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सरकार व चीनी मिलों के बीच पिसता किसान

raghvendra
Published on: 8 Jun 2018 12:18 PM IST
सरकार व चीनी मिलों के बीच पिसता किसान
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रतिभान त्रिपाठी/ राजकुमार उपाध्याय

लखनऊ: मामला गन्ने और चीनी का है। संकट बड़ा है। हालात गड्डमड्ड हैं। मीठी-मीठी चीनी किसानों के लिए कड़वी साबित हो रही और उसका राजनीतिक असर सरकार पर पड़ रहा है। असल में चीनी उद्योग और गन्ना किसान अजीब सी स्थिति में फंसे हुए हैं। यह स्थिति बनी है सरप्लस प्रोडक्शन से। अक्टूबर २०१७ से अप्रैल २०१८ के बीच भारत में ३ करोड़ २० लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ जो देश के कुल उपभोग से ७० लाख टन ज्यादा है। पिछले साल के उत्पादन की तुलना में इस बार एक करोड़ २० लाख टन ज्यादा उत्पादन हुआ है। ये अब तक की सबसे बड़ी ग्रोथ है। अगर इस बारे में थाईलैंड से तुलना करें जो कि एशिया में भारत के बाद गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है तो वहां प्रति वर्ष एक करोड़ २० लाख टन उत्पादन होता है। बम्पर उत्पादन का नतीजा ये है कि भारत में अब खुदरा बाजार में चीनी के दाम बीते ६ महीने में दस रुपये किलो तक गिर गए हैं। उपभोक्ताओं के लिए भले ही यह अच्छी स्थिति है, लेकिन उद्योग के नजरिये से देखें तो अगले सीजन में चीनी उत्पादन का अनुमान ३ करोड़ ३० लाख टन का है यानी इस बार से १० लाख टन ज्यादा। नतीजा यह होगा कि सितम्बर २०१९ तक भारत में चीनी का स्टॉक १८ करोड़ ५० लाख टन तक पहुंच जाएगा।

बम्पर उत्पादन, सस्ती चीनी ये सब तो ठीक है, लेकिन आफत तो किसानों पर ही टूटी है। गन्ना का बकाया भुगतान न होने से किसान गुस्से में हैं। उनके गुस्से का असर उत्तर प्रदेश में हाल के उपचुनावों में भी साफ दिखा। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी दोनों सीटों पर चुनाव हार गई। पार्टी की सबसे बुरी गत तो गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा के क्षेत्र में हुई। अब सब अपने-अपने तरीके से सफाई पेश करने में जुटे हैं लेकिन असल समस्या जस की तस है। कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। दर्द तो यह है कि सरकार और चीनी मिलों के बीच किसान फुटबाल मानिंद हैं। हर हाल में मरना उन्हीं को है।

अलग-अलग दावे

गन्ना किसानों को उनकी लागत का मूल्य नहीं मिल पा रहा है। चीनी मिलें कहती हैं कि सरकार की लोकलुभावन मनमानी घोषणाओं के बोझ से वे बंदी के कगार पर हैं और सरकार की अपनी अलग ही रामकहानी है। किसानों को गन्ना मूल्य के बकाये का भुगतान नहीं मिला, यह तो सच है लेकिन भुगतान पर चीनी मिलों और सरकार में कौन सच बोल रहा है, यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है। सरकार का दावा है कि उन्होंने किसानों के बकाये का 90 फीसदी भुगतान करा दिया है, लेेकिन गन्ना किसानों का तकरीबन 13 हजार करोड़ का बकाया किसके पास है, यह तय ही नहीं हो पा रहा। चीनी मिलें कहती हैं कि चीनी का दाम कम होने से जब वह घाटे में हैं तो बकाया दें तो आखिर कहां से।

गन्ना नकदी फसल के रूप में किसानों के बीच लोकप्रिय जिंस है। उन्हें लगता है कि इसके सहारे जिंदगी आसान बनाई जा सकती है, लेकिन अब वही परेशानी का सबब है। गन्ना उत्पादन इतना ज्यादा हो गया है कि उत्तर प्रदेश की 119 चीनी मिलें उसे पेर नहीं पा रही हैं। चीनी का स्टॉक बढ़ता रहा है। उसका उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा। चीनी उत्पादन के दौरान बचने वाले शीरे का स्टॉक इतना बढ़ चुका है कि चीनी मिलों के सामने उसके स्टोरेज का संकट है। शराब निर्माता या इससे दूसरे बाईप्रोडक्ट बनाने वाले खरीदार नहीं मिल रहे। मिलों के लिए यह शीरा आफत बना हुआ है। उसे यूं ही बहा नहीं सकते। इससे दूसरे किस्म के खतरे पैदा हो जाएंगे। यूं कहें तो यह व्यापक रणनीति का अभाव ही है, जिसकी वजह से गन्ने की मिठास अब कड़वी हो चली है।

किसान चौतरफा संकट में हैं। एक जमाने में महाराष्ट्र के विदर्भ में कपास की खेती में घाटा लगने पर किसानों की आत्महत्या या मौत की खबरें आती थीं लेकिन धीरे-धीरे यह संकट उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में बढ़ा और अब तो उत्तर प्रदेश के धनाढ्य समझे जाने वाले पश्चिमी इलाके में भी किसानों की मौतें हो रही हैं। गन्ना की फसल में अग्रणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत में धरना दे रहे उदयवीर सिंह ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। उदयवीर की मौत इस बात की गवाही है कि गन्ना किसानों का संकट कितना बड़ा हो चला है। बात सिर्फ एक उदयवीर की नहीं, लाखों किसान इस भयावह संकट से जूझ रहे हैं। चीनी मिलें उन्हें ठेंगा दिखाती हैं। बरसों बरस इंतजार के बावजूद किसानों को अपनी लागत के पैसे नहीं मिल पाते, कमाई तो दूर की बात है।

बढ़ती गयी देनदारी

उत्तर प्रदेश में मौजूदा समय में गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 12576 करोड़ रुपया बकाया है। वर्तमान सत्र 2017-18 में सबसे ज्यादा 11261.93 करोड़ रुपये देनदारी निजी चीनी मिलों की है। अब तक सिर्फ 63 फीसदी बकाया धनराशि दी गई है। 37 फीसदी धनराशि अब तक बकाया है। इसके उलट सत्र 2016-17 में जून माह तक गन्ना किसानों का बकाया सिर्फ 3214.03 करोड़ रुपये था। इसमें निजी चीनी मिलों की सिर्फ 2803.54 करोड़ रुपये देनदारी थी। कुल 87.31 फीसदी बकाया धनराशि किसानों को भुगतान की जा चुकी थी। अंतर साफ है कि वर्तमान सत्र में 63 फीसदी भुगतान हुआ है, जबकि बीते सत्र में 87 फीसदी भुगतान हो चुका था। 2015-16 में यही बकाया 2303.39 करोड़ रुपये था। 2014-15 में 6465.23 करोड़, 2013-14 में 6976.88 करोड़ और 2012-13 में 5154.15 करोड़ रुपये बकाया था।

गन्ना बुआई का क्षेत्रफल घटा, पैदावार बढ़ीं

यदि हम वर्ष 2006-07 से 2016-17 तक के गन्ना क्षेत्रफल और औसत उपज की तुलना करें तो पता चलता है कि पिछले दस वर्षों में गन्ना बुआई के क्षेत्रफल में कमी आई है मगर उपज में बढ़ोतरी हुई है। 2006-07 में गन्ना बुआई का क्षेत्रफल 26.62 लाख हेक्टेयर था जो 2016-17 में घटकर 20.54 लाख हेक्टेयर हो गया। 2006-07 में औसत उपज 59.59 टन प्रति हेक्टेयर थी जो 2016-17 में बढक़र 72.38 टन प्रति हेक्टयेर हो गई है।

चीनी उत्पादन भी बढ़ा

नई तकनीक की वजह से पिछले वर्षों में गन्ना फसलों का उत्पादन बढ़ा है। चीनी पर्ता में भी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। 2006-07 में चीनी उत्पादन 84.75 लाख टन था। 2008-09 में यह 40.64 लाख टन हो गया। पर 2016-17 तक चीनी उत्पादन बढक़र 87.73 लाख टन हो गया है। इसी तरह चीनी पर्ता में भी लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। 2011-12 में चीनी पर्ता 9.07 फीसदी था। 2014-15 में यह बढकर 9.54 प्रतिशत हुआ। 2016-17 में यह 10.61 फीसदी था जो 2017-18 में बढक़र 10.87 फीसदी हो गया।

सरकार बदली पर नहीं बदली व्यवस्था

भारतीय किसान यूनियन के महासचिव धर्मेन्द्र मलिक का कहना है कि आज भी उन्हीं गन्ना किसानों का पैसा बकाया है, जिनका पिछली सरकार में भुगतान बकाया था। सरकार बदल गई पर व्यवस्था नहीं बदली। पिछले गन्ना पेराई सत्र में चीनी की कीमत 26 रुपये तक आ गई थी। तब भी गन्ना किसानों का भुगतान हुआ। इस बार शुरुआती सीजन में जब चीनी की कीमत 34 से 36 रुपये तक थी तब भी भुगतान नहीं हुआ। प्राइवेट सेक्टर की चीनी मिलों पर सबसे ज्यादा बकाया है। मलकपुर की मोदी चीनी मिल, सिम्भौली, मोदीनगर और मवाणा चीनी मिलों ने एक साल से गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान नहीं किया है। बजाज ग्रुप की 15 इकाइयां करीब 50 फीसदी भुगतान ही कर सकी हैं। गन्ना किसानों को हर सरकार में निराश होना पड़ता है। किसान आंदोलन करता है और भुगतान के नाम पर बेलआउट पैकेज चीनी मिलों को मिलता है। कैराना, नूरपुर का उपचुनाव हारते ही चीनी मिलों को 8500 करोड़ रुपये का पैकेज देने की घोषणा हो गई।

संकट का कारण सरकार की गलत नीतियां

सरकार कुछ भी दावा करे, उत्तर प्रदेश चीनी मिल एसोसिएशन उसे किसी भी सूरत में मानने को तैयार नहीं। जब सरकार यह कहती है कि उसने किसानों का अधिकांश बकाया भुगतान करा दिया तो चीनी मिल एसोसिएशन कहता है कि कैसे भुगतान करा दिया। तकरीबन 13 हजार करोड़ रुपये बकाया है। उत्तर प्रदेश चीनी मिल एसोसिएशन के महासचिव दीपक गुप्तारा दावा करते हैं कि गन्ना उत्पादन इतना अधिक हो गया है कि चीनी मिलों के सामने पेराई करने की समस्या खड़ी हो गई है। जून का महीना चल रहा है और पेराई अब तक चल ही रही है।

गुप्तारा कहते हैं कि समस्या एक हो तो बताएं। चीनी उत्पादन पर लागत 37 रुपये 50 पैसे प्रति किलो आ रही है और बाजार में 25 से 27 रुपये प्रति किलो तक चीनी बिक चुकी है। अब यह 7 से 8 रुपये प्रति किलो का घाटा किसके मत्थे जा रहा है। जाहिर है चीनी मिलें बहुत संकट में हैं। सरकार तो मनमाने ढंग से गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ा देती है। केंद्र सरकार ने गन्ना समर्थन मूल्य 255 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया था लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे 60 रुपये और बढ़ाकर 315 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया। तो इतने बड़े फासले की भरपाई कौन करेगा। जबकि महाराष्ट्र आदि राज्यों में किसान और मिलें बैठकर गन्ना मूल्य तय करते हैं। जहां तक 13 हजार करोड़ रुपये के बकाये का मामला है तो उसमें 8 हजार करोड़ रुपये तो गन्ना मूल्य का नुकसान है। सरकार को यह धनराशि चीनी मिलों को देनी चाहिए, जो नहीं मिली है।

यह पूछने पर कि जब चीनी मिलें घाटा बता रही हैं तो चल कैसे रही हैं, दीपक गुप्तारा कहते हैं कि चार साल नुकसान, एक साल फायदा। इसी दायरे में जैसे तैसे चल रही हैं। गुप्तारा खुलकर कहते हैं कि सरकार की गलत नीतियों के कारण ही संकट है। किसान अपनी फसल का रकबा बढ़ाते जा रहे हैं, गन्ने की अच्छी वेराइटी के कारण उत्पादन और ज्यादा बढ़ रहा है। इसके बीच कोई सामंजस्य बनाकर ही इस संकट का समाधान निकाला जा सकता है। शीरे मिलों में गन्ने की अधिकता है और शीरे की भी। शीरा रखने को जगह नहीं है। करें तो क्या करें। निजी क्षेत्र की 68 चीनी मिलों के साथ ही सहकारी क्षेत्र की 25 मिलों पर भी कुछ ऐसा ही संकट है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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