सरकारें बदलीं पर नहीं बदली किसानों की हालत

raghvendra
Published on: 24 Aug 2019 8:23 AM GMT
सरकारें बदलीं पर नहीं बदली किसानों की हालत
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सुशील कुमार

मेरठ: यूपी में बीते चार दशक में कईं सरकारें बदलीं, जनप्रतिनिधि बदले पर किसानों की हालत नहीं सुधरी। हालत यह है कि गन्ना व चीनी उत्पादन में देश में पहला स्थान रखने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आर्थिक संकट में हैं। मेरठ, गाजियाबाद, बागपत, बुलन्दशहर, गौतमबुद्धनगर और हापुड़ समेत 26 जिलों में पचास लाख से अधिक गन्ना किसान यहां बाजार को ताकत देते हैं। ऐसा कोई चुनाव नहीं होगा जिसमें गन्ने का भाव अहम मुद्दा न बना हो। इसके बावजूद किसानों का करोड़ों रुपया आज भी गन्ना मिलों पर बकाया है।

इस क्षेत्र में पिछले पांच सालों में दो दर्जन से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आर्थिक संकट के चलते आत्महत्या करने वालों किसानों की कोई अधिकारिक संख्या नहीं बताई जा सकती है क्योंकि सरकारी कागजों में इन घटनाओं की वजह पारिवारिक कलह या अन्य कारण बताया जाता है। किसानों की परेशानी की वजह कई हैं। जोत का आकार घट रहा है, सिंचाई के लिए बिजली-पानी मंहगा हो गया है, अधिग्रहण में जमीन गई तो मुआवजे के लिए कोर्ट कटहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई एक गांव होगा जहां से काम की तलाश में किसानों के बेटे शहरों की तरफ पलायन न कर रहे हों।

प्रदेश सरकार ने चीनी उद्योग को संपूर्ण भुगतान के लिए 31 अगस्त तक का अल्टीमेटम दे रखा है लेकिन भुगतान की रफ्तार बेहद सुस्त है। मंडल की मिलों पर किसानों का करीब 1800 करोड़ बकाया चल रहा है। इसमें मेरठ जनपद की मवाना, नंगलामल, किनौनी, मोहिउद्दीनपुर आदि मिलों पर करीब 750 करोड़ रुपये बकाया है। गन्ना बकाया भुगतान और सर्वेक्षण के लिए संयुक्त गन्ना आयुक्त व मेरठ परिक्षेत्र के नोडल अधिकारी डॉ. वी.बी. सिंह ने क्षेत्र में डेरा डाल रखा है फिर भी मिलें बकाया भुगतान नहीं कर रही हैं।

अगले सत्र की तैयारियां

गन्ना पेराई सत्र मई माह में खत्म हो गया था। नियमानुसार गन्ना मूल्य का भुगतान गन्ना सप्लाई के 14 दिन के अंदर किया जाना चाहिए। सत्र खत्म होने के करीब चार माह बाद भी किसानों को उनका पूरा भुगतान नहीं हो सका है। अब पेराई सत्र 2019-20 की तैयारियां तेजी से चल रहीं है। इसके लिए गन्ना सर्वेक्षण कराया जा चुका है। इसका प्रदर्शन गांवों में किया जा रहा है। किसानों से संशोधन के लिए आपत्तियां ली जा रही हैं।

घट रही खेती में रुचि

करीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने किसान आत्हत्याओं की वजह जानने के लिए आत्महत्या करने वाले किसानों के कुछ मामलों की स्टडी की तो पता चला कि सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज और उनकी छोटी होती जोत है। इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें भी बड़ी वजह है। खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती कीमत से किसानों की निराशा बढ़ती ही जा रही है।

मेरठ मंडल में ही 60 फीसदी से ज्यादा किसान ऐसे हैं जिनकी जोत का आकार एक या दो एकड़ से कम पर सिमट चुका है। इससे किसानों की आमदनी घटी है और खर्चे बढ़े हैं। बागपत के बड़ौली गांव के किसान जगदेव सिंह कहते हैं, खेती में मुनाफा तो दूर अब गुजर-बसर करना तक आसान नहीं रह गया है। अब गांव के लोग नहीं चाहते कि उनके बच्चे खेती करें। इसलिए अब लोग अब अपने बच्चों को शहर जाकर नौकरी करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यह उस इलाके की बात है जो पूर्व प्रधानमंत्री चरणसिंह जैसे किसान नेता की कर्मभूमि रही है। उनके बाद चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत ने कभी गन्ना, बिजली , फसलों के दाम जैसे मुद्दों पर अपने आंदोलनों के जरिये प्रदेश और केन्द्र सरकार तक को हिला कर रख दिया था। आज के दौर किसानों के मुद्दे चुनाव में तो जोर-शोर के साथ उठते दिखते हैं लेकिन चुनाव बाद सब कुछ ठंडा पड़ जाता है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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