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Gorakhpur News: कोरोना में अपनों को खोने वाले बच्चों का छिन गया बचपन, डीडीयू के शोध में चौंकाने वाले तथ्य आए सामने
Gorakhpur News: गोरखपुर विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग द्वारा कोरोना में अपनों को खोने वाले 7 बच्चों पर किये गए शोध के निष्कर्ष से बात निकली है कि कोरोना बच्चों को जिंदगी भर का दर्द दे चुका है।
Gorakhpur News: केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकार कोरोना में अपने अपने माता-पिता या फिर किसी एक को खोने वाले बच्चों की मदद के लिए भले ही योजनाएं शुरू की। इन्हें लाभ भी मिला। लेकिन हकीकत यह है कि उन्हें सामाजिक संबल नहीं मिला। नतीजतन उनका बचपन छिन गया है। ये बच्चे तनाव, अवसाद के साथ भविष्य की चिंताओं को लेकर मानसिक बीमार हो रहे हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग द्वारा कोरोना में अपनों को खोने वाले 7 बच्चों पर किये गए शोध के निष्कर्ष से बात निकली है कि कोरोना बच्चों को जिंदगी भर का दर्द दे चुका है। इन्हें काउंसलिंग की सख्त जरूरत है।
मनोविज्ञान विभाग की टीम ने शोध के लिए पीएम केयर्स फंड की सहायता पा रहे 7 बच्चों को चुना। इसके तहत ऐसे बच्चों को सहायता मिल रही है जिनके माता-पिता या उनमें से किसी एक की कोविड में मौत हुई हो। रिसर्च करने वाला पीजी की छात्रा गरिमा ने बताया कि इसके लिए 15 परिवार के बच्चों को चुना गया। अलग-अलग वजहों से आठ परिवार के परिजनों ने रिसर्च में शामिल होने से इनकार कर दिया। ऐसे में सात परिवार के बच्चों के जीवन और उनके मनोभाव पर ही शोध हो सका। घटना के वक्त बच्चों की उम्र 9 से 16 साल के बीच रही। हादसे में अपनों को गंवाने वाले तीन लड़कियां और चार लड़कों पर रिसर्च हुई।
बच्चों को बेहतर काउंसलिंग की जरूरत
प्रो. अनुभूति ने बताया कि रिसर्च में साफ है कि बच्चों को बाल मनोवैज्ञानिक से काउंसलिंग की जरूरत है। यह काम सामान्य काउंसलर नहीं कर सकते हैं। इसमें बच्चों के जेहन से नकारात्मक भाव निकालना होता है। उन्हें जीवन में हुई घटना को स्वीकार करना सीखना होता है। यह काउंसलिंग की नाजुक प्रक्रिया है। हादसे के बाद ज्यादातर बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी के पास है। कुछ बच्चे पिता के साथ भी रह रहे हैं। हालांकि दोनों जगह उन्हें मानसिक चुनौतियां मिल रही हैं। इसका असर उनके मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक विकास पर दिख रहा है। उनके जेहन में नकारात्मक विचार तेजी से पनप रहे हैं।
घटना के बाद बच्चों को नहीं मिला सामाजिक संबल
रिसर्च का निर्देशन करने वाली मनोविज्ञान विभाग की प्रोफेसर अनुभूति दुबे ने बताया कि रिसर्च के परिणाम बताते हैं कि माता-पिता को या उनमें से किसी एक को खोने वाले बच्चे अब तक सदमे से उबर नहीं पाए। अंदर ही अंदर घुट रहे बच्चे रात में नींद से जग जा रहे हैं। नींद में बुरे सपने आ रहे। उनकी जीवन से अपेक्षाएं खत्म हो गईं हैं और उनपर नकारात्मक विचार हावी हो रहे हैं। घटना के बाद बच्चों को पर्याप्त सामाजिक संबल नहीं मिला। वह दर्द से उबरने के लिए खुद से जूझ रहे हैं। इसे ग्रेविंग प्रोसेस कहते हैं। यही वजह है कि कमजोर पड़ने पर वे बेवक्त रोने लगते हैं।