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गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट: साहित्य है समाज का दर्पण, सामाजिक सरोकारों पर हुई गम्भीर चर्चा

raghvendra
Published on: 17 Feb 2018 4:22 PM IST
गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट: साहित्य है समाज का दर्पण, सामाजिक सरोकारों पर हुई गम्भीर चर्चा
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर: साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्यकार से लेकर आमलोग न सिर्फ इसे महसूस कर रहे हैं बल्कि इसी सूत्रवाक्य के इर्द-गिर्द साहित्य का सृजन भी होता रहा है। बदलाव से दो-चार हो रहा आधुनिक समाज साहित्य में दक्षिणपंथ और वामपंथ के दो पाटों के बीच फंसा नजर आता है। लेखक अपनी ही लाइन पर बहस की धारा को मोडऩे की पुरजोर कोशिश भी करते हैं। नतीजतन, ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस सूत्रवाक्य पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश दिखती है। 10 और 11 फरवरी की तारीख ऐसे ही बहसों के बीच साहित्य के सार्थक राह की तलाश के नाम रही जब दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में आयोजित गोरखपुर साहित्य समागम में देश के नामी-गिरामी साहित्यकार और विचारक साहित्य को समाज से जोडऩे की कोशिश करते हुए नजर आये।

समागम में आयोजित दस सत्रों में समाज के विभिन्न वर्गोंं ने खुलकर संवाद किया। जहां साहित्य के गीता प्रेस के अवदान की चर्चा हुई तो नेपाली साहित्य के सर्जकों की मौजूदगी ने दोनों देशों के बीच कायम रोटी-बेटी के संबंध को मजबूत करने की कोशिश भी हुई। पिछले वर्ष शहर के युवाओं ने गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट का आयोजन किया था। इस बार पूर्व सांसद हर्षवर्धन सिंह की याद में बने हर्षवर्धन फाउंडेशन इस समागम का आयोजक रहा।

समागम के पहले दिन सार्क भाषा और क्षेत्रीय साहित्य और सामाजिक सरोकारों पर गम्भीर चर्चा हुई। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ तिवारी ने शब्द की सत्ता को परिभाषित करते हुए कहा कि जहां शब्द नहीं हैं, वहां हिंसा का बोलबाला है। जंगल, पानी आदि में शब्द नहीं हैं, इसलिए वहां जीवन का कोई कानून भी नहीं है। उनका साफ संदेश था कि जहां साहित्य के सृजन में बंदिशें हों उसे सभ्य समाज की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।

भारत नेपाल संबंधों में भाषा की भूमिका पर भी खुली बहस हुई। जानेमाने साहित्यकार प्रो. रामदेव शुक्ल ने कहा कि भारत और नेपाल की बोली व भाषा ही नहीं, संस्कृतियां भी मिलती जुलती हैं। प्रोफेसर चितरंजन मिश्रा ने कहा कि भारत व नेपाल को बड़ा छोटा भाई मानने की जगह जुड़वा भाई कहना समीचीन होगा। दार्जिलिंग से आए डॉ. मनप्रसाद सुब्बा ने कहा कि नेपाली भाषा सिक्किम की राजभाषा है। तमाम पहाड़ी क्षेत्रों में नेपाली को लोग हिन्दी के बराबर ही इस्तेमाल करते हैं। वहीं हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद पर समृद्ध बनाने पर केन्द्रित सत्र में डॉ मनप्रसाद सुब्बा, डॉ हुमा सब्जपोश, डॉ नंदिता सिंह सरीखे वक्ताओं ने एक सुर में कहा कि हिन्दी साहित्य में तमाम नयाब रचनाएं हैं। अच्छी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद हो तो हिन्दी साहित्य और समृद्ध होगा।

सोशल मीडिया का साहित्य पर प्रभाव विषय पर चर्चा में पत्रकार राहुल देव ने कहा कि वैचारिक उदण्डता सोशल मीडिया पर काफी घातक साबित हो रही हैं। बड़े प्लेटफार्म का उपयोग रचनात्मकता के लिए किया जाना चाहिए। डॉ. विद्या बिंदु सिंह व राजा बुंदेला ने कहा कि सोशल मीडिया ने भाषा के साथ साहित्य का बड़ा नुकसान किया है। इस स्वतंत्र मीडिया पर हर कोई अपने विचार बिना सोचे समझे उड़ेल रहा है और भाषा की दुर्गति हो रही है।

समागम के दूसरे दिन के आकर्षण के केन्द्र परमवीर चक्र विजेता योगेन्द्र सिंह यादव रहे। योगेन्द्र यादव ने ‘सेना से प्रेरणा लेता व सेना को बल देता साहित्य’ विषयक चर्चा में अपने विचार व्यक्त किये। गोरखपुर में आयोजन हो और गीता प्रेस के योगदान पर चर्चा न हो ऐसा नहीं हो सकता है। गीता प्रेस के डॉ लालमणि तिवारी ने कहा कि गीता प्रेस पर कोई आर्थिक संकट नहीं है और ऐसा एक षड्यंत्र के तहत बदनाम करने की कोशिश की गई। गीता प्रेस ने सर्वधर्म समभाव के लिए सदैव कार्य किया है और अब तक 66 करोड़ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन 15 भाषाओं में किया है जिसमें 1800 से ज्यादा तरह की किताबें शामिल हैं।

समागम के अंतिम सत्र में आयोजित कवि सम्मेलन और मुशायरे में देश के जाने-माने कवियों ने रंग जमाया। डॉ. कुँवर बेचैन, कलीम कैसर, सरिता शर्मा, शाइस्ता सना, मनीष शुक्ला, खुशवीर सिंह शाद आदि ने एक से बढ़ कर एक नायाब रचनाएं पेश की।

और उर्वरा हुई साहित्य की जमीन

दो दिनों के साहित्यक आयोजन में 1500 से अधिक लोगों की सहभागिता ने आयोजकों को अगले आयोजन के लिए उर्जा दे दी है। समापन समारोह में मुख्य अतिथि रहे केन्द्रीय वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ल का कहना है कि गोरखपुर साहित्य समागम देश में मील का पत्थर साबित होगा। क्योंकि यहां पहली बार अंग्रेजियत हावी नहीं रही। उन्होंने कहा कि गोरखपुर साहित्य समागम से दूसरे बड़े समागमों को सीखने की जरूरत है, सामाजिक सरोकारों पर चर्चाएं किए बिना कोई भी समागम पूरा हो ही नहीं सकता है। महापौर सीताराम जायसवाल कहते हैं कि इस तरह के आयोजन से शहर को साहित्य के क्षेत्र में नई ऊंचाई मिलती है।

आयोजन के कर्ताधर्ता और हर्षवर्धन फाउंडेशन के अध्यक्ष आनंद वर्धन सिंह कहते हैं कि अभी तक देश में जितने भी साहित्य समागम हो रहे हैं, उनमें अंग्रेजी का बोलबाला रहता है। जिसके कारण आमजन तक ऐसे समागम पहुंच नहीं बना पा रहे हैं। साहित्य और सामाजिक सरोकारों को आमजन से जोडऩे के उद्देश्य से गोरखपुर साहित्य समागम का आयोजन किया गया है। राजनीति विश्लेषक शान्तनु गुप्ता कहते हैं कि समागमों में एक बात तो अच्छी है कि प्रकाशक, लेखक, एजेंट, प्रचारक आदि सभी से एक ही जगह मुलाकात हो जाती है मगर कुछ समागमों में यह बात बुरी लगती है कि आयोजक जिसे प्रमोट करना चाहते हैं, बस उन्हें ही मंच देते हैं।

करणी सेना का विरोध नाजायज: राजा बुंदेला

बुंदेलखंड राज्य के समर्थक और अभिनेता राजा बुंदेला ने कहा कि फिल्में कल्पनाओं पर आधारित होती हैं। इतिहास से लिए गए अंशों को उसी रूप में इस्तेमाल के दावे नहीं करती। इससे किसी के इतिहास या भविष्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे करणी सेना हो या ब्राह्मण समाज, किसी को फिल्मों का विरोध करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। बुंदेला सवाल करते हैं कि पद्यमावत का विरोध करने वालों को साहित्य में गड़बड़ी करने वाले वामपंथियों का भी विरोध करना होगा। उन्होंने कहा कि आज कुछ युवा साहित्यकारों की पुस्तकें दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित दिखती हैं। पुराने वर्चस्व को तोडऩे के लिए साहित्यकारों को बड़ी लकीर खींचनी होगी। साहित्य का मतलब सिर्फ दिल्ली नहीं है, इस मिथक को गोरखपुर ने अच्छी तरह तोड़ा है। ऐसे ही आयोजनों से पूर्वांचल और बुंदेलखंड जैसे छोटे राज्यों के गठन की आवाज को भी बल मिलेगा।

बाजारवाद से साहित्य को बचाना होगा: प्रो. विश्वनाथ तिवारी

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ तिवारी ने कहा कि जहां शब्द नहीं हैं, वहां हिंसा का बोलबाला है। जंगल, पानी आदि में शब्द नहीं हैं, इसलिए वहां जीवन का कोई कानून भी नहीं है। शब्द की प्रतिष्ठा सभी को मिलकर रखनी होगी। हर साहित्य समागम का उद्देश्य शब्द की प्रतिष्ठा को बचाना होना चाहिए। आज साहित्य पर भी बाजारवाद हावी होने लगा है। साहित्य को इससे बचाकर रखना होगा। वही साहित्य लंबे समय तक याद रखे जाते हैं, जिनमें लोक कल्याण हो। तुलसीदास के दौर में कई साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं की। लंबे समय तक केवल राम चरित मानस को याद रखा गया। बाद में बाबा रामचंद्र दास ने इसमें आजादी की जंग की लाइनें खोज निकाली। उनके गीतों ने आजादी के आंदोलन में ऐसा असर किया कि अंग्रेजी सरकार हिल गई थी। उन्होंने कहा कि गोरखपुर जैसे छोटे शहरों में साहित्य समागमों का होना भविष्य के लिए सार्थक संकेत और संदेश दे रहा है।

युवा साहित्य से कटे तो संस्कृति से कट जाएंगे: राहुल देव

पत्रकार राहुल देव का कहना है कि आजादी के बाद से हिन्दी का महत्व बढ़ा है, बढ़ रहा है, बढ़ता रहेगा। हिन्दी जर्मन, फ्रेंच जैसी भाषाओं सरीखी मजबूत हो इसके लिए सरकार को प्रयास करने होंगे। सरकार को प्राथमिक शिक्षा में माध्यम के तौर पर मातृभाषाओं को बनाए रखने पर जोर देना होगा। अगर प्राथमिक शिक्षा में मातृ भाषाओं को निकाल दिया गया तो केवल हिन्दी ही नहीं बल्कि भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी अंग्रेजी के हाथों बिकने से कोई नहीं रोक सकता। उन्होंने कहा कि साहित्य युवाओं से नहीं, बल्कि युवा आजकल साहित्य से कटने लगे। सोशल मीडिया इसका बड़ा कारण है। युवा पीढ़ी यदि साहित्य से इसी तरह कटती रहेगी तो अपनी संस्कृति व जड़ों से कट जाएगी।

मंचीय कविता ने आईआईटी में पहुंच बनाई: कुंवर बेचैन

जाने-माने कवि कुंवर बेचैन का कहना है कि मंचीय कविताओं की समीक्षक भले ही उपेक्षा करें लेकिन कुमार विश्वास ने इसी के जरिये हिन्दी कविता को आईआईटी परिसर तक में मजबूती से पहुंचाया है। निराला और दिनकर जैसे महाकवियों ने भी मंच से कविताएं पढ़ी हैं। कवि और कविता का गतिशील और संप्रेषणीय होना जरूरी हो गया है। ऐसे में अब सिर्फ कवि होना ही काफी नहीं है, परफार्मर भी होना होगा। पहले कवि सिर्फ कविता सुनाते थे और लोग उसे सुनते थे। अब कविता सुनाने के लिए भी माहौल बनाना पड़ता है। गति चाहने वाले श्रोताओं के सामने यदि कवि की गति कम होगी तो वह सिर्फ सफर करेगा, मंजिल तक नहीं पहुंच सकेगा। बदलाव पर चर्चा करते हुए कुंवर ने कहा कि कवि सम्मेलनों का आयोजक और प्रायोजक मिलना काफी सकारात्मक पक्ष है।

गौरव गाथाएं सैनिकों के लिए परमवीर चक्र सरीखी: योगेन्द्र सिंह यादव

परमवीर चक्र विजेता सूबेदार योगेन्द्र सिंह यादव ने ‘अपना भारत’ से बातचीत में कहा कि दो देशों के बीच होने वाले युद्धों को प्रॉक्सी वार बताने वाले युवाओं पर तरस आता है। ऐसे लोगों से बस यही कहना है कि यदि देश सुरक्षित है तभी लोग ऐशो आराम से जीने की सोच सकते हैं। सेना की ट्रेनिंग विंग का हिस्सा बन चुके योगेन्द्र यादव का कहना है कि सेना में राजनीति के बजाए सिर्फ लक्ष्य पर चर्चा होती है। इसलिए सेना को लेकर बाहर क्या बातें हो रही हैं, राजनीति हो रही है या नहीं, इसका कोई असर नहीं होता। भारतीय सेना का मनोबल ऊंचा है और ऊंचा रहेगा। सैनिक का एक ही धर्म है - देश की रक्षा।

देश की सेना का गौरवशाली इतिहास है। मैंने खुद बचपन से वीरगाथाएं सुनी और पढ़ी। यही वजह थी कि मैं सेना में गया। मेरी सलाह है कि स्कूलों में बचपन से ही सेना की गौरव गाथाएं पढ़ाई जाएं ताकि आने वाली पीढ़ी सेना का अंग बनने की भी प्ररेणा ले सके।

इन किताबों का हुआ लोकार्पण

समागम में दस पुस्तकों का विमोचन हुआ। इनमें पीके लाहिड़ी व केके पांडेय की किताब ‘आइने गोरखपुर‘, योगी आदित्यनाथ की बायोग्राफी कही जा रही शांतनु गुप्ता की ‘द मांक हू बिकेम चीफ मिनीस्टर‘, सुरेन्द्र काले की ‘शब्द‘, कमलेश त्रिपाठी की ‘टिपिकल टेल ऑफ एन इंडियन सेल्समैन’ और नीरजा हेमेन्द्र की किताब ‘पत्तों पर ठहरी ओस की बूंद’ प्रमुख रहीं। इसके अलावा हिमांशु राय की पुस्तक ‘माई म्यूट गर्लफ्रेंड’, डॉ शक्ति सिंह की पुस्तक ‘सामान्य आहार एवं पोषण’, कलीम कैसर की पुस्तक ‘लजों का पुल सीरत’ और मनीष शुक्ला की पुस्तक ‘रोशनी जारी करो’ का लोकार्पण हुआ।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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