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गोरखपुर लिटरेरी फेस्टर: शब्द से मुठभेड़ का सार्थक संदेश

raghvendra
Published on: 12 Oct 2018 12:01 PM GMT
गोरखपुर लिटरेरी फेस्टर: शब्द से मुठभेड़ का सार्थक संदेश
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पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर: जहां साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी का घर हो, जिस धरती के सदानंद गुप्त उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान के अध्यक्ष हों, जहां के कई शिक्षक प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति के पद पर आसीन हों, जो धरती प्रेमचंद की कर्मभूमि रही हो, जहां फिराक जैसे नामचीन शायर पूरी दुनिया को अपने शब्दों की जादूगरी से मुरीद बनाए हुए हों और जहां से बुद्ध, कबीर और गोरखनाथ ने पूरी दुनिया को संदेश दिया हो वहां साहित्य को लेकर खामोशी अचरज सरीखी दिखती है। कभी-कभार साहित्य को लेकर बहसबाजी हुई भी तो सिर्फ सोशल मीडिया पर। वह किसी को गरियाने के लिये या फिर उपकृत करने के लिए। ऐसे में कुछ युवा और साहित्यिक विमर्श को लेकर बेचैन रहने वाली जमात के गठबंधन के बल पर आयोजित गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट का शब्द संवाद सार्थक संदेश देता नजर आता है। शब्दों के मुठभेड़ से दूर तलक निकलने वाली बातें निकलीं।

करीब एक दशक पहले जानेमाने आलोचक प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव के इस बयान पर हंगामा खड़ा हो गया था कि गोरखपुर मरा हुआ शहर है। यहां प्रतिक्रियाएं नहीं होतीं। शब्द भले ही कड़वे थे, लेकिन थे हकीकत के काफी नजदीक। साहित्य के तमाम धरोहरों को अपनी थाती बताने वाले शहर में लंबे समय से अजीब सी खामोशी नजर आ रही है। साहित्य की उर्वरा धरती पर अजीब से सन्नाटे को तोडऩे की कोशिशों के दावे के साथ आयोजित गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट के 10 सत्रों का 7 अक्तूबर की रात 11 बजे समापन हुआ तो आयोजन की सफलता, असफलता, संकेत और संदेश को लेकर चर्चा शुरू हुई। कुछ चर्चाएं फेस्ट के मंच से हुईं तो कुछ सोशल मीडिया के मंच पर। चाय की चुस्कियों के बीच बौद्धिक वर्ग की चर्चाएं भी बंद कमरों से बाहर आ रही हैं।

साहित्यकार गणेश पांडेय ने अपने चिरपरिचित अंदाज में फेसबुक पर पोस्ट किया कि गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट वालों ने विश्वनाथ जी को हिन्दी का डीह बाबा बना लिया है। साथ में कुछ और कंकड़-पत्थर बटोर लिया है। दुख इस बात का नहीं, बल्कि इस बात का ज्यादा है कि यह शहर हिन्दी के कीट-पतंगों का शहर है। कोई जिंदा लेखक दिखता ही नहीं। वहीं एक वर्ग की आयोजन को ग्लैमर की चाशनी में प्रस्तुत करने को लेकर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। एसी हॉल में दो एलईडी स्क्रीन पर भव्यता को लेकर सवाल दागने वालों की भी कमी नहीं है। वहीं कार्यक्रम में पहुंचे कलाकार अखिलेन्द्र मिश्र ने साहित्य के आयोजन के अंग्रेजी नामकरण पर असहमति जताई। उन्होंने मंच से ही आयोजकों से गुजारिश की कि अगले वर्ष आयोजन का नाम गोरखपुर साहित्य महोत्सव रखा जाए।

बेचैन लोगों को साहित्यिक खुराक

शाबाशी और छिटपुट आलोचनाओं के बीच आयोजित हुए 10 सत्रों में जो रंग दिखे वह न सिर्फ साहित्यिक खुराक को बेचैन लोगों को सुकून पहुंचा रहे हैं, बल्कि उस युवा वर्ग को भी ऊर्जा दे रहा है, जो अपनी धरती की साहित्यिक समृद्धि को सिर्फ किताबों में पढक़र फूलता-पिचकता है। आयोजकों में शामिल वरिष्ठ पत्रकार कुमार हर्ष कहते हैं कि हम साहित्य की प्रजा है। पेशेवर आयोजक नहीं। दो दिन में आयोजित दस सत्रों में बिना भीड़ जुटाने के इंतजाम के लिए लोगों की 10-10 घंटे की लगातार उपस्थिति कार्यक्रम की सफलता पर मुहर लगाती है। साहित्यिक आयोजनों में बढ़-चढक़र अपनी भागीदारी देने वाले डॉ.रजनीकांत श्रीवास्तव कहते हैं कि हम न तो कोई ब्रांड हैं, न ही साहित्यिक आयोजनों की कोई फ्रैंचाइजी ही हमारे पास है। लोगों की सहभागिता से गोरखपुर में साहित्यिक हलचल लाने का प्रयास हुआ, जो काफी सफल प्रतीत हो रहा है। यह दूसरा पड़ाव था। पहले आयोजन की कुछ कमियों को दूर किया गया, आगे भी पूरी भव्यता से साहित्यिक आयोजन जारी रखेंगे। आयोजकों में शामिल डॉ संजय श्रीवास्तव और अन्चित्य लाहिड़ी कहते हैं कि सेल्फी और सोशल मीडिया के दौर में युवा पीढ़ी की घंटों की मौजूदगी बताती है कि लोगों में साहित्य को लेकर भूख है। वह अच्छा संवाद सुनना चाहते हैं और करना भी।

साहित्य के फेस्ट में टेस्ट की वेराइटी

गोरखपुर के सेंट एंड्रयूज महाविद्यालय सभागार में 6 और 7 अक्तूबर को आयोजित साहित्यिक महाकुंभ में कुल दस अलग-अलग सत्र में देश के नामी गिरामी हस्तियों ने शिरकत की। साहित्य पर चर्चा हुई तो शायरी से महफिल भी सजी। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने दो दिवसीय आयोजन का शुभारंभ किया। दो दिनों तक चले विमर्श के सत्रों में कश्मीर से लेकर स्त्री विमर्श पर जोरदार बहस हुई। मीडिया की चुनौतियों से लेकर रंगमंच के बदलाव पर जिस बेबाकी से बात हुई, उसने सभी का ध्यान खींचा।

इंटरनेट के दौर में साहित्य की उड़ान विषय पर आयोजित सत्र में मशहूर लेखिका और स्वतंत्र पत्रकार नासिरा शर्मा ने कहा कि किताबें कालजयी हैं। इंटरनेट उनके प्रचार-प्रसार में मदद कर सकता है, लेकिन वहीं पर डिजिटल माध्यम संवेदनाओं को घालमेल कर देते हैं। यह साहित्य के लिए हानिकारक है। असल साहित्य तो किताब ही है। हालांकि प्रभात रंजन ने इसपर असहमति जताते हुए कहा कि इंटरनेट ने साहित्य की सुलभता को बढ़ाया है और तमाम रीडिंग एप्स से लेकर के ऑडियो बुक तक काफी लोकप्रिय हो रही है। एक सत्र में कश्मीर को लेकर भी बेबाक राय रखी गई। कश्मीरी पंडित और रूट्स इन कश्मीर के संस्थापक सुशील पंडित ने कश्मीरी पंडितों के साथ हुए जुल्म और भारत सरकार के भेदभाव की चर्चा की। उन्होंने कहा कि कश्मीरियों को न्याय नहीं मिलता है और रोहिंग्या मुसलमानों के लिए देश के तमाम नेता और अधिवक्ता खड़े हो जाते हैं।

पूर्व राज्यसभा संसद अमर सिंह एक सत्र में आकर्षण का केन्द्र रहे। फेस्ट में उन्होंने खुलासा किया कि जल्द ही उनके जीवन पर एक आत्मकथा प्रकाशित होने जा रही है। अपने चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव के दौरान रामपुर में जयाप्रदा पर हमले को चीरहरण की कोशिश हुई। मैं कृष्ण की भूमिका में था। एक सत्र मीडिया जनपक्षधरता बनाम दलपक्षधरता विषय पर विमर्श को लेकर समर्पित था। पहले दिन के अंतिम सत्र में मशहूर सिने शख्सियत तथा प्राचीन उर्दू कथा शैली को पुनर्जीवित करने वाले कलाकार महमूद फारुकी ने महाभारत के प्रसिद्ध पात्र दानवीर कर्ण की भावपूर्ण कथा सुनाकर उपस्थित दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। संस्कृत के श्लोक, मानस की चौपाई, उर्दू की शायरी जब एक हुए तुम मानो भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के असल दर्शन हो गए। स्त्री हक और अधिकार को लेकर तीखी बहस

स्त्री विमर्श को लेकर आयोजित सत्र में नामी लेखिकाओं ने जोरदार तर्कों से बहस की। वरिष्ठ पत्रकार गीता श्री ने कहा कि समाज को अब नारी शब्द से परहेज करना चाहिए क्योंकि नारी शब्द अबला होने का संकेत करता है। औरत या महिला कहीं अधिक सम्मानित और सशक्त शब्द महसूस होते है। नख- शिख वर्णन को छोड़दें तो पुरुष का लेखन संदेह के घेरे में है। ब्लॉगर निकिताशा कौर ने पुरुषों की एकमेववादी सोच पर सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि लड़कियों के लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह तय करने का अधिकार पुरुषों को क्यों दिया जाए।

गायिका मालविका हरिओम ने चंद पंक्तियों में अपनी बात दमदारी से कही। उन्होंने सुनाया कि जब तक होठों पर चुप्पी थी मौसम बड़ा सुहाना था, जैसे हक की बात उठाई बदले रंग बहारों के। छोटे शहर के चमकते सितारे नाम के सत्र में गोरखपुर से निकलकर राष्टï्रीय फलक पर चमक बिखेरने वाले कई मशहूर सितारों से गोरखपुरियों की नये अंदाज में मुलाकात हुई। वरिष्ठ पत्रकार और एंकर चित्रा त्रिपाठी ने कहा कि सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं होता। दोस्तों के कपड़े पहनकर सिर्फ 100 रुपये में बुलेटिन करना ठीक से याद है। सुशील राजपाल, अमृता चौरसिया से लेकर वरिष्ठ पत्रकार संजय सिंह ने छोटे शहर से राजधानी के सफर को साझा किया। फेस्ट के अंतिम सत्र में मशहूर शायर वसीम वरेलवी, शायर आलोक श्रीवास्तव, युवा शायर गजेन्द्र हिमांशु के साथ गोरखपुर के अपने शायर कलीम कैसर को सुनने के लिए भारी भीड़ आयोजन के सफलता को तस्दीक कर रही थी।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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