली होगी। नए नाम और वर्दी के साथ यात्रियों का बोझ उठाने में भी रेलवे इनकी मदद करेगा। एयरपोर्ट की तर्ज पर यह ट्रॉली से सामान ले जाते दिखेंगे।

देश के सभी स्टेशनों पर तैनात कुलियों का ब्योरा रेलवे ने मांगा है। बदलाव में बोझ बने कुलियों को दो वक्त की रोटी मिलना भी मुश्किल हो रहा है तो वह पीढिय़ों के रोजगार से तौबा कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में पूर्वोत्तर रेलवे के प्रमुख स्टेशनों पर कुलियों की संख्या में गिरावट आई है। दो साल पहले गोरखपुर जंक्शन पर जहां 215 कुली थे वहीं अब घटकर महज 137 रह गए हैं। वहीं लखनऊ जंक्शन पर पहले जहां 120 कुली थे वहीं अब घटकर 65 रह गए हैं। जबकि वाराणसी जंक्शन कुलियों की संख्या दो वर्ष में 255 से घटकर 170 रह गई है। यह संख्या तब है जब रेलवे के चतुर्थ श्रेणी में नौकरी के आश्वासनों के बीच सैकड़ों कुली भूखे पेट ही रेलवे स्टेशनों पर गुजारा कर रहे हैं।

कुलियों का दर्द

बंदरगाहों पर सामान उठाने वालों के लिए वर्ष 1727 में पहली बार अधिकारिक रूप से कुली शब्द का इस्तेमाल किया गया था। रेलवे की स्थापना के साथ ही कुली यात्रियों के सामानों का बोझ उठा रहे हैं, लेकिन रेलवे स्टेशनों पर चलते फिरते पूछताछ केन्द्र की पहचान रखने वाले कुलियों के समक्ष वजूद का संकट है।

पिछले 40 वर्षों से गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करने वाले बुद्धि का कहना है कि आधुनिकता की चोट नहीं थी तो रोज 300 से 400 रुपये की कमाई हो जाती थी। अब तो यात्री हमारी तरफ देखना भी नहीं चाहते हैं। कुली नवरतन का कहना है कि भाई के साथ पिछले तीन दशक के कुली का काम कर रहे हैं। सरकार प्रत्येक रेल बजट में कुलियों के लिए घोषणाएं करती हैं, लेकिन उन पर अमल दूर की कौड़ी है। बेटे अब मजदूरी तो कर रहे हैं,लेकिन कुली का काम करने को तैयार नहीं हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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